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Wednesday, 24 April, 2024
होमदेशपीड़ित या अपराधी? महिला के अपने दुराचारी को मार डालने के मामले में कैसे उलझ जाते हैं कानूनी दांवपेच

पीड़ित या अपराधी? महिला के अपने दुराचारी को मार डालने के मामले में कैसे उलझ जाते हैं कानूनी दांवपेच

अदालतें ऐसे मामलों में फैसले से पहले बैटर्ड वुमेन सिंड्रोम यानी महिलाओं की एक तरह की मनोदशा को समझने के लिए अपने-अपने तरीके अपना रही हैं. लेकिन इनसे जुड़े हितधारकों का कहना है कि कानून, न्यायपालिका के स्तर पर अधिक स्पष्टता की आवश्यकता है.

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नई दिल्ली: ‘वह अक्सर मुझे गलत तरीके से छूता था, मेरे कपड़े फाड़ देता था और अपने हाथ मेरे कपड़ों के अंदर घुसा देता था.’ यह कहना है 32 साल की सिमरन (बदला हुआ नाम) का, जिसने करीब डेढ़ साल तक अपने पिता का दुर्व्यवहार झेला था. उसके पिता अब मर चुके हैं, और सिमरन पर करीब एक दशक पहले उनकी हत्या कर का आरोप है.

इस तरह की पीड़िताएं जब अपने साथ दुर्व्यवहार का विरोध करती हैं तो क्या होता है?

भारत में ‘बैटर्ड वुमेन सिंड्रोम’ (बीडब्ल्यूएस) को कानूनी तौर पर बचाव के लिए इस्तेमाल किया जाना अभी शुरुआती अवस्था में ही है—अदालतें इस पर स्पष्ट रूप से कुछ तय नहीं कर पाई हैं कि ऐसी महिलाओं को अपराधी माना जाए या पीड़ित. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़े बताते हैं कि 2021 में महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामले पिछले वर्ष की तुलना में 15.3 प्रतिशत बढ़कर 4,28,278 मामले हो गए.

नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे (एनएफएचएस) के आंकड़ों से पता चलता है कि ‘यौन हिंसा को अंजाम देने वाले अक्सर वो लोग होते हैं जिनके साथ महिलाओं के करीबी रिश्ते होते हैं.’ विवाहित महिलाओं में से 82 प्रतिशत ने पति और 14 प्रतिशत ने पूर्व पतियों से यौन हिंसा झेलने की बात कही. अविवाहित लड़कियों के मामले में सबसे आम अपराधी—करीब 39 प्रतिशत—’अन्य’ रिश्तेदार थे. पिता या सौतेले पिता की बात 4 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने कही.

सिमरन के मामले की बात करें तो उसकी मां की मृत्यु 2010 में हो गई थी. जबकि उसकी दो बड़ी बहनों की शादी हो चुकी थी, सिमरन सबसे छोटी थी और दिल्ली के एक इलाके में अपने पिता के साथ रहती थी.

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वह दावा करती है कि उसकी मां की मृत्यु के बाद काफी कुछ ऐसा घटा जिसने उसके जीवन को एकदम बदलकर रख दिया. सिमरन का आरोप है कि उसके पिता अक्सर उसका यौन शोषण करते थे, और कोई प्रतिरोध काम नहीं आता. सिमरन ने दिप्रिंट को बताया, ‘मेरे अंदर बहुत गुस्सा भरा हुआ था.’

अभियोजन पक्ष के मुताबिक, सिमरन के पिता की हत्या केबल वायर, कांच के टुकड़ों और क्रिकेट स्टंप से की गई थी. 2018 में जमानत मिलने से पहले सिमरन ने चार साल तिहाड़ जेल में बिताए थे. उसके मामले की सुनवाई अब दिल्ली की एक अदालत कर रही है.

इस बीच, धीरे-धीरे अदालतें भी गुस्से का चरम पर पहुंचा देने वाले इस सिंड्रोम पर विचार करने लगी हैं, और बीडब्ल्यूएस के अपने वर्जन के साथ भी आई हैं, जिसे ‘नल्लाथंगल सिंड्रोम’ कहा जाता है. हालांकि, विशेषज्ञ कानून और अदालती स्तर पर इस विषय में अधिक स्पष्टता की जरूरत पर जोर देते हैं. इसके साथ ही घरेलू हिंसा से जुड़ी तमाम चुनौतियों के समाधान की आवश्यकता भी बताते हैं जो वास्तव में महिलाओं को या तो अपनी या फिर अपना शोषण करने वाले की जान ले लेने के लिए प्रेरित करती हैं.

महिलाएं सब छोड़कर चली क्यों नहीं जातीं

नेटफ्लिक्स की फिल्म ‘डार्लिंग्स’ में विजय वर्मा का निभाया किरदार हमजा आलिया भट के किरदार बदरू से कहता है, ‘मुझे पता है कि मैं गलत हूं, लेकिन मेरा प्यार गलत नहीं है. अगर मैं तुमसे प्यार नहीं करता तो तुम्हें गाली क्यों देता? और अगर तुम मुझसे प्यार नहीं करती तो तुम ये क्यों सुनती?’ यह बात वो तब कहता है जब बदरू पुलिस में शिकायत दर्ज करने की कोशिश करती है. हमजा एक शराबी है और रात में बदरू को शारीरिक प्रताड़ना देता है. लेकिन सब होते ही वह उस पर पश्चाताप करता और उसके प्रति प्रेम और स्नेह दिखाता.

बीडब्ल्यूएस का मनोवैज्ञानिक सिद्धांत भी इसी तरह के शोषण के इर्द-गिर्द केंद्रित है. यह सिद्धांत तीन अलग-अलग चरणों की व्याख्या करता है—पहला मौखिक झगड़े के साथ तनाव काफी ज्यादा बढ़ जाना, दूसरा हिंसक व्यवहार से भरा, और तीसरा एक हनीमून स्टेज जब दुर्व्यवहार करने वाला अपने कृत्य पर खेद जताता है और यहां तक कि पीड़िता के प्रति स्नेही व्यवहार भी दिखाता है.

यह सिद्धांत इस सवाल का भी जवाब देता है कि आखिर क्यों महिलाएं अपमान करने वाले पार्टनर को छोड़ने के बजाय उन्हें मारने का विकल्प चुनती हैं. सिद्धांत कहता है कि हिंसा का चक्र अक्सर महिलाओं के ‘मन में बसी इस धारणा’ को और बढ़ा देता है कि वे एक ऐसी निराशाजनक स्थिति में हैं जिस पर उनका कोई नियंत्रण नहीं है, और वे दुर्व्यवहार करने वाले की मौत को ही एकमात्र रास्ता मान लेती हैं.

अक्स फाउंडेशन की संस्थापक निदेशक बरखा बजाज, जो ट्रॉमा, लिंग आधारित मुद्दों और दुखी लोगों की भावनाओं को समझने में महारत रखती है, उन्होंने बताया कि महिलाओं की हताशा को चरम पर पहुंचाने वाला यह सिंड्रोम वास्तव में आघात के तीव्र और दीर्घकालिक खतरे को लेकर आवेश में आकर दी गई प्रतिक्रिया को दर्शाता है.

उन्होंने कहा, ‘किसी भी अपमानजनक रिश्ते के मूल में शक्ति और नियंत्रण है, और यह किसी भी इंसान में हो सकता है. जब कोई व्यक्ति वर्षों तक घरेलू हिंसा, दुर्व्यवहार या किसी अन्य प्रकार के आघात को सहता रहता है, तो ‘उसका शरीर एक स्थिर प्रतिक्रिया अपना लेता है और निढाल हो जाता है.’

उन्होंने दिप्रिंट से कहा, ‘जो कुछ हो रहा है उससे मुकाबला करने का यह शरीर का अपना तरीका है. डिसोसिएशन, डिपर्सोनालाइजेशन, डिरिएलाइजेश, ये सभी चीजें घरेलू हिंसा की शिकार किसी भी महिला के साथ हो सकती हैं. मुझे लगता है कि लोग सोचते हैं कि सब कुछ बहुत अच्छा है, और उनके आसपास बहुत सारी एजेंसियां है, और वे इस सबसे बाहर निकल सकते हैं. लेकिन ऐसा नहीं है.’

उन्होंने कहा, ‘अपमानजनक रिश्तों में दुर्व्यवहार युद्ध बंदियों के साथ होने वाले व्यवहार जैसा ही होता है, जिससे इसे छोड़ना असंभव हो जाता है. एक ही इंसान में अक्सर एक अच्छा और एक बुरा व्यक्ति छिपा होता है. मैंने ऐसे अपराधियों को देखा है जो पहले तो मारेंगे, फिर अस्पताल भी लेकर जाएंगे और पूरी सेवा-सुश्रवा भी करेंगे, अपने दुर्व्यवहार के लिए माफी मांगेंगे, लेकिन फिर उसी तरह के दुर्व्यवहार पर उतारू हो जाएंगे. ऐसे में यह पीड़ित के लिए भी बहुत भ्रमित करने वाला होता है.’

‘गुनहगार या पीड़ित?’

22 जनवरी 2006 मंजू के लिए एक सामान्य दिन था, जो अपने पति भद्रा लकड़ा और अपने बच्चों के साथ असम के गहापुर टी एस्टेट के लेबर क्वार्टर में रहती थी.

लेकिन रात होते-होते सब कुछ बदल गया जब भद्रा रात में शराब पीकर घर लौटा और उसने मंजू को लाठियों से पीटा, जैसा वह अक्सर करता था. हालांकि, उस दिन मंजू ने लाठी छीन ली और भद्रा को बुरी तरह पीटने लगी. अगले दिन तड़के गहरी चोटों के कारण भद्रा की मृत्यु हो गई.

हाई कोर्ट ने मंजू को ‘उन भारतीय गृहिणियों में से एक माना जो आए दिन बेवजह घरेलू हिंसा का सामना करती हैं और पीड़ित होती हैं.’ साथ ही पूछा ‘उसके कृत्य को गुनाह माना जाना चाहिए या फिर वह सिर्फ परिस्थितियों की शिकार थी?’

यद्यपि ट्रायल कोर्ट ने मंजू को हत्या का दोषी माना था और उसे आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी, गुवाहाटी हाई कोर्ट ने उसे गैर-इरादतन हत्या के लिए आईपीसी की धारा 304 (पार्ट-2) के तहत दोषी ठहराया. और उसकी जेल की सजा को भी घटाकर 5 साल के कठोर कारावास में तब्दील कर दिया.

भारत में आईपीसी की धारा 300 हत्या को परिभाषित करती है और इसमें पांच अपवादों को शामिल किया गया है—जिसमें गंभीर और अचानक उकसाना, और निजी बचाव शामिल हैं. ये उन स्थितियों को निर्धारित करते हैं जिनमें किसी गैर-इरादतन हत्या को हत्या के आरोप की श्रेणी में नहीं रखा जाता है.

हत्या के लिए मौत या आजीवन कारावास के विपरीत, धारा 304 के तहत गैर-इरादतन हत्या की सजा को दो भागों में बांटा गया है.

पहले भाग में कहा गया है कि जब कोई व्यक्ति आवेश में आकर या उपेक्षापूर्ण तरीके से पीड़ित को ऐसी कोई चोट पहुंचाए जिससे उसकी मौत हो जाए और आरोपी को ऐसे अंजाम का बिल्कुल भी अंदाजा ना हो. ऐसे मामलों में आरोप साबित होने पर 10 साल तक की सजा और जुर्माने का प्रावधान है. दूसरा भाग यानी 304 (बी) तब लागू होता है जब मृत्यु उस ज्ञान के साथ कोई कार्य करने से होती है जिससे जान जाने की संभावना होती है. इसमें 10 साल की जेल हो सकती है.

इसलिए, हत्या की श्रेणी में न आने वाली गैर-इरादतन हत्या को आमतौर पर हत्या की तुलना में कम गंभीर अपराध माना जाता है.

मंजू को एक कम गंभीर अपराध के लिए दोषी ठहराते हुए हाईकोर्ट ने कहा कि वह वास्तव में अपने पति के लगातार हिंसक कृत्यों से मुक्त होना चाहती थी, और इसलिए, ‘उसे लगा कि पति की जान ले लेने के अलावा कोई समाधान नहीं है.’ इसलिए, उसके साथ होने वाली निरंतर हिंसा को ‘गंभीर और अचानक उकसावे’ के अपवाद के अंतर्गत माना गया.

नल्लाथंगल के पीछे क्या है कहानी

आघात पहुंचने की स्थिति में होने वाली प्रतिक्रिया के संदर्भ में बजाज ने समझाया कि ऐसी अपमानजनक स्थितियां ‘प्रेशर कुकर’ जैसी होती हैं. ‘जहां कभी-कभी दबाव उस हद तक बढ़ जाता है जहां या तो मैं खुद को नुकसान पहुंचा लूं या फिर सारा गुस्सा दुर्व्यवहार करने वाले पर उतार दूं.’

कई फैसलों में उन मामलों का निपटारा किया गया जिनमें महिलाओं ने दूसरा रास्ता अपनाया था. ऐसे मामलों में, ‘नल्लाथंगल सिंड्रोम’ को अक्सर बीडब्ल्यूएस का भारतीय संस्करण माना जाता है.

तमिल में ‘नल्लाथंगल सिंड्रोम’ का जिक्र 1989 में मद्रास हाई कोर्ट के एक फैसले के दौरान आया, जिसमें बताया गया था कि ‘कैसे एक अमीर महिला पर असहनीय दुखों का पहाड़ टूट पड़ा था और उसने अपने सात बच्चों के साथ आत्महत्या कर ली थी.’

नम्मालवारपेट की रहने वाली आरोपी सुयांबुक्कानी ने 19 साल की उम्र में चेन्नई के पड़ोसी गांव विल्लीवक्कम में एक नाई से शादी कर ली थी. हाई कोर्ट के फैसले के मुताबिक, विवाह के बाद से ही उसका ‘शराबी’ पति शारीरिक, भावनात्मक और आर्थिक शोषण करता था. सुयंबुक्कानी ने आरोप लगाया कि उसका पति उसे अक्सर पीटता था. यहां तक कि उसने उसकी मां या भाई से न मिलने का ‘फरमान’ सुना रखा था और उन्हें भी घर आने से रोक दिया था.

उसने आरोप लगाया कि 1983 में उसके पति ने 26 जून की सुबह कहासुनी के बाद उसकी पिटाई की, फिर शाम को और 27 जून की सुबह फिर मारपीट की. वह इसके बाद ऐसा कुछ सहने के लिए तैयार नहीं थी. 28 जून को, वह अपने 2 साल और 10 महीने के दो बेटों के साथ पड़ोस के एक कुएं में पाई गई थी.

ट्रायल कोर्ट ने उसे मार्च 1984 में दोहरे हत्याकांड के लिए दोषी ठहराया. हालांकि, हाई कोर्ट ने सुयंबुक्कानी के कृत्य को उसके निरंतर आवेश की वजह माना और यह स्पष्ट किया कि कैसे उसने ‘नल्लाथंगल वाला रास्ता अपनाने का फैसला किया.’ इसके बाद उसने हत्या के लिए उसकी सजा को रद्द कर दिया, और उसे धारा 304 (ए) के तहत दोषी ठहराया. कोर्ट ने उसकी सजा को आजीवन कारावास से घटाकर पहले ही जेल में काटी जा चुका में तब्दील कर दिया, जिससे वह मुक्त हो गई.


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उकसावे का नतीजा

बीडब्ल्यूएस की अवधारणा किरणजीत अहलूवालिया मामले के साथ लोगों की नजरों में छा गई, यही नहीं फिल्म ‘प्रोवोक्ड’ का आधार भी बनी. अहलूवालिया के मामले ने ब्रिटेन और अमेरिका के मनोचिकित्सकों को बीडब्ल्यूएस के निदान ढूंढ़ने के लिए प्रेरित किया. कनाडाई अदालतों ने भी इस आधार पर बचाव को मान्यता दी है, और ऐसी महिलाओं के कृत्यों को समझने और स्थापित करने के लिए जूरी सदस्य विशेषज्ञों की गवाही स्वीकार करते हैं.

प्रोवोकेशन हत्या के किसी मामले में दुर्व्यवहार पीड़ित की तरफ से सबसे अधिक इस्तेमाल किए जाने वाले बचावों में से एक है. मौजूदा कानून के तहत, आईपीसी की धारा 300 के तहत ‘गंभीर और अचानक उत्तेजना’ एक अपवाद है, जो हत्या के अपराध को गैर-इरादतन हत्या के कम गंभीर आरोप में तब्दील करा सकता है. पिछले कुछ सालों में, गंभीर और अचानक उकसावे को ‘निरंतर उकसावे’ को शामिल करने की दलीलों को माना गया है, यह स्वीकारते हुए कि कुछ समय के अंतराल पर कुछ कृत्यों का निरंतर जारी रहना गंभीर और अचानक उकसावे का कारण बन सकता है.

मद्रास हाई कोर्ट के फैसले में, अदालत ने कहा कि सुयंबुक्कानी का कृत्य निरंतर उकसावे के अपवाद के दायरे में आएगा.

2014 के एक अन्य आदेश में मद्रास हाई कोर्ट ने अमुथा को अग्रिम जमानत दे दी, जिस पर आत्महत्या के असफल प्रयास के बाद अपनी बेटियों की हत्या का आरोप लगाया गया था. इस स्पष्ट तौर पर ‘बीडब्ल्यूएस’ का मामला स्वीकारते हुए कहा गया कि अमुथा ने ‘निरंतर उत्तेजना’ की स्थिति के कारण अपनी बेटियों को मार डाला.

हालांकि, विशेषज्ञों ने स्पष्ट किया है कि निरंतर उकसावे के मामलों में भी अपराध और अंतिम उकसावे के बीच समय में ज्यादा अंतराल नहीं होना चाहिए.

उकसावे वाले कृत्य के खिलाफ कोई कदम उठाना एक आंशिक बचाव है, और उसकी तुलना में सेल्फ डिफेंस पूरी तरह न्यायोचित है और केवल सजा में कमी ही नहीं, बल्कि दोषमुक्ति का आधार भी बन सकता है. हालांकि, भारत में दुर्व्यवहार पीड़ित के हत्या के लिए बाध्य होने के मामले में इसे कभी भी पूरी तरह लागू नहीं किया गया.

सुप्रीम कोर्ट के वकील मृणाल कंवर ने समझाया कि पहली नजर में, बीडब्ल्यूएस के आधार पर बचाव आपराधिक कानून के तहत उपलब्ध किसी भी मौजूदा प्रावधान में फिट नहीं बैठता है.

उन्होंने दिप्रिंट को बताया, ‘आत्मरक्षा का प्रावधान लागू करने के लिए आपको यह समझना होगा कि जोखिम कितना ज्यादा था. और गंभीर और अचानक उकसावे के प्रभाव में आना पूर्ण बचाव का रास्ता नहीं है…आपको गैर-इरादतन हत्या का दोषी ठहराया जाएगा, जिसमें अभी भी 10 साल की सजा का प्रावधान है.’ उन्होंने कहा, ‘एक महिला जो खुद पीड़ित रही है, उसे किसी भी लिहाज से सलाखों के पीछे डालने की जरूरत नहीं है. इसलिए आपको एक विशिष्ट कानून की आवश्यकता है, क्योंकि आईपीसी ने इन स्थितियों की कल्पना नहीं की थी.’

बीडब्ल्यूएस के आधार पर बचाव को आउटडेटेड होने के कारण आलोचना का सामना भी करना पड़ता है और इसके पीछे दलील यह है कि किसी महिला के जीवन की रक्षा के तर्कसंगत उद्देश्य के बजाये यह ‘गंभीर या आंशिक रूप से पागल’ होने पर फोकस करता है.

‘वो तो आजाद हो गए’

इस बीच, स्कॉलर घरेलू हिंसा से जुड़े जटिल मुद्दों को सुलझाने की जरूरत बताते हैं, साथ ही यह रेखांकित करते हैं कि यह ‘सामाजिक स्तर पर गहराई से जुड़ी समस्या है’, और संस्थागत स्तर पर कोई उचित प्रतिक्रिया न होने के कारण तमाम महिलाएं आजिज आ जाने के बावजूद हिंसक रिश्तों में बंधी हुई हैं.’

बजाज ने कहा कि पीड़ित महिलाएं अक्सर अपमानजनक रिश्ते को छोड़ने की कोशिश करते समय कई चुनौतियों का सामना करती हैं. उन्होंने बताया कि इनमें अपराध की सूचना देने के साथ शुरू होने वाली मुश्किलें और पुलिस की असंवेदनशीलता, आश्रय गृहों की कमी, सामाजिक और पारिवारिक समर्थन न मिलना, और वर्षों लंबित रहने के बाद मामलों की सुनवाई शुरू होना आदि शामिल हैं.

उन्होंने कहा, ‘लगभग हर मामले में यह कहानी होती है. हम उन्हें नाकाम कर रहे हैं, हम अपनी पीड़िताओं को पूरी तरह से नाकाम कर रहे हैं, और फिर उनसे यह उम्मीद कर रहे हैं कि वह खुद ही इस सबसे लड़कर बाहर आ जाएंगी.’

बजाज याद करती हैं कि कैसे पति से पीड़ित एक महिला को बचाने के बाद कैसे उसे पुणे के एक छोर से दूसरे छोर ले जाना पड़ा था, क्योंकि उसका पति उसे किसी भी झुग्गी बस्ती में ढूंढ़ लेता था जहां उसे रखा जाता था. महिला की तरफ से मामला दर्ज कराने के जवाब में पति ने उसकी योनि में मिर्च पाउडर डाल दिया था.

उन्होंने बताया, ‘ऐसा उसने महिला को सजा देने के लिए किया था. वह गुस्से में था, ‘इसकी हिम्मत कैसे हुई पुलिस के पास जाने की.’ हमें उसे 20 किमी दूर ले जाना पड़ा. तो ऐसा नहीं है कि अपराधी पीड़िता के लिए उसे छोड़ना आसान बना देता है… शोध से पता चलता है कि जब कोई महिला छोड़ने की कोशिश करती है तो हिंसा सबसे ज्यादा बढ़ जाती है. इसलिए छोड़ने की कोशिश करने में जोखिम बहुत अधिक है क्योंकि हिंसा वास्तव में बढ़ सकती है.’

सिमरन कहती है कि उसने अपने पिता से बचने की कोशिश की थी. वह कम से कम दो बार एक गुरुद्वारे में जाने का दावा करती है, लेकिन यह नहीं जानती थी कि वहां से कहां जाना चाहिए. उसने अपनी बड़ी बहनों को भी यह सब बताया था.

उसकी दोनों बहनों ने पुलिस को बताया कि सिमरन अक्सर अपने पिता के व्यवहार के बारे में शिकायत करती थी. दिप्रिंट ने उनके दिए बयानों को देखा है जिससे उन्होंने दर्ज कराया था कि उन्होंने अपने पिता को समझाने की कोशिश की और उन्हें ऐसी हरकतों के लिए ‘झकझोरा’ भी था. उसकी एक बहन ने अदालत को बताया कि सिमरन ‘मानसिक रूप से अवसाद की स्थिति में थी.’ उसने यह भी स्वीकार किया कि सिमरन पुलिस शिकायत दर्ज करना चाहती थी, लेकिन उन्होंने ही यह कहकर रोक दिया कि ‘रिश्तेदारों और करीबी लोग क्या कहेंगे, फिर समाज में बदनामी भी हो जाएगी.’

पुलिस को दिए अपने बयान में उसके चाचा ने कहा कि सिमरन अक्सर अपनी बहनों को अपने पिता के अनुचित व्यवहार के बारे में बताती थी. मई 2014 में अपने बयान—जिसे दिप्रिंट ने देखा है—में उन्होंने कहा था, ‘हालांकि, किसी ने उसकी बात पर विश्वास नहीं किया.’

चटक हरे रंग की सलवार, पीले रंग का कुर्ता और दोनों हाथों में लाल-सफेद चूड़ा पहने सिमरन अब शादीशुदा है. वह कहती है, ‘मैं सही मायने में अपना नया जीवन शुरू करना चाहती हूं.’ साथ ही गहरी उदासी के साथ यह भी कहती है, ‘वह तो आजाद हो गए, मैं अभी भी संघर्ष कर रही हूं.’


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