ट्रंप जबकि गोली दागने की धमकी दे रहे हैं, अपनी पीठ खुद ठोकने में व्यस्त भारतीय सत्ता-तंत्र को सुर्खियां बनवाने के मोह से छुड़ाने के लिए ऐसी ही धमकी की जरूरत थी.
अलग उत्तराखंड राज्य की मांग के आंदोलन में भी चिपको आंदोलन के तरीकों का प्रयोग शुरू हो गया और शांतिपूर्ण प्रदर्शन, सत्याग्रह, जन जागृति, आदि रोज होने लगी.
विडंबना यह है कि लोगों के अपने स्थानीय पारिस्थितिकी के प्रति लगाव के प्रदर्शन का इस्तेमाल केंद्रीकृत निर्णयकर्ताओं द्वारा उन्हें इससे अलग करने के लिए किया गया.
आम धारणा यह है कि चिपको आंदोलन ‘पारिस्थितिकी की रक्षा के लिए महिलाओं का आंदोलन’ था, जो 26 मार्च 1974 को शुरू हुआ था, लेकिन यह धारणा कुछ हद तक ही सही है.
भारत विरोधी बगावत ने मैतेई समुदाय में हिंदू शासन के दौर से पहले की सांस्कृतिक परंपराओं और आस्थाओं को पुनर्जीवित करने पर ही ज़ोर दिया और कुकी और नगा समूहों की उपेक्षा की.
घोस्ट वोटर्स मतदाता सूची में कैसे घुस जाते हैं? यह वाकई डरावना है. यह भी डरावना है कि केवल पश्चिम बंगाल में ही घोस्ट वोटर्स को राजनीतिक हथियार में बदल दिया गया है.
शास्त्री की विरासत पर ताशकंत में हुए शांति समझौते, और उनके उस जानलेवा दौरे का साया अनुचित रूप से हावी हो जाता है, जबकि ‘हरित क्रांति’ और प्रतिभाशाली वैज्ञानिक डॉ. स्वामीनाथन की खोज उनकी यादगार विरासतों में शामिल हैं.
पाकिस्तानी राज्य तब तक जीत नहीं सकता और न ही जीतेगा, जब तक वह औपनिवेशिक आतंकवाद विरोधी सिद्धांतों को त्याग नहीं देता, जिसने उसके संस्थागत चिंतन को विषैले कीचड़ की तरह ढक दिया है.
समस्या फिल्म ‘छावा’ नहीं है. समस्या यह है कि राजनेताओं ने किस तरह से भावनाओं का फायदा उठाया. फिल्म में औरंगजेब की कब्र को तोड़ने की बात नहीं कही गई, बल्कि राजनेताओं ने ऐसा किया.
दुलत जब आईबी में थे, तब उन्होंने कश्मीर में काम किया था और फारूक अब्दुल्ला के साथ उनके करीबी संबंध थे. तब से दिल्ली ने गुप्त वार्ता के लिए उनका इस्तेमाल किया है.