तालिबान गुट टीटीपी को एक वैचारिक सहयोगी के रूप में पोषित करते हैं, क्योंकि अमीर हिबतुल्लाह अखुंदजादा का शासन सीमावर्ती क्षेत्रों को पाकिस्तानी नहीं, बल्कि अफगानी मानता है.
ऐसा लगता है कि मोदी सरकार एक्स से खुद को अलग नहीं कर पा रही है. वह सोशल मीडिया पर बढ़ते गुस्से को बढ़ावा दे रही है और अपने ही बनाए राक्षस को चुपचाप और बड़ा कर रही है.
तमाम संगठन वक्त के साथ बदलते हैं, संघ ने भी शायद खुद को बदला है, लेकिन इसका अतीत इस पर राजनीतिक हमले करने के लिए इसके आलोचकों को आसानी से हथियार मुहैया कराता है.
नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और मोरारजी देसाई जैसे भारतीय नेताओं को पश्चिम ने अहंकारी माना, जबकि पाकिस्तानी नेता हमेशा घुटनों पर झुकने को तैयार रहते थे.
प्रधानमंत्री मोदी ने 'रेवड़ी' की राजनीति पर हमला बोलकर सही मायने में शुरुआत की. यही उनकी विरासत हो सकती थी. लेकिन उन्होंने पार्टी के फायदे के लिए विपक्ष को रेवड़ी बांटने में मात देना शुरू कर दिया.
हमने बाढ़ वाले मैदानों पर निर्माण कर दिया है, हर जगह इमारतें बना दी हैं, और कचरा नालियों को बंद कर देता है. नतीजा? पानी के जाने के लिए कोई जगह नहीं बची, न घरों में, न सड़कों में, और न ही हमारी ज़िंदगियों में.
कश्मीर और पीओके के बीच का फर्क अनदेखा करना नामुमकिन है. एक तरफ लोग भोजन और बिजली के लिए प्रदर्शन कर रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ विकास और शिक्षा की बातें होती हैं.
भारत के फार्मास्यूटिकल सेक्टर का मूल्य 50 अरब डॉलर है. इसने अपनी पहचान किफायती और सुलभ दवाओं पर बनाई है, लेकिन छिंदवाड़ा में हुई मौतें एक अलग कहानी बताती हैं.
पाकिस्तान अफगानों की उग्र स्वतंत्र मानसिकता और पख्तून राष्ट्रवाद की दृढ़ता को समझने में नाकाम रहा. यह राष्ट्रवाद 1747 में अफगानिस्तान की स्थापना के साथ ही उसकी सियासत पर हावी रहा है.