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Saturday, 13 September, 2025
होमThe FinePrintप्राडा की अगली भारतीय प्रेरणा क्या होगी? कोल्हापुर की हुपरी पेश कर रही है अपनी दावेदारी

प्राडा की अगली भारतीय प्रेरणा क्या होगी? कोल्हापुर की हुपरी पेश कर रही है अपनी दावेदारी

प्राडा अब महाराष्ट्र के कोल्हापुर के पास स्थित हुपरी के चांदी की पायल बनाने वाले कारीगरों के साथ साझेदारी पर ‘विचार’ कर रहा है. चांदी के दाम बढ़ने और पायल के फैशन से बाहर होने के बीच, कारीगर उम्मीद कर रहे हैं कि यह फैशन रैंप के जरिए दोबारा लोकप्रिय हो सकेगी.

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हुपरी, कोल्हापुर: महाराष्ट्र की ‘सिल्वर नगरी’ हुपरी में, कोल्हापुरी चप्पलों के नक्श-ओ-कदम पर चलने की संभावना ने एक लंबे समय बाद उत्साह की झलक वापस ला दी है. कारीगर अब उम्मीद कर रहे हैं कि पारंपरिक चांदी की पायल की झनकार पड़ोसी शहर की चप्पलों के साथ प्राडा के रैम्प पर गूंजेगी — इस बार, पूरा श्रेय मिलते हुए.

यह मौका तब आया जब मिलान फैशन वीक में प्राडा की कोल्हापुरी-स्टाइल की चप्पलें दिखाई दीं. सांस्कृतिक अपनाने को लेकर हुए विवाद के बीच, प्राडा की एक टीम महाराष्ट्र पहुंची और सहयोग पर चर्चा की. उन्होंने जो प्रस्ताव सुना, उसमें हुपरी की चांदी की पायल भी थी, जिसे 2021 में GI टैग मिला था. और लग्ज़री ब्रांड ने कहा कि “वे इस पर विचार करेंगे.”

“प्राडा ने जल्द ही हुपरी के चांदी के कारीगरों के साथ सहयोग की संभावनाओं को देखने के लिए एक तकनीकी टीम भेजने का आश्वासन दिया है,” महाराष्ट्र चेंबर ऑफ कॉमर्स, इंडस्ट्री एंड एग्रीकल्चर (MACCIA) के अध्यक्ष ललित गांधी ने कहा। “अगर यह सहयोग होता है, तो इस उद्योग को एक बहुत बड़ा और ज़रूरी बढ़ावा मिलेगा.”

यह छोटे शहर के लिए लंबे समय बाद आई सबसे अच्छी खबर है. हुपरी देश के सबसे बड़े चांदी की पायल और चेन उत्पादकों में से एक है, जहां लगभग 200 छोटे कारखाने और वर्कशॉप मिलकर एक 10,000 करोड़ रुपये की कुटीर उद्योग को चला रहे हैं. लेकिन अब इस पर एक गहरा साया है. ऑर्डर कम हो गए हैं. मजदूर जा चुके हैं. कुछ कारखाने अब हफ्ते में सिर्फ एक बार खुलते हैं.

कारखाने के मालिक चांदी की कीमतों में उतार-चढ़ाव और सरकार के व्यापार के प्रति “सौतेले व्यवहार” को दोष देते हैं, लेकिन उपभोक्ताओं की पसंद भी बदल गई है. हुपरी की पायल, जो अपनी बारीक कारीगरी के लिए जानी जाती है, की मांग कम हो गई है. पायल को अब पिछड़ा समझा जाता है. लेकिन अंतरराष्ट्रीय फैशन रैंप ने कई पुराने ट्रेंड्स को फिर से ज़िंदा किया है. विक्टोरियन से लेकर मेसोपोटामियन और रोमन स्टाइल तक वापसी कर चुके हैं. दस साल पहले चोकर्स या ‘डॉग कॉलर’ का ज़माना था. फिर 2021 में बेली चेन का दौर आया, जिसे चैनल से लेकर डियोर तक ने दिखाया. अब ग्रीस की ‘काफ्फा’ जैसी ईयरकफ्स का फैशन है. शायद अब टखने और चांदी की पायल की बारी है.

हुपरी की एक तपती वर्कशॉप में, कारीगर संजय कुमार शर्मा के माथे पर पसीने की बूंदें उस समय बन गईं जब वे चांदी की कतरनों को मेल्टिंग फर्नेस में डाल रहे थे. वे 2000 में आगरा से हुपरी आए थे अपने भविष्य को बेहतर करने के लिए और अब 18,000 रुपये महीने कमाते हैं. लेकिन अनिश्चितता लगातार बढ़ रही है.

Hupari silver anklets
हुपरी की चांदी की पायलें कई डिज़ाइनों में उपलब्ध हैं. इनमें आम, पान का पत्ता और चंपा के फूल जैसे पारंपरिक डिज़ाइन शामिल हैं | फोटो: मोहम्मद हम्माद | दिप्रिंट

“हम सिर्फ इस काम में ही निपुण हैं. अगर यह बंद हो गया तो हमारी आमदनी खत्म हो जाएगी,” 49 वर्षीय शर्मा ने कहा. “मैं रुक नहीं सकता. मेरा परिवार है. मुझे किसी और फैक्ट्री में कुछ नया सीखने में 3-4 साल लग जाएंगे.”

हुपरी में लगभग 80 प्रतिशत परिवारों की रोज़ी-रोटी पूरी तरह से चांदी के इस व्यापार पर निर्भर है.

“हम 5,000 परिवारों को बेरोज़गार नहीं होने दे सकते,” चौथी पीढ़ी के चांदी की चेन फैक्ट्री मालिक प्रवीण चंद्रकांत चोकले ने कहा. “हम इस सहयोग को खुले दिल से स्वीकार करेंगे. इससे हमें बहुत फायदा होगा.”

चलती आ रही परंपरा Vs ‘पितृसत्ता का प्रतीक’

पिछले 34 सालों से, अपर्णा कदम की निपुण उंगलियां पारंपरिक फिलिग्री कला का उपयोग करके चांदी को नाज़ुक डिज़ाइनों में ढालती आ रही हैं. उन्होंने हजारों पायलें बनाई हैं जिनमें मुड़ी हुई तार की डिज़ाइन और छोटे-छोटे घंटियां होती हैं जो धीरे-धीरे बजती हैं.

“एक समय था जब ऑर्डर की बाढ़ सी आ जाती थी,” उन्होंने बारिश के दिनों में पारंपरिक रूप से किए जाने वाले समृद्धि और भलाई के लिए पूजा से लौटते हुए कहा. “हम कुछ महीनों में 15,000 रुपये तक कमा लेते थे.”

आज, कदम एक दिन में केवल दो से तीन पायलें बनाती हैं, जिससे उन्हें हर महीने करीब 3,000 से 4,000 रुपये की आमदनी होती है. उनके पति पास की एक चांदी की फैक्ट्री में काम करते हैं, जहां वह टुकड़ों को जोड़ने के लिए सिल्वर को पिघलाकर सोल्डरिंग का काम करते हैं.

“उनके हाथ कई बार जल चुके हैं,” उन्होंने कहा. “फैक्ट्री मालिक कुछ बेसिक इलाज का इंतज़ाम करते हैं, और फिर वह वापस काम पर लग जाते हैं. कोई सही सुरक्षा इंतज़ाम नहीं है, लेकिन हमेशा से यही चलता आ रहा है. हमारे पिता, दादा, यहां तक कि परदादा भी ऐसे ही काम करते थे.”

फैक्ट्रियों में आमतौर पर 30 किलो की बड़ी सिल्वर की ब्लॉक्स खरीदी जाती हैं. ज़रूरत के अनुसार, उस ब्लॉक का एक हिस्सा काटकर भट्टी में पिघलाया जाता है. पिघली हुई चांदी को पतली स्लैब के सांचे में डाला जाता है, जहां वह जल्दी से जम जाती है. इन गर्म स्लैब्स को तुरंत पानी में डुबोया जाता है, फिर उन्हें रोलिंग मशीनों से गुज़ारा जाता है ताकि ज़रूरत के अनुसार मोटाई मिल सके—यह पायल के प्रकार पर निर्भर करता है.

जहां पुरुष आमतौर पर फैक्ट्री का भारी काम करते हैं जैसे कि पिघलाना, रोलिंग और सोल्डरिंग, वहीं महिलाएं जैसे कि कदम बारीक काम में लगी होती हैं: तार को आकार देना, घंटियां जोड़ना और डिज़ाइनों को सजाना. कीमत वजन और डिज़ाइन पर निर्भर करती है. एक सामान्य पायल की कीमत करीब 1,500 रुपये से शुरू होती है, जबकि दुल्हनों के लिए बनी जटिल डिज़ाइन वाली पायलें 32,000 रुपये तक की हो सकती हैं.

Hupari silver rolling machine
एक रोलिंग मशीन चांदी के स्लैब को वांछित मोटाई तक चपटा करती है | फोटो: मोहम्मद हम्माद | दिप्रिंट

जहां इस चांदी के काम की जड़ें सदियों पुरानी हैं, वहीं हुपरी की पहचान 1904 में बनी जब एक सुनार कृष्णाजी रामचंद्र सोनार ने सोना छोड़कर चांदी का काम शुरू किया. 1940 के दशक में रोलिंग मशीनों के आने से यह व्यापार और बढ़ा. आमतौर पर शादी, त्योहार और नृत्य प्रस्तुतियों के दौरान पहनी जाने वाली ये पायलें पारंपरिक महाराष्ट्रीयन डिज़ाइनों के लिए जानी जाती हैं, जैसे पान, बादाम, चंपा और आम्बी. हुपरी की सिल्वर क्राफ्ट को 2021 में GI टैग मिला, लेकिन सबसे ज़्यादा पहचान पायलों को मिली, जिनके ग्राहक उत्तर प्रदेश से लेकर गुजरात और मध्य प्रदेश तक फैले थे.

लेकिन ये पारंपरिक डिज़ाइन शहरी बाज़ार से हमेशा नहीं जुड़ पाते.

मुंबई की ज्वेलरी उद्यमी दीक्षा सिंघी के लिए, पायल का चलन कम होना सिर्फ कीमत या मांग में बदलाव नहीं है, बल्कि बदलती सोच का नतीजा है.

“अधिकतर कामकाजी महिलाएं ऑफिस में इन्हें नहीं पहनतीं. यहां तक कि गृहिणियां भी इन्हें पहनना नहीं चाहतीं,” 26 वर्षीय सिंघी ने कहा. “अब पायलें ज्यादातर त्योहारों तक सीमित रह गई हैं. फैशन तेजी से बदलता है, हर सीजन में कोई नया डिज़ाइन बाज़ार में छा जाता है.”

Hupari silver artisans
हुपरी कारीगर चांदी की पायल पर बारीक काम करते हैं. अक्सर महिलाएं ही तारों को आकार देती हैं, घुंघरू लगाती हैं और पारंपरिक आकृतियां हाथ से सजाती हैं। | फोटो: मोहम्मद हम्माद | दिप्रिंट

उन्होंने यह भी कहा कि कई युवा महिलाएं पारंपरिक पायल डिज़ाइनों को “पितृसत्ता का प्रतीक” मानती हैं, जिससे उनका लगाव इन गहनों से कम हो गया है.

“पारंपरिक हस्तशिल्प और उनके पीछे की कहानियों का सम्मान करना ज़रूरी है,” उन्होंने कहा. “लेकिन आज के समय और बाज़ार के अनुसार इन्हें आधुनिक बनाना भी उतना ही ज़रूरी है.”

लेकिन हुपरी में अपर्णा कदम कहती हैं कि पारंपरिक गहनों का आकर्षण कभी नहीं जाता.

“आधुनिक डिज़ाइन आते हैं और चले जाते हैं. पारंपरिक डिज़ाइनों ने बहुत लंबे समय से टिके रहकर यह साबित किया है. इसके पीछे कोई न कोई वजह तो ज़रूर होगी,” कदम ने कहा.

हालांकि, कई कारीगर अब नया रास्ता अपना रहे हैं.

नई उम्मीदें

अपनी नाक पर चश्मा लगाए दीपक देसाई, जो पचास के दशक में हैं, एक प्रेस मशीन पर शांति से काम करते हुए चांदी की प्लेटों पर छोटी गाय की आकृतियां उकेरते हैं. हुपरी में वे अकेले कारीगर हैं जो रामकड़ा बनाते हैं — चांदी के छोटे-छोटे जानवर जिन्हें चांदी के खिलौने कहा जाता है.

“मैं अपने घर, अपनी फैक्ट्री और स्टाफ का खर्च सिर्फ इन रामकड़ों से ही चलाता हूं,” दूसरे पीढ़ी के इस कारीगर ने कहा. “पायल का कारोबार खत्म हो गया है.”

देसाई के परिवार की विरासत कभी पायलों पर आधारित थी. दो साल पहले तक, उनकी वर्कशॉप हर दिन 4-5 किलो चांदी की पायलें बनाती थी. अब पायल की फैक्ट्री का शटर हफ्ते में सिर्फ एक बार खुलता है. धातु की खनक अब खामोशी में बदल गई है.

देसाई ने पायल के कारोबार के गिरने का संकेत एक दशक पहले ही समझ लिया था. 2015 में ही उन्होंने अपने पुराने वर्कशॉप के पास तीन मंजिला, 20 बाय 20 फुट की फैक्ट्री बनवाई, जो पूरी तरह से रामकड़ों को समर्पित है.

“जब तक लोगों की धर्म में आस्था है, ये कारोबार नहीं मरेगा,” उन्होंने कहा. “लोग महंगी चांदी की वजह से पहनना बंद कर सकते हैं, लेकिन मंदिरों, पूजा और गिफ्ट के लिए ये जानवर खरीदना बंद नहीं करेंगे.”

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हुपरी के कारीगरों द्वारा बनाए गए छोटे चांदी के जानवर या रामकड़ा | फोटो: मोहम्मद हम्माद | दिप्रिंट

करीब 20 ग्राम वज़न वाले रामकड़े डिज़ाइन पर निर्भर करते हुए लगभग 2,000 से 2,800 रुपये में बिकते हैं.

नीचली मंजिल पर, देसाई और तीन अन्य कारीगर चांदी की प्लेटों पर जानवरों की आकृतियाँ उकेरते हैं और उन्हें आकार में काटते हैं. एक मंजिल ऊपर, एक बड़े और लगभग खाली कमरे में, आठ मज़दूर अपनी सोल्डरिंग स्टेशनों पर पालथी मारकर बैठे होते हैं — हर एक के पास एक क्रूसिबल, चिमटा, टॉर्च और सोल्डरिंग सतह होती है. यहीं पर ब्रेजिंग की प्रक्रिया होती है, जहां वे रामकड़ों को सावधानी से जोड़ते और चमकाते हैं.

इस समय देसाई लगभग 25 कारीगरों को रोजगार दे रहे हैं, जिनमें 10 महिलाएं शामिल हैं. उनके परिवार के बच्चे भी यह काम हाथों-हाथ सीख रहे हैं.

“मैंने तीसरी पीढ़ी के लिए रामकड़ा फैक्ट्री बनाई है,” देसाई ने कहा, जिनके बेटे कोल्हापुर में मैकेनिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहे हैं. “यह उनके सुरक्षित भविष्य के लिए है. अब यह उन पर है कि वे इसे और कैसे आधुनिक बनाते हैं, बेहतर मशीनों और तरीकों से.”

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एक कारीगर बफिंग मशीन से चांदी के रामकड़ा को चमकाता हुआ | फोटो: मोहम्मद हम्माद | दिप्रिंट

लेकिन रामकड़ा कारोबार की इस आंशिक सफलता का मतलब यह नहीं है कि उनके सभी संकट खत्म हो गए हैं. पिछले छह महीनों में चांदी की कीमतें बहुत बढ़ गई हैं — 75,000 रुपये से बढ़कर 1 लाख रुपये से ऊपर.

“हम थोक विक्रेताओं को माल सप्लाई करते हैं, जो खुदरा विक्रेताओं को बेचते हैं,” देसाई ने कहा. “लेकिन जब चांदी की कीमतें बहुत बढ़ जाती हैं, तो ग्राहक खुदरा विक्रेताओं से नहीं खरीदते. इसका असर ये होता है कि खुदरा विक्रेता थोक विक्रेताओं से ऑर्डर नहीं करते और थोक विक्रेता हमसे ऑर्डर देना बंद कर देते हैं. पूरी सप्लाई चेन ठप हो जाती है.”

Hupari silver family
हुपरी की एकमात्र रमकड़ा फैक्ट्री चलाने वाले देसाई परिवार की दो पीढ़ियां. दीपक देसाई कहते हैं, “जब तक लोगों की धर्म में आस्था रहेगी, यह धंधा खत्म नहीं होगा” | फोटो: मोहम्मद हम्माद | दिप्रिंट

इस व्यापार को घेरे हुए अनिश्चितता की वजह से कारीगर परिवारों की नई पीढ़ी इस धंधे से दूर हो रही है. कई लोग अब फैक्ट्री के दूसरे प्रकार के काम की ओर रुख कर रहे हैं, जिन्हें अधिक स्थिर और कम जोखिम वाला माना जा रहा है.

“हुपरी में मेटल कास्टिंग की फैक्ट्रियां शुरू हो रही हैं,” देसाई ने कहा. “कई लोग अब चांदी के काम को छोड़कर कास्टिंग यूनिट्स में चले गए हैं, क्योंकि उन्हें यह ज़्यादा स्थिर और टिकाऊ लगता है.”

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चांदी का घोड़ा रामकड़ा। ये ‘चांदी के खिलौने’ अक्सर पूजा के लिए या उपहार के तौर पर खरीदे जाते हैं। | फोटो: मोहम्मद हम्माद | दिप्रिंट

प्राडा से पावर कट तक

चौथी पीढ़ी के चांदी की चेन फैक्ट्री मालिक, प्रवीण चंद्रकांत चोकले को समय के साथ अपने मज़दूरों की संख्या 20 से घटाकर 12 करनी पड़ी है. कई अन्य फैक्ट्री मालिक भी मज़दूरी की मांग पूरी करने में संघर्ष कर रहे हैं. वे युवाओं को चांदी के काम से दूर जाने के लिए दोष नहीं देते. उनका कहना है कि हालात खुद सब कुछ बयां करते हैं.

जीआई टैग का उद्देश्य बाजार में उत्पाद की पहचान बढ़ाना और कारीगरों को बेहतर दाम दिलाना था, लेकिन कारीगरों का कहना है कि उन्हें इसका कोई ठोस फायदा नहीं हुआ. उन्हें सिर्फ इतना पता है कि बिक्री लगातार गिर रही है.

“हमें जीआई टैग से कोई फायदा नहीं हुआ,” दीपक देसाई ने कहा. “बस नाम के लिए है — हमें पता है कि हमारी पायलों को जीआई टैग मिला है. लेकिन इसका कोई लाभ नहीं दिखता.”

फैक्ट्री मालिक यह भी शिकायत करते हैं कि उन्हें सरकार से किसी तरह का सहयोग नहीं मिलता.

“जो भी ये उद्योग आज है, वो यहां के लोगों की मेहनत की वजह से है,” चोकले ने कहा.

बुनियादी ढांचे से जुड़ी समस्याएं एक और बड़ा मुद्दा हैं. देसाई ने बताया कि हुपरी और आसपास की लगभग 200 चांदी की फैक्ट्रियों को अक्सर बिजली कटौती का सामना करना पड़ता है, जिससे कामकाज बाधित होता है.

“ये बिजली कट सिर्फ उत्पादन धीमा नहीं करते, बल्कि उसे बर्बाद कर देते हैं,” उन्होंने कहा. सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक सोल्डरिंग के समय आती है. अगर बीच में बिजली चली जाए, तो पिघली हुई चांदी मशीन में जम जाती है और काम वहीं से दोबारा शुरू करना नामुमकिन हो जाता है.

“ऐसे मामलों में हमें पूरा काम फिर से शुरू करना पड़ता है,” उन्होंने जोड़ा. कारीगरों के मुताबिक, केवल अस्थिर बुनियादी ढांचे की वजह से लाखों की चांदी बर्बाद होती है, समय खराब होता है और मेहनत बेकार जाती है.

लेकिन अब, कई सालों में पहली बार, बात सिर्फ चांदी की कीमतों और खराब बिजली तक सीमित नहीं है. अब बातचीत में प्राडा और मिलान भी शामिल हो गए हैं.

देसाई अपने अब शांत पड़े पायल वर्कशॉप में जाते हैं, एक पारदर्शी प्लास्टिक बैग खोलते हैं जिसमें पायलें भरी होती हैं, और अपने कारीगरों द्वारा बनाए गए विभिन्न डिज़ाइनों को सलीके से लाइन से लगाते हैं. फिर, वे अपना फोन निकालते हैं — जो ट्रेड ऐप्स से भरा हुआ है — और चांदी की घटती-बढ़ती कीमतें देखते हैं. उस दिन चांदी का भाव था ₹1,15,000 प्रति किलोग्राम.

“बताओ, जब चांदी की कीमतें इतनी ऊपर-नीचे हो रही हैं, तो ये पायलें कौन खरीदेगा?” उन्होंने कहा. “शायद प्राडा वाले ले जाएं, वरना ये अलमारी में ही बंद पड़ी रहती हैं.”

(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
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