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Thursday, 10 October, 2024
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महंगाई रोकने के लिए RBI को क्या करना चाहिए? अनुमानों पर गौर करें, नीतिगत रुख में सामंजस्य बनाएं

भू-राजनीतिक तनाव, आपूर्ति में आने वाली अड़चनों और कोविड-बाद मांग में वृद्धि के कारण मुद्रास्फीति का आकलन बाधित होने के आसार हैं. वहीं, आरबीआई की तरफ से स्पष्ट संकेत की कमी रुपये पर भी असर डाल सकती है.

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भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने फरवरी में अपनी पिछली मौद्रिक नीति में अगले वर्ष के लिए खुदरा मुद्रास्फीति 4.5 प्रतिशत रहने का अनुमान लगाया था. मौजूदा भू-राजनीतिक तनाव और इसके साथ आपूर्ति में आने वाली बाधाओं के कारण भारत ही नहीं दुनिया भर में मुद्रास्फीति के बारे में कोई सटीक आकलन करना मुश्किल होगा.

इसके साथ ही जैसे-जैसे अर्थव्यवस्था महामारी से उबरती जाएगी, और सरकारी नीति में नौकरियों और बुनियादी ढांचे में सार्वजनिक निवेश बढ़ाने पर जोर होगा, मांग भी बढ़ने की उम्मीद है. ऐसे में आरबीआई को मुद्रास्फीति अनुमानों पर फिर से विचार करना होगा और अपना नीतिगत रुख मुद्रास्फीति के बढ़े खतरों के मद्देनजर तय करना होगा.

कीमतों में उतार-चढ़ाव का एक प्रमुख कारण तो आपूर्ति बाधित होने संबंधी मुद्दे हैं, और दूसरी ओर कोविड के बाद मांग भी बढ़ी है. आज केंद्रीय बैंकों के सामने सबसे बड़ा सवाव यही है कि बढ़ती मुद्रास्फीति से कैसे निपटें. इसका एक तरीका तो यही होगा कि आपूर्ति संबंधी मुद्दे हल होने का इंतजार करें और फिर मौद्रिक नीति पर अपना रुख तय करें. हालांकि, यह जोखिम भरा है क्योंकि इस इंतजार के दौरान मुद्रास्फीति उम्मीद से ज्यादा बढ़ सकती है. तब मुद्रास्फीति पर इसका असर स्थायी और दीर्घकालिक होगा. कोविड बाद किसी भी स्थिति में मौद्रिक नीति सामान्य होने की उम्मीद थी, और इसका मतलब होता कि इस वर्ष दरें बढ़ाना. बहरहाल, आरबीआई को अब इसका स्पष्ट संकेत देना होगा कि वह मुद्रास्फीति में मौजूदा उछाल पर कैसे काबू पाना चाहता है.

एक स्पष्ट संकेत का अभाव न केवल घरेलू मुद्रास्फीति संबंधी उम्मीदों पर भारी पड़ेगा, बल्कि रुपये पर भी प्रतिकूल असर डालेगा. यदि भारत में मुद्रास्फीति उच्च स्तर पर बनी रही और ब्याज दरों को कम रखा गया तो रुपये के कमजोर होने की आशंकाएं और प्रबल हो सकती हैं. बढ़े तेल आयात बिल के साथ, रुपये के अवमूल्यन की आशंका देश से बाहर पूंजी प्रवाह बढ़ाने वाली साबित हो सकती है. हालांकि, अस्थिरता पर नियंत्रण के लिए अल्पकालिक हस्तक्षेप के तौर पर आरबीआई अपने विदेशी मुद्रा भंडार का उपयोग कर सकता है, लेकिन उच्च मुद्रास्फीति, कम ब्याज दरें और विदेशी मुद्रा भंडार का सीमित इस्तेमाल रुपये की स्थिरता के लिए कोई स्थायी रास्ता नहीं है.


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उच्च खुदरा मुद्रास्फीति

उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) पर आधारित खुदरा मुद्रास्फीति फरवरी में बढ़कर 6.07 प्रतिशत पर पहुंच गई, जिसने लगातार दूसरे महीने अपर टॉलरेंस बैंड को तोड़ दिया. खुदरा मुद्रास्फीति में यह वृद्धि काफी व्यापक थी, जो अनाज, अंडे, मांस, दुग्ध उत्पादों और सब्जियों के साथ-साथ पान, तंबाकू, कपड़े और ईंधन सहित तमाम खाद्य उत्पादों की कीमतें बढ़ने की वजह से इस स्तर पर पहुंची थी. थोक मूल्य आधारित मुद्रास्फीति भी फरवरी में बढ़कर 13.11 प्रतिशत पर पहुंच गई, जो लगातार 11वें महीने दोहरे अंक में बनी हुई है. एक स्थिर और उच्च थोक मूल्य सूचकांक (डब्ल्यूपीआई) मुद्रास्फीति को उपभोक्ता पर आगे पड़ने वाले असर के संकेत के तौर पर देखा जा सकता है क्योंकि उत्पादक उच्च लागत का भार अंतत: उपभोक्ताओं पर ही डालना शुरू करेंगे.

वैश्विक मुद्रास्फीति का संकट बढ़ा

यूक्रेन पर रूसी हमले और फिर लगाई गई पाबंदियां के बाद से वैश्विक स्तर पर कच्चे तेल और कमोडिटी की कीमतों में काफी उछाल दर्ज किया गया है. हालांकि, तेल की कीमतें 100 डॉलर प्रति बैरल से नीचे आ गई हैं क्योंकि बातचीत के जरिये वैश्विक तनाव घटने की उम्मीदें जगी हैं, लेकिन पाबंदियां जल्द हटने के कोई संभावना न होने के बीच इनमें तेजी का रुख बरकरार रहने के ही आसार हैं.

खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) के खाद्य मूल्य सूचकांक (एफएफपी) के तहत मापी गई वैश्विक खाद्य कीमतों में फरवरी में 20.7 फीसदी की रिकॉर्ड वृद्धि दर्ज की गई है. सूचकांक हर माह उन खाद्य वस्तुओं की अंतरराष्ट्रीय कीमतों में आने वाले बदलावों को ट्रैक करता है, जिनका आम तौर पर कारोबार होता है. एफएफपी में तेजी मुख्य रूप से वनस्पति तेल की कीमतों में उछाल की वजह से आई थी. वैसे तो इनमें तेजी की वजह वैश्विक आयात मांग लगातार ज्यादा होना है, लेकिन काला सागर क्षेत्र में आ रही अड़चनों के कारण सूरजमुखी के तेल के कम निर्यात को लेकर ताजा चिंताओं ने भी कीमतों में तेजी और बढ़ा दी है. अगर जंग जारी रहती है तो सूरजमुखी के तेल, पाम ऑयल और सोयाबीन तेल की कीमतों में और तेजी आ सकती है.

मौजूदा भू-राजनीतिक संघर्ष से आपूर्ति प्रभावित होने के कारण धातु की कीमतों में भारी उछाल आया है. एक अभूतपूर्व घटनाक्रम में लंदन मेटल एक्सचेंज को निकिल कारोबार निलंबित करना पड़ा है क्योंकि पश्चिमी प्रतिबंधों के कारण रूस से आपूर्ति बाधित होने की चिंताओं ने इसकी कीमतें दोगुने स्तर पर पहुंचा दी हैं. मौजूदा भू-राजनीतिक संकट के कारण एल्यूमीनियम, तांबा, जस्ता और सीसे की कीमतों में भी तेजी का रुख दिखा है.


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घरेलू मुद्रास्फीति के लिए आउटलुक

भारत में आयातित सूरजमुखी के तेल में से नब्बे फीसदी अकेले रूस और यूक्रेन से आता है. इन देशों के बीच जारी युद्ध ने सूरजमुखी के तेल की आपूर्ति ठप कर दी है, और पाम ऑयल और सोयाबीन ऑयल जैसे अन्य तेलों की मांग बढ़ा दी है. वनस्पति तेलों की ऊंची कीमतों से घरेलू खाद्य मुद्रास्फीति में तेजी के आसार हैं. सामान्य मानसून के बावजूद उर्वरकों की कीमत में वृद्धि भी खाद्य मुद्रास्फीति पर प्रतिकूल असर डाल सकती है.

कंज्यूमर ड्यूरेबल्स और उपकरणों में कच्चे माल के तौर पर इस्तेमाल होने वाली धातुओं की कीमतों में बढ़ोतरी के साथ कई निर्माताओं ने पहले ही कीमतें बढ़ा दी हैं और कई अन्य ने आने वाले हफ्तों में कीमतें बढ़ाना शुरू करने के संकेत दिए हैं. बढ़ी इनपुट लागत का असर आने वाले महीनों में मुख्य मुद्रास्फीति के तौर पर सामने होगा.

ईंधन कंपनियों ने अब तक कीमतों में वृद्धि का बोझ उपभोक्ताओं पर नहीं डाला है. पिछले साल 3 नवंबर को सरकार की तरफ से उत्पाद शुल्क में कटौती के बाद घरेलू ऑयल पंप की कीमतों में संशोधन नहीं किया गया है. उस समय कच्चे तेल की कीमत 85 अमेरिकी डॉलर प्रति बैरल के आसपास थी. यद्यपि वैश्विक स्तर पर कच्चे तेल की कीमत 139 अमेरिकी डॉलर प्रति बैरल के उच्च स्तर से नीचे आ गई है, लेकिन ये अभी भी 100 अमेरिकी डॉलर प्रति बैरल के करीब है.

कच्चे तेल की ऊंची कीमतों का असर पड़े बिना भी खुदरा मुद्रास्फीति 6 फीसदी की ऊपरी सीमा को पार कर गई है. बहुत संभव है कि सरकार कीमतों में वृद्धि के एक हिस्से का भार खुद वहन कर ले लेकिन कीमतों में पूरी वृद्धि को झेलना संभव नहीं लगता है क्योंकि इसका सरकार की वित्तीय स्थिति पर सीधा असर पड़ेगा. अगर वृद्धि का कुछ बोझ उपभोक्ताओं पर डाला जाता है तो इसका नतीजा निश्चित तौर पर मुद्रास्फीति बढ़ने के तौर पर सामने आएगा. आरबीआई का अनुमान बताता है कि अगर कच्चे तेल की कीमतें बेसलाइन (अनुमानित 75 डॉलर प्रति बैरल) से 10 फीसदी ऊपर जाती हैं, तो घरेलू मुद्रास्फीति 30 बेस प्वाइंट से अधिक हो सकती है. फिलहाल तेल की कीमतें बेसलाइन से 35-40 फीसदी ऊपर चल रही हैं. जाहिर है कि मुद्रास्फीति की एक बड़ी मार झेलनी होगी.

मौद्रिक नीति के लिए निहितार्थ

आरबीआई दरों को नीचे रखने और उदार रुख बनाए रहने के साथ आर्थिक विकास का समर्थन करता रहा है. पिछली मौद्रिक नीति में आरबीआई ने दरों पर यथास्थिति बनाए रखी और विकास को बढ़ावा देने के लिए उदार रुख अपनाने की ही राह चुनी, तब भी जब मुद्रास्फीति 6 फीसदी की सहनशीलता सीमा से ऊपर पहुंच गई थी. आरबीआई को ऐसे समय मुद्रास्फीति पर काबू पाने की उम्मीदों में पीछे पाया गया जबकि अन्य देशों के केंद्रीय बैंकों ने मुद्रास्फीति का स्तर बढ़ने के बीच मौद्रिक नीति के सामान्यीकरण की दिशा में तेजी से कदम बढ़ा दिए थे.

अमेरिकी फेडरल रिजर्व ने अपनी ताजा नीति में बढ़ती मुद्रास्फीति पर काबू पाने के उद्देश्य से ब्याज दर में एक चौथाई फीसदी की वृद्धि की है. ब्याज दर बढ़ाने का यह कदम फरवरी में यूएस सीपीआई के चार दशक के उच्च स्तर 7.9 प्रतिशत पर पहुंचने के बाद उठाया गया है. इसके साथ ही फेडरल रिजर्व ने साल के अंत तक ब्याज दरों में और वृद्धि के संकेत भी दिए हैं.

आरबीआई को अपने अनुमानों और संचालन के बीच सामंजस्य स्थापित करना होगा और अपनी मौद्रिक नीति को सामान्य बनाने की दिशा में एक स्पष्ट रास्ता निर्धारित करना होगा. सरकारी उधारी के अनुरूप सामान्य मौद्रिक नीति को औपचारिक रूप देने में देरी मुद्रास्फीति का जोखिम और बढ़ा सकती है और इससे मुद्रास्फीति लक्षित शासन की विश्वसनीयता भी प्रभावित हो सकती है.

(इला पटनायक एक अर्थशास्त्री और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी में प्रोफेसर हैं. राधिका पांडे एनआईपीएफपी में कंसल्टेंट हैं.व्यक्त विचार निजी हैं.)

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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