scorecardresearch
Thursday, 3 October, 2024
होमदेशस्टफ्ड ट्वॉयस से लेकर बंद कमरों तक—यौन शोषण के मामलों में कैसे ‘बढ़ रहा’ पोक्सो प्रोटोकॉल का उल्लंघन

स्टफ्ड ट्वॉयस से लेकर बंद कमरों तक—यौन शोषण के मामलों में कैसे ‘बढ़ रहा’ पोक्सो प्रोटोकॉल का उल्लंघन

पीड़ित बच्चों के हितों के मद्देनजर पोक्सो में ‘बाल-सुलभ’ अदालतों और ‘मददगार व्यक्तियों’ की मौजूदगी का प्रावधान किया गया है, लेकिन इस पर पूरी तरह अमल नहीं हो रहा है.

Text Size:

नई दिल्ली: एक स्टफ्ड मंकी, चमकदार नीले रंग का डोरेमोन, छोटा भीम जैसे ट्वॉयस और कैरम बोर्ड उन तमाम चीज़ों में शुमार हैं, जो दिल्ली की एक अदालत के वेटिंग रूम में चारों तरफ बिखरी नज़र आ रही हैं.

वेटिंग रूम के ठीक बगल में एक और कमरा है, जहां सोफा रखा है और एक स्क्रीन भी लगी है. यौन शोषण के शिकार बच्चे इस कमरे में अपराधी और वकीलों से दूर एक भयमुक्त माहौल में अपने बयान दर्ज करा सकते हैं.

इस तरह का माहौल बनाने का उद्देश्य कानूनी प्रक्रिया से गुज़र रहे बच्चों को किसी तरह के मानसिक आघात बचाना है, लेकिन यह ज़रूरी नहीं है कि सब जगह वातावरण ऐसा ही मिले.

उदाहरण के तौर पर दिप्रिंट ने जब दिल्ली बॉर्डर से सटे उत्तर प्रदेश के इलाकों में यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण कानून के तहत बनी पोक्सो अदालतों का दौरा किया, तो वहां कोई बोर्ड गेम या सॉफ्ट ट्वॉय नज़र नहीं आया. बयान देने का समय आने पर पीड़ित बच्चों को बंद कमरे या स्क्रीन के पीछे सुरक्षित रखने जैसी सुविधा भी नहीं मिलती है.

पोक्सो अधिनियम के साथ-साथ सुप्रीम कोर्ट के फैसलों ने भी पीड़ितों की जांच और उनके बयान दर्ज करने के संबंध में कई दिशा-निर्देशों बनाए हैं ताकि इस पूरी प्रक्रिया के दौरान उन्हें किसी तरह की परेशानी न हो.

बच्चों के मामले में जिन उपायों की अनुशंसा की गई है, उनमें अदालतों में ‘बच्चे के लिए अनुकूल माहौल’ बनाना, बच्चों को ‘आक्रामक पूछताछ’ से बचाना, सबूत दर्ज करते समय बच्चे और आरोपी के बीच कोई संपर्क न होना सुनिश्चित करने के साथ-साथ बंद कमरे में सुनवाई का प्रावधान भी शामिल है. हालांकि, विशेषज्ञों का कहना है कि इन प्रोटोकॉल का हमेशा पूरी तरह पालन नहीं होता है.

बाल यौन शोषण पीड़ितों को कानूनी और मनोवैज्ञानिक सहायता प्रदान करने वाले गैर-लाभकारी संगठन काउंसल टू सिक्योर जस्टिस (सीएसजे) की कार्यकारी निदेशक निमिषा श्रीवास्तव कहती हैं, ‘‘पीड़ित बच्चों के सहयोग करने और न्यायिक प्रक्रिया के दौरान उन्हें केंद्र में रखने के मामले में केवल दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरु जैसे महानगरीय शहरों में ही उपयुक्त कदम उठाए गए हैं.’’

श्रीवास्तव और अन्य विशेषज्ञ इस बात से सहमत हैं कि अपराधियों को दंडित करने के लिए आपराधिक कानूनों में समय-समय पर कड़े प्रावधान किए जाते हैं, लेकिन पीड़ितों के कल्याण की दिशा में उठाए गए कदमों को लागू करने की गति धीमी है.

विशेषज्ञों का कहना है कि यौन हिंसा के पीड़ितों के सहयोग के मामले में बुनियादी ढांचे का अभाव तो उन पर प्रतिकूल असर डालता ही है, वहीं कौटुंबिक व्यभिचार या पारिवारिक यौन शोषण और बलात्कार के शिकार बच्चों के लिए चुनौतियां और भी ज्यादा बढ़ जाती हैं.

अपनी दो-पार्ट की सीरीज की पहली रिपोर्ट में दिप्रिंट ने उन व्यापक दबावों की पड़ताल की, जो बच्चे उस समय झेलते हैं जब वे पोक्सो के तहत अपने परिवार के किसी सदस्य के खिलाफ यौन उत्पीड़न की रिपोर्ट दर्ज कराते हैं.

ऐसे कई बच्चों को उनके अपने रिश्तेदार ही अस्वीकार कर देते हैं, जिसकी वजह सामाजिक कलंक की आशंका के साथ-साथ कई बार ये भी होती है कि आरोपी परिवार का कमाऊ सदस्य होता है और आरोप लगने से आर्थिक संकट की स्थिति खड़ी हो सकती है.

विशेषज्ञों का कहना है कि इस परिदृश्य में यदि कानूनी प्रणाली पीड़ित बच्चों को पर्याप्त संरक्षण देने के लिए तैयार न हो तो न केवल मानसिक आघात बढ़ने का खतरा रहता है बल्कि यह मामले में ताबूत की आखिरी कील साबित हो सकती है.

जैसा कि पहले ही बताया जा चुका है, कई मामलों में कानूनी कार्यवाही इसलिए पूरी नहीं हो पाई क्योंकि नाबालिग पीड़ित आरोपों से मुकर गए.

पूर्व में कई मामलों में बाल यौन शोषण पीड़ितों की तरफ से प्रतिनिधित्व कर चुकी जिंदल ग्लोबल लॉ स्कूल में सहायक प्रोफेसर अवंतिका चावला ने कहा, ‘‘ऐसे मामले काफी संवेदनशील होते हैं और इसमें सब कुछ हाथ से बाहर निकल जाने से रोकने के लिए कानून प्रणाली को काफी पहले से ही संघर्ष करना पड़ रहा है और इसकी वजह यह भी है कि तमाम नियमित प्रक्रियाओं पर पूरी तरह अमल नहीं होता.’’


यह भी पढ़ेंः वेश्यालयों के रूप में उपयोग की जाने वाली संपत्तियों के मकान मालिकों को हर्जाना देना होगा- SC


कड़े दंड के प्रावधान लेकिन सज़ा कम ही मामलों में

यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण (पोक्सो) अधिनियम, 2012 देश में बच्चों के यौन शोषण के मामलों से निपटने के लिए पहला व्यापक कानून है. यह एक कड़ा कानून भी है, जिसमें 2019 में संशोधन के बाद कड़े न्यूनतम दंड के अलावा मृत्युदंड का प्रावधान भी किया गया है.

हालांकि, 2012 और 2021 के बीच पोक्सो के केवल 14 प्रतिशत मामलों में ही सजा हुई है. यह बात विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी की पहल जस्टिस, एक्सेस एंड लोअरिंग डिलेज इन इंडिया (जेएएलडीआई) की तरफ से 486 जिला अदालतों में किए शोध से सामाने आई है. इस स्टडी में 2.30 लाख से अधिक मामलों का विश्लेषण किया गया है.

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के नवीनतम उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक, पोक्सो के 97 फीसदी मामलों में अपराधी पीड़ितों के परिचित रहे हैं. इस कानून के तहत दर्ज कुल मामलों में से 9 प्रतिशत में अपराधी परिवार के सदस्य हैं.

पोक्सो के तहत, बच्चे के रिश्तेदारों—रक्त संबंध वाले, गोद लिए गए या गार्जियन के नाते—या उसी घर में रहने वाले लोगों (जैसे सौतेले माता-पिता) की तरफ से किए यौन हमलों को ‘गंभीर’ अपराध माना जाता है और इसमें कड़ी सजा का प्रावधान है.

गंभीर यौन हमले (पेनेट्रेटिव) के लिए न्यूनतम सजा 20 वर्ष है और यह आजीवन कारावास या मृत्युदंड तक हो सकती है. गंभीर यौन हमले के लिए किसी दोषी को पांच से सात साल कारावास का सामना करना पड़ सकता है.

यौन शोषण के मामलों पर दिप्रिंट की पिछली रिपोर्ट में इस बात पर जोर डाला गया था कि गंभीर दंड कैसे मामलों की रिपोर्टिंग और केस की सुनवाई के दौरान भी बाधा बन सकता है क्योंकि कई पीड़ित परिवार के दबाव और वित्तीय स्थिति को लेकर आशंकाओं के कारण आरोपों से मुकर जाते हैं.

लेकिन यह यौनाचार के मामलों में कार्यवाही को प्रभावित करने वाला एकमात्र मुद्दा नहीं है.

विशेषज्ञों ने दिप्रिंट को बताया कि बाल पीड़ितों के लिए सहायता सेवाओं पर समान ढंग से अमल न होना—खासकर उन पीड़ितों के मामले में जो सुरक्षित पारिवारिक माहौल में नहीं होते हैं—न केवल पीड़ितों पर दबाव बढ़ाता है बल्कि न्यायिक प्रक्रिया पर भी इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है.


यह भी पढ़ेंः बलात्कार और POCSO मामलों में फास्ट-ट्रैक कोर्ट कारगर, योजना को 3 साल तक बढ़ा सकती है सरकार


‘मेरा ज़िंदगी सामान्य बच्चों जैसी नहीं थी’

18-वर्षीय राधिका (बदला नाम) जब महज 10 साल की थी, तो उसने अपने ‘नाना’ पर छेड़छाड़ करने और तीन दिनों तक उसका शौषण करने की कोशिश करने का आरोप लगाया था.

उसके बाद भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा-376 (बलात्कार) और 506 (आपराधिक धमकी) के साथ पोक्सो अधिनियम की धारा-4 के तहत मामला दर्ज किया गया, लेकिन इसकी आंच में राधिका का जीवन भी झुलस गया.

अदालत के रिकॉर्ड बताते हैं कि उसने और उसकी मां ने दावा किया कि उन्हें राधिका के सौतेले पिता ने अपने घर से बाहर निकाल दिया क्योंकि उन्होंने मामला दायर किया था. 2018 में जब राधिका की मां की मृत्यु हो गई, तो इस युवा लड़की के पास अपने नाना के घर के अलावा कहीं और जाने की कोई जगह नहीं बची थी.

दिप्रिंट की तरफ से एक्सेस किए गए कानूनी रिकॉर्ड से पता चलता है कि इसी अवधि के दौरान राधिका अपने आरोप से पलट गई और दावा किया कि उसने अपने नाना के खिलाफ झूठा मामला दायर किया था, लेकिन दिल्ली में एक सतर्क पोक्सो कोर्ट ने सिफारिश की कि उसे एक आश्रय गृह ले जाया जाए जहां उसकी काउंसलिंग हो सके और ‘‘वे बिना किसी जोर-जबरदस्ती और किसी धमकी के प्रभाव में आए बिना गवाही दे सके.’’

राधिका अब फिर से अभियोजन पक्ष के साथ सहयोग कर रही है.

काउंसलिंग से पहले आपराधिक न्याय प्रणाली के साथ अपने अनुभव को याद करते हुए राधिका ने दिप्रिंट को बताया, ‘‘मैं बेहद तनाव में थी और हमेशा अदालत के बारे में सोचती रहती थी. मैं अपनी पढ़ाई पर भी ध्यान नहीं दे पा रही थी. मैं जानती थी कि मेरी ज़िंदगी सामान्य बच्चों की तरह नहीं है और यही बात हर समय मेरे दिमाग में घूमती रहती थी.’’

अपने परिवार से दूर रहने, परामर्श लेने और अन्य बच्चों के साथ समय बिताने से उसे फिर से कानूनी कार्यवाही का सामना करने की ताकत मिली.

उसने बताया, ‘‘जब मुझे एनजीओ में भेजा गया, तो मैं वहां बहुत शांत रहा करती थी. हालांकि, वहां कई और बच्चे भी थे. मुझे उनके साथ रहकर थोड़ा बेहतर महसूस होने लगा था.’’

राधिका ने कहा, ‘‘मेरी वहां कई बार काउंसलिंग हुई. दीदी ने मुझे बहुत कुछ सिखाया और धीरे-धीरे मैं भी बोलने लगी. एक बार खुलकर बातें करने लगी तो मुझे भी थोड़ी राहत महसूस हुई. धीरे-धीरे चीजें बेहतर होने लगीं.’’

यौन शोषण और अनाचार से जुड़े मामलों के संबंध में खासकर दिल्ली हाई कोर्ट ने 2009 के एक फैसले में पुलिस, अस्पतालों, बाल कल्याण समितियों (सीडब्ल्यूसी), अदालतों, अभियोजकों और अन्य अधिकारियों के लिए दिशा-निर्देश जारी किए थे.

इसके तहत ‘सपोर्ट पर्सन’ की भूमिका को रेखांकित किया गया, जिसे सीडब्ल्यूसी की तरफ से मुकदमा लंबित रहने के दौरान बच्चे की देखभाल की जिम्मेदारी संभालने के लिए नियुक्त किया जाता है. दिशा-निर्देशों के तहत यह कोई ऐसा व्यक्ति होना चाहिए जो दिल्ली महिला आयोग (डीसीडब्ल्यू) की तरफ से अनुशंसित एक मान्यता प्राप्त और पंजीकृत क्राइसिस इंटरवेंशन सेंटर के साथ ‘परामर्शदाता की क्षमता’ से काम कर रहा हो.

इसमें विशेष तौर पर कहा गया था कि अनाचार मामले में पीड़ित बच्चा यदि आश्रय गृह में रह रहा है तो परिवारिक सदस्यों को केवल ‘सहायक व्यक्ति’ की उपस्थिति में उससे मिलने की अनुमति दी जानी चाहिए ताकि किसी भी तरह का दबाव बनाने या पीड़ित को बयान बदलने पर राजी करने प्रभावित करने का कोई प्रयास न किया जा सके.

राधिका की कहानी बाल शोषण के मामलों में मजबूती से समर्थन के बुनियादी ढांचे और प्रक्रियाओं के महत्व को दर्शाती है. हालांकि, कानूनी तौर पर और फैसलों के जरिये ऐसी प्रक्रियाओं को अनिवार्य बनाया गया है, लेकिन कानूनी विशेषज्ञों के मुताबिक, यह सब हर जगह पर समान रूप से लागू नहीं किया जाता है.


यह भी पढ़ेंः क्या अदालतें अधिक मृत्युदंड देने लगी हैं? 2022 में 539 को फांसी की सजा मिली, 17 सालों में सबसे अधिक


दो पोक्सो अदालतों की अलग-अलग तस्वीर

2017 में सुप्रीम कोर्ट ने आपराधिक मामलों में ‘कमज़ोर गवाहों के बयान के लिए विशेष केंद्र’ स्थापित करने के निर्देश जारी किए. पिछले जनवरी में अदालत ने किसी भी उम्र और लिंग के यौन उत्पीड़न पीड़ितों को शामिल करने के लिए ‘कमजोर गवाह’ की परिभाषा का विस्तार किया.

हाईकोर्ट को भी दो महीने के भीतर एक कमजोर गवाह बयान केंद्र (वीडब्ल्यूडीसी) योजना अपनाने और अधिसूचित करने का निर्देश दिया गया था. आदेश में कहा गया, ‘‘हाईकोर्ट यह सुनिश्चित करेंगे कि चार महीने की अवधि के भीतर प्रत्येक जिला अदालत प्रतिष्ठान (या अतिरिक्त अदालती प्रतिष्ठानों) में कम से कम एक स्थायी वीडब्ल्यूडीसी स्थापित किया जाए.’’

ये विशेष अदालतें ऐसे गवाहों को अपने बयान देने के लिए एक सुरक्षित और सहायक वातावरण मुहैया कराने के उद्देश्य से बनाई गई हैं, लेकिन अभी भी कई जिलों में ऐसा कुछ नज़र नहीं आता है.

दिप्रिंट ने पिछले सप्ताह दिल्ली की पोक्सो अदालत का दौरा किया था, जिसमें खिलौनों से भरे वेटिंग रूम से लेकर उससे सटे आरामदेह गवाह बयान केंद्र तक ‘बच्चों के अनुकूल’ माहौल बनाने के लिए प्रयास स्पष्ट नज़र आए.

वीडब्ल्यूडीसी वह जगह है जहां बच्चे को उसके बयान के लिए लाया जाता है, उसके साथ एक सहायक व्यक्ति होता है, जिसे जांच और गवाही की प्रक्रिया के दौरान बच्चे की सहायता के लिए नियुक्त किया जाता है.

एक तीसरे कमरे में, न्यायाधीश अन्य प्रमुख हितधारकों जैसे सरकारी वकील, दिल्ली महिला आयोग के एक वकील और जांच अधिकारी के साथ अदालती कार्यवाही चला रहे हैं. आरोपी इसी कमरे में शीशे की दीवार के पीछे बैठा है.

सुनवाई के दौरान, सहायक व्यक्ति हेडफोन का उपयोग करके सुनता है और बच्चे से केवल कुछ प्रासंगिक प्रश्न ही करता है, जैसा कि न्यायाधीश की तरफ से अनुमति दी गई थी.

पोक्सो अदालती कार्यवाही के बारे में गहरी जानकारी रखने वाले कानूनी विशेषज्ञों का कहना है कि पोक्सो अधिनियम की धारा-33 (6) कानून के तहत नियुक्त विशेष न्यायाधीश को आक्रामक पूछताछ और बच्चे का ‘चरित्र हनन’ अस्वीकार करने का अधिकार देती है, जबकि बचाव पक्ष के वकील कई बार इस पर ध्यान नहीं देते हैं.

ऊपर उल्लिखित दिल्ली स्थित वीडब्ल्यूडीसी का मजबूत बुनियादी ढांचा नाबालिगों को इस तरह की पूछताछ से बचाता है, क्योंकि बच्चे से सवाल किए जाने से पहले न्यायाधीश के स्तर पर ही अनुपयुक्त प्रश्नों को नामंजूर कर दिया जाता है. सपोर्ट पर्सन भी ये सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं कि सुनवाई के दौरान बच्चे से आड़े-टेढ़े या अनुपयुक्त सवाल न किए जाएं.

हालांकि, कुछ अन्य न्यायालयों में इस तरह के दृश्य कम ही दिखाई पड़ते हैं.

दिप्रिंट ने जब उत्तर प्रदेश में एक पोक्सो कोर्ट का दौरा किया, तो पाया कि परिसर में खेलने की कोई भी चीज, या सुरक्षात्मक स्क्रीन जैसा कुछ भी उपलब्ध नहीं है.

इसके बजाय कोर्ट रूम काले कोट पहने पुरुष वकीलों से भरा था, जो अपने मुवक्किलों की तरफ से बहस करने के लिए अपनी बारी का इंतज़ार कर रहे थे.

इसी अदालत के एक न्यायाधीश ने दिप्रिंट को बताया कि राज्य में पोक्सो मामलों में कमजोर पीड़ितों के लिए कोई विशिष्ट बुनियादी ढांचा नहीं है. हालांकि, उन्होंने यह भी कहा कि वे अपनी पहल पर अक्सर बच्चों के बयानों को अदालत कक्ष के बजाये अपने कक्षों में दर्ज करते हैं.

न्यायाधीश ने कहा कि इस तरह की सुनवाई में दोनों पक्षों के वकील मौजूद होते हैं, लेकिन वह यह सुनिश्चित करते हैं कि वह खुद ही एकमात्र व्यक्ति हों जो बच्चे से सवाल पूछें.

फिर भी, दिल्ली की अदालतों की तरह दीवारों और स्क्रीन फिल्टर के बिना—बच्चा वकीलों की बातचीत और उनके लगाए आरोपों को सुन सकता है.

न्यायाधीश ने यह भी दावा किया कि बचाव पक्ष के वकील बच्चे के यौन इतिहास या बलात्कार को लेकर उनकी समझ के बारे में सवाल पूछने की कोशिश करते रहते हैं, जबकि कानून में इस तरह की पूछताछ की अनुमति नहीं होती है.


यह भी पढ़ेंः पीड़ित या अपराधी? महिला के अपने दुराचारी को मार डालने के मामले में कैसे उलझ जाते हैं कानूनी दांवपेच


‘पुन: उत्पीड़न’ का खतरा

जब पोक्सो के तहत कोई शिकायत दर्ज कराई जाती है, तो कानून के तहत पुलिस सहित कई हितधारकों को कार्रवाई करने की ज़रूरत होती है.

पोक्सो अधिनियम 2020 के मुताबिक, जिन मामलों में पुलिस को इस बात की पूरी आशंका हो कि पीड़ित के साथ उस घर में ही रहने वाले किसी व्यक्ति ने कोई अपराध किया है, या फिर उसके आगे चलकर अपराध करने की आशंका है, तो ऐसी सूचना प्राप्त होने के 24 घंटे के भीतर ही वे उक्त बच्चे को सीडब्ल्यूसी के सामने पेश करेंगे.

किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) नियम 2015 के तहत हर जिले में सीडब्ल्यूसी स्थापित की गई हैं. सीडब्ल्यूसी को यौन शोषण के शिकार उन बच्चों के पुनर्वास का काम सौंपा गया है, जिन्हें देखभाल और सुरक्षा की ज़रूरत है.

परिवार में व्यभिचार के मामलों में, सीडब्ल्यूसी को तीन दिन के भीतर इस बात का आकलन करने की आवश्यकता होती है कि क्या बच्चे को उसके परिवार या साझा घर से अलग किसी बाल गृह या आश्रय गृह में रखने की ज़रूरत है.

पोक्सो अधिनियम के मुताबिक, सीडब्ल्यूसी जांच और सुनवाई की प्रक्रिया के दौरान बच्चे की सहायता के लिए एक ‘सपोर्ट पर्सन’ भी उपलब्ध करा सकती है.

पोक्सो अधिनियम में बाल अधिकारों या बाल संरक्षण के क्षेत्र में काम करने वाले किसी व्यक्ति या संगठन को ‘सपोर्ट पर्सन’ के रूप में परिभाषित किया गया है. ‘‘बच्चों की अभिरक्षा वाले बाल गृह या आश्रय गृह का कोई अधिकारी, या डीसीपीयू (जिला बाल संरक्षण इकाई) द्वारा नियोजित व्यक्ति’ भी ‘सपोर्ट पर्सन’ की भूमिका निभा सकता है.’’

जब तक सुनवाई पूरी नहीं होती, तब तक सीडब्ल्यूसी ‘सपोर्ट पर्सन’ से बच्चे की सेहत, देखभाल, आघात से उबरने की दिशा में प्रगति और पारिवारिक स्थिति आदि के बारे में मासिक रिपोर्ट उपलब्ध कराने को कह सकती है. यह सुनिश्चित करना भी सीडब्ल्यूसी के जिम्मे है कि पीड़ित बच्चे की पढ़ाई-लिखाई जारी रहे या फिर से शुरू कराई जाए.

दिल्ली के लाजपत नगर स्थित बाल कल्याण समिति की अध्यक्ष वैदेही सुब्रमणि ‘सपोर्ट पर्सन’ को पोक्सो से जुड़े मामलों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाला व्यक्ति करार देती हैं. वे कहती हैं, ‘‘सपोर्ट पर्सन मार्गदर्शक, बदलाव एजेंट, समन्वयक, मध्यस्थ, परामर्शदाता, संरक्षक, रिसोर्स पर्सन, बाल अधिकारों के पैरोकार आदि की भूमिका निभाते हैं. वे स्कूल बदलने, उपयुक्त व्यावसायिक पाठ्यक्रमों की पहचान करने और अंतिम मुआवजे के लिए दिल्ली राज्य कानूनी सेवा प्राधिकरण (डीएलएसए) के साथ समन्वय करने में भी बच्चे की मदद करते हैं.’’

सुब्रमणि कहती हैं, सपोर्ट पर्सन गवाही से लेकर सुनवाई के अंतिम चरण तक बच्चे की देखभाल करते हैं.

हालांकि, मामले में ‘सपोर्ट पर्सन’ की एंट्री शिकायत दर्ज कराए जाने, मेडिकल जांच कराए जाने और दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा-164 के तहत पीड़ित के बयान दर्ज किए जाने के बाद ही होती है.

पीड़ितों की सहायता के लिए सीएसजे की प्रमुख सामाजिक कार्यकर्ता शिवांगी गोयनका के मुताबिक, पुलिस में शिकायत दर्ज कराने के शुरुआती चरणों, मेडिकल जांच और आगे की प्रक्रिया के दौरान इस तरह की मदद की कमी से बच्चे के ‘पुन:उत्पीड़न’ का शिकार होने की आशंका बढ़ जाती है.

गोयनका कहती हैं, ‘‘पूरी प्रक्रिया में हितधारक कभी-कभी बच्चे के साथ बातचीत से पहले उसे पहुंचे आघात के बारे में जानकारी जुटाने की अहमियत को नज़र अंदाज कर देते हैं. पुलिस द्वारा खुले तौर पर इस तरह की टिप्पणियां करने के कई उदाहरण हैं कि बच्चा अपने ही परिजनों की जिंदगी मुश्किल बना रहा है, या फिर वह अपने साथ हुए दुर्व्यवहार के बारे में पूरी तरह से झूठ बोल रहा है.’’

उन्होंने कहा, ‘‘जब तक ‘सपोर्ट पर्सन’ उपलब्ध कराया जाता है, तब तक बच्चा पुलिस में शिकायत, मेडिकल जांच और धारा-164 के तहत बयान दर्ज कराने की प्रक्रिया से गुज़र चुका होता है. उस अवधि के अनुभव, जैसा बच्चों और उनके परिजनों ने बताया है, ‘पुन:उत्पीड़न’ साबित होते हैं.’


यह भी पढ़ेंः ‘नो मीन्स नो’, सेक्सिज्म ‘कूल’ नहीं, बच्चों को विपरीत लिंग का सम्मान करना सिखाएं- केरल हाईकोर्ट


हितधारकों के बीच ‘सेतु’: सपोर्ट पर्सन

सुब्रमणि का मानना है कि ‘सपोर्ट पर्सन’ की भूमिका का विस्तार उन्हें मामले से जुड़े विभिन्न हितधारकों के बीच ‘सेतु’ के रूप में काम करने में सक्षम बना सकता है.

उनका सुझाव है कि ‘सपोर्ट पर्सन’ को एफआईआर दर्ज करने के समय से ही मामले में शामिल किया जा सकता है, ताकि वे पूरी प्रक्रिया के दौरान बाल पीड़ितों की सहायता के लिए उपलब्ध रह सकें.

गोयनका ने भी हितधारकों के बीच समन्वय के महत्व पर जोर दिया, खासकर जब व्यभिचार के मामलों में बच्चों की सहायता करने की बात आती है.

उनके अनुभवों के मुताबिक, बच्चों को फायदा तब होता है, जब अदालत सीडब्ल्यूसी और ‘सपोर्ट पर्सन’ द्वारा निभाई गई महत्वपूर्ण भूमिका को पहचानती है और मान्यता देती है. यह खासतौर पर इसलिए ज़रूरी है, क्योंकि परिवार में व्यभिचार से जुड़े मामलों में बच्चों को अक्सर अपने घरों में ऐसी सहायता खोजने में मुश्किल होती है.

गोयनका ने कहा, ‘‘सीडब्ल्यूसी की तरफ से बच्चों की मदद के लिए प्रशिक्षित एक सामाजिक कार्यकर्ता को सपोर्ट पर्सन के तौर पर नियुक्त किया जा सकता है, जो बच्चे के समर्थन के लिए विभिन्न स्तर पर समन्वय कर सकता है.’’

उन्होंने सभी हितधारकों को नियमित रूप से ट्रेनिंग देने और संवेदनशील बनाने के महत्व पर भी जोर दिया ताकि वे नाबालिग पीड़ितों के साथ इस तरह काम कर सकें कि उन्हें फिर किसी तरह का आघात पहुंचने से रोका जा सके.

हालांकि, जबकि दिल्ली में सपोर्ट पर्सन बाल पीड़ितों को हर तरह का सहयोग प्रदान कर रहे हैं, उत्तर प्रदेश में पोक्सो न्यायाधीश का दावा है कि उन्होंने कभी किसी पीड़ित बच्चे के साथ किसी सहायक व्यक्ति को नहीं देखा.

उन्होंने दिप्रिंट से कहा, ‘‘या तो उन्हें नियुक्त नहीं किया जा रहा है, या वे बच्चे की मदद के लिए अदालतों में नहीं आ रहे हैं.’’

सीएसजे की निमिशा श्रीवास्तव कहती हैं, ‘‘समर्थन और पुनर्वास तंत्र (पीड़ित के लिए) के संदर्भ में कई जगहों पर अभी भी तमाम चिंताओं को पहचाना नहीं गया है.’’

उन्होंने कहा, ‘‘हर बार जब उन्नाव या कठुआ जैसा बलात्कार कांड सामने आता है, तो हर जिला बाल संरक्षण इकाई को सपोर्ट पर्सन मुहैया कराने के लिए वित्तीय मदद के बजाये अधिक दंडात्मक प्रावधानों के लिए कानून में बदलाव किया जाता है.’’


यह भी पढ़ेंः सरोगेट मां का नहीं, बल्कि सरोगेट बच्चे का होना चाहिए माता पिता से जेनेटिक संबंध: मोदी सरकार


‘18 साल की होने के बाद क्या होता है?’

बाल अधिकार कार्यकर्ताओं के अनुसार, कौटुंबिक व्यभिचार के पीड़ितों के एक बार 18 साल के हो जाने और व्यवस्था से बाहर हो जाने पर उनके लिए देखभाल सुविधाओं का अभाव एक गंभीर मुद्दा होता है.

श्रीवास्तव ने उस दर्दनाक स्थिति पर प्रकाश डाला जो पीड़ितों को 18 वर्ष का होने के बाद झेलनी पड़ती है.

उन्होंने दिप्रिंट को बताया, ‘‘पीड़ित एक बार 18 वर्ष की हो जाए फिर क्या होता है? वे बाल गृह में नहीं रह सकती. हमारे पास अनाचार का एक मामला था जिसमें लड़की को 18 साल की होने के बाद घर वापस लौटना था.’’

श्रीवास्तव के मुताबिक, जिन पीड़ितों को अपने परिवारों में लौटना होता है, उनके बदलाव से गुजरने वाले इस ‘कठिन और उथल-पुथल’ भरे समय को आसान और सहज बनाने पर गंभीरता से चर्चा करने की ज़रूरत है.

उन्होंने कहा, ‘‘अगर उसे परिवार में लौटना ही तो इस बदलाव को लेकर कुछ सुनिश्चित करना ज़रूरी है. सबसे अहम बात यह है कि पीड़ित की सुरक्षा सुनिश्चित की जानी चाहिए. हम यह सुनिश्चित करने के लिए काम करते हैं कि उसे फिर से अपमानजनक माहौल न झेलना पड़े, जो फिर से एक जटिल प्रक्रिया होती है.’’

राधिका के लिए वयस्क होने के बाद भविष्य अनिश्चित तो लगता है, लेकिन वे कुछ बेहतर होने को लेकर आशान्वित है.

उसने कहा, ‘‘मेरे परिवार में लड़कियां आमतौर पर पढ़ती नहीं हैं, लेकिन मेरा ध्यान अभी काम करने की संभावनाएं तलाशने और जीवन में आगे बढ़ने पर केंद्रित है.’’

(संपादन: फाल्गुनी शर्मा)

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ेंः स्नेहल गवारे की लाश उसके ही बेड के बॉक्स में छुपा रखी थी,15 साल बाद भी अनसुलझा है मामला


 

share & View comments