भारत में रोगों के बोझ का ताल्लुक गरीबी से है लेकिन वह कारणों को हमेशा आर्थिक वृद्धि में ढूंढता रहा है, जो स्वास्थ्य के लिए उभरते नये जोखिमों पर ध्यान नहीं देता रहा है.
अगर सरकार निजीकरणके लिए पूरा ज़ोर लगाती है तथा यूनियनों, नौकरशाही या विपक्ष को अपनी योजनाओं को बेपटरी करने की अनुमति नहीं देती है, तोवास्तव में भारत के लिए यह एक परिवर्तनकारी बजट साबित होगा.
इस बजट के बाद मोदी सरकार को लालफ़ीताशाही खत्म करने, टैक्स के ढांचे और नियमन की व्यवस्था को सरल बनाने, और वित्तीय क्षेत्र में सुधार पर ध्यान देना चाहिए ताकि निवेश के लिए माहौल बने.
संस्थागत बदलाव जिनमें बड़ा ख़र्च नहीं है और जो सुधारोंके प्रति सरकार की प्रतिबद्धता को दर्शाते हैं, निर्मला सीतारमण के बजट में एक मज़बूत सकारात्मक संकेत हो सकते हैं.
अर्थशास्त्री विस्तारवादी बजट की तरफदारी कर रहे हैं, इसलिए संतुलित उपाय नहीं करने के लिए उसकी अधिक आलोचना नहीं होगी. इसमें मांग बढ़ाकर आर्थिक विकास तेज़ करने का लक्ष्य होना चाहिए.
कोरोना महामारी के बाद अर्थव्यवस्था में सुधार उम्मीद से ज्यादा तेजी से हो रहा है लेकिन अगले महीने बजट पेश करने से पहले निम्नलिखित पांच मुद्दों पर ध्यान देना जरूरी है.
वित्त वर्ष 2021 में भारत की जीडीपी में सिकुड़न जारी रहने के ही अनुमान हैं लेकिन प्रतिबंधों में छूट, सप्लाई चेन की रुकावटों को दूर करने के उपायों से मांग में वृद्धि के साथ अर्थव्यवस्था में उछाल आने की उम्मीद की जा रही है.
सरकार और रिजर्व बैंक की ओर से दिया गया रियायती ऋण पहले भी कोई टिकाऊ वित्तीय साधन नहीं साबित हुआ है, और वैसे भी भारत के बॉन्ड मार्केट अभी भी सुधारों का इंतजार कर रहा है.
मुद्रास्फीति दर का लक्ष्य फिलहाल 4 प्रतिशत का रखा गया है, जिसमें 2 प्रतिशत का इधर-उधर हो सकता है, वैसे इसकी समीक्षा मार्च 2021 में होनी ही है लेकिन इस लक्ष्य को 5 साल के लिए बढ़ाना कोई अच्छी बात नहीं होगी.
एक राष्ट्र, एक चुनाव के आलोचक मतदाताओं की थकान के बारे में नहीं सोच रहे हैं. जब चुनाव कई बार और लगातार होते हैं, तो शिक्षित मतदाता भी उन्हें एक अतिरिक्त छुट्टी के रूप में देखता है.
नयी दिल्ली, 18 दिसंबर (भाषा) बिहार के कांग्रेस, राष्ट्रीय जनता दल (राजद) और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) लिबरेशन के सांसदों ने बुधवार को...