ज्ञानवापी मस्जिद पर वाराणसी की जिला अदालत का आदेश इस उम्मीद को तोड़ता है कि अयोध्या में जो कुछ हुआ उसे अब दोहराया नहीं जाएगा, गड़े मुर्दों को उखाड़ते रहना विनाश को बुलावा देना ही है.
आर्थिक सुधारों को अब जिस तरह ताबड़तोड़ लागू किया जा रहा है उससे यही संकेत मिल रहा है कि वे आर्थिक ‘रिकवरी’ की कोशिश तो करेंगे मगर अब तक जो कारगर साबित होता रहा है उससे तौबा नहीं करेंगे.
इस बार के चुनावों में मोदी-शाह जोड़ी के प्रचार अभियान में पाकिस्तानियों, बांग्लादेशियों, आतंकवादियों पर हमले नहीं हो रहे हैं तो ऐसा लगता है कि उन्हें घरेलू राजनीति और राष्ट्रीय रणनीतिक हितों के द्वेषपूर्ण घालमेल के खतरों का एहसास हो गया है.
अगर भारत को लगता है कि उसे दो सरहदों पर मोर्चा संभालना पड़ रहा है, तो पाकिस्तान के लिए चुनौतियां कहीं और गंभीर हैं, वह भारत से दुश्मनी जारी रख सकता है और चीन के उपनिवेश वाली हैसियत में बना रह सकता है.
दुनिया को भारत से बड़ी अपेक्षाएं हैं, जो पूरी नहीं होतीं तो वह शिकायत करने लगती है; मोदी सरकार को दुनिया से अपनी वाहवाही तो बहुत अच्छी लगती है मगर आलोचना से वह नाराज क्यों होती है और उसे खारिज करने पर क्यों आमादा हो जाती है.
हम संस्थाओं को कमजोर किए जाने, एजेंसियों के दुरुपयोग, भेदभावपूर्ण क़ानूनों, देशद्रोह की धारा के इस्तेमाल, विधेयकों को जबरन पारित करवाने आदि की शिकायतें भले करें लेकिन ऐसे सभी प्रमुख मसलों पर निष्क्रियता का सारा दोष कांग्रेस के मत्थे जाता है.
हमारी स्वाधीनता की सुरक्षा करना न्यायपालिका की बड़ी ज़िम्मेदारी है और इसके लिए ‘हैबियस कॉर्पस’ की व्यवस्था का सहारा लिया जाता है लेकिन आज मजिस्ट्रेट इस तरह फैसले कर रहे हैं मानो नियम तो ‘जेल देने का ही है, बेल देना तो उनके ओहदे के दायरे से बाहर है’.
भारत को रणनीति के मामले में चीन और पाकिस्तान के साथ मिलकर बनने वाले त्रिकोण को तोड़कर बाहर निकलना ही होगा लेकिन इससे पहले उसे यह तय करना होगा कि क्या वह घरेलू चुनावी फायदों के चक्कर में अपने रणनीतिक विकल्प सीमित करना चाहता है?
कृषि कानूनों के साथ, मोदी सरकार ने श्रम सुधारों को पारित किया है और प्रमुख कंपनियों के निजीकरण का वादा किया है. इसने अर्थिक दक्षिण-वाम को विभाजित किया है, और यह एक अच्छी बात है.