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Friday, 19 April, 2024
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UPA का भले कोई वजूद न हो लेकिन कांग्रेस अब भी अहमियत रखती है, मोदी-शाह इसे अच्छे से समझते हैं

कांग्रेस ने लगातार दूसरी बार भाजपा से मात भले खायी हो, उसने अपने पक्के 20% वोट बनाए रखे और यही वजह है कि भाजपा से मात खाए तमाम दल उसे चुनौती देने के लिए कांग्रेस का साथ चाहते हैं.

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ममता बनर्जी ने पिछले दिनों मुंबई के अपने दौरे में यह बयान देकर उसी सच को रेखांकित किया कि यूपीए नाम के गठबंधन का अब कोई वजूद नहीं रह गया है. सच तो यह है कि यूपीए का अस्तित्व 2014 के आम चुनाव के बाद ही समाप्त हो गया था.

ममता और प्रशांत किशोर ने, जिन्हें हम ममता का ‘एनएसए’ (राष्ट्रीय रणनीति सलाहकार) कह सकते हैं, कांग्रेस के बारे में जो कहा वह ज्यादा महत्वपूर्ण है. मुंबई की सिविल सोसाइटी की गणमान्य हस्तियों और सोशल मीडिया पर कांग्रेस का समर्थन करने वाली लोक संस्कृति की उन हस्तियों से संवाद के दौरान ममता ने राहुल गांधी का नाम न लेते हुए उन पर तंज कसा.

उन्होंने कहा कि राजनीति में अपनी जगह बनाने के लिए आपको हमेशा विदेश की हवाई सैर न करके जमीन पर उतरना पड़ता है. उन्होंने यह भी कहा कि कांग्रेस अब नरेंद्र मोदी का मुकाबला करने की अपनी ताकत के बारे में किसी को भरोसा नहीं दिला पा रही है. यहां बेशक हम उनके भाषण का सार प्रस्तुत कर रहे हैं.

प्रशांत किशोर ने अगले दिन ट्वीट करके एक-दो पत्थर और चला दिए कि कांग्रेस अभी भी एक ताकत साबित हो सकती है लेकिन कोई व्यक्ति उसका नेतृत्व करने के दैवीय अधिकार का दावा नहीं कर सकता. इस टिप्पणी के बाद कई व्याख्याएं पेश की गईं.

जाहिर है, पहली व्याख्या यह थी कि ममता अपनी पुरानी पार्टी को यह संदेश दे रही हैं कि उसे अब उसके ‘संकोची’ वंश की नहीं बल्कि एक अधिक सक्षम नेता की जरूरत है, जो मोदी-शाह की भाजपा को टक्कर देकर एक से ज्यादा बार परास्त कर चुका हो.

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दूसरी व्याख्या यह है कि प्रशांत किशोर दरअसल ममता की चाल को स्पष्ट कर रहे थे. एक तो यह कि वे कांग्रेस को आश्वस्त कर रहे थे कि वे कांग्रेस की पूरी सियासी जमीन पर कब्जा नहीं करना चाहते बल्कि बाकी विपक्ष की तरह वे भी यही मानते हैं कि कांग्रेस के मजबूत होने में उनका भी हित है. दूसरे, यह उसके वर्तमान नेता राहुल गांधी के नेतृत्व में नहीं हो पाएगा इसलिए उसे परिवर्तन लाना होगा. यह वैसा ही है जैसे किसी कंपनी के शेयरधारकों ने बगावत कर दी हो और वे उसके मैनेजमेंट पर कब्जा न करके उसे बदलने का आह्वान कर रहे हों.

भारत की सभी गैर-भाजपा पार्टियां और वे भी जो एनडीए के तंबू में हैं मगर तवज्जो न दिए जाने के कारण असंतुष्ट हैं, भाजपा से नाराज हैं लेकिन अकेले दम पर कोई भी उसका मुकाबला करने की ताकत नहीं रखती. न ही वे ऐसा सत्ता संतुलन बहाल करने की क्षमता रखती हैं ताकि केंद्र के साथ मोल-तोल कर सकें या फिलहाल सबसे अहम यह कि भाजपा ‘एजेंसियों’ का जिस तरह इस्तेमाल कर रही है उसमें सुधार ला सकें.

अपने-अपने राज्य में तो वे भाजपा पर लगाम लगाने में सक्षम हैं लेकिन उन्हें मालूम है कि राष्ट्रीय स्तर पर उनमें से आधा दर्जन पार्टियां भी एकजुट हो जाएं तो उन्हें एक-एक करके निपटा दिया जाएगा. चुनौती यह है कि उनके मूल में ऐसी पार्टी हो जिसकी मौजूदगी कई राज्यों में हो. ऐसी पार्टी केवल कांग्रेस ही है. इसलिए उन्हें कांग्रेस की सख्त जरूरत है. संक्षेप में कहें तो, भारत में विपक्ष के लिए समस्या कांग्रेस के आकार की है.


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कोई भी राजनीतिक शक्ति कड़े सवाल पसंद नहीं करती. राजनीति में आम तौर पर जिसे आत्मनिरीक्षण, आंतरिक बहस, चिंतन-मंथन कहा जाता है वह सब आज की पार्टियों में और भी मुश्किल हो गया है क्योंकि वे सब, बिना किसी अपवाद के व्यक्ति या परिवार की जागीर जैसी हैं.

इसलिए सबसे पहली कोशिश यही होती है कि नेता की बात सुनो, खबरदार करने वाले को खारिज करो. उदाहरण के लिए, फिलहाल कांग्रेस पर ही नज़र डालिए. संसद का अस्त-व्यस्त सत्र शुरू हो गया है और उसकी तोपें नरेंद्र मोदी से हट कर प्रशांत किशोर की ओर मुड़ गई हैं.

इस तरह की बहस में न कोई जीतता है और न कोई हारता है. लेकिन यह भी है कि आंकड़ों की सच्चाई को बदला नहीं जा सकता, चाहे वे कितनी भी कड़वी क्यों न हों. आंकड़े कांग्रेस के पक्ष में दिखते हैं. लगातार दूसरी बार भाजपा से मात खाने के बावजूद उसने अपने पक्के 20 फीसदी वोट बचाए रखे हुए हैं. यह भाजपा को छोड़कर किसी भी चार पार्टी के कुल वोट से ज्यादा है, चाहे ये चार पार्टियां आप एनडीए से चुनें या यूपीए से. यही वजह है कि जिन पार्टियों को हम मजाक में ‘भाजपा पीड़ित समाज’ का बताते हैं वे चाहती हैं कि कांग्रेस मजबूत हो.

ममता बनर्जी और प्रशांत किशोर अगर यह मान बैठे हों कि वे देश भर में तृणमूल कांग्रेस के पक्ष में ऐसी लहर पैदा कर देंगे कि कांग्रेस के करीब 13 करोड़ पक्के मतदाता उसकी ओर मुड़ जाएंगे तो वे मुगालते में होंगे. इसी तरह अब वे यह भ्रम भी नहीं पालते होंगे कि गांधी परिवार अपनी पार्टी में जान फूंक देगा और भाजपा के स्पष्ट बहुमत के लिए खतरा पैदा कर देगा. इसलिए वे चाहते हैं कि कांग्रेस नए नेतृत्व के हाथ में जाए या वह खुद को 13 करोड़ वोटों की शुरुआती पूंजी वाले ‘स्टार्ट-अप’ के रूप में देखे जिसका नया मैनेजमेंट बेशक उनके हाथ में हो.

कांग्रेस के आंकड़ों को दूसरी तरह से भी देखा जा सकता है. यह याद रखा जाए कि लोकसभा में उसके मात्र 53 सांसद हैं यानी कुल सीटों के 10 प्रतिशत से भी कम, हालांकि उसके पास 2014 में मिली सीटों से नौ सीटें ज्यादा हैं. इन आंकड़ों को और तरह से देखें तो मुश्किल और बढ़ जाएगी.

कांग्रेस को सीटें कहां से मिलती हैं? केरल से 15 और पंजाब से 8. ये दोनों उसे अपने बूते मिलती हैं. इसके बाद 8 सीटें तमिलनाडु से मिलती हैं- मुख्यतः वहां के ‘बड़े भाई’ द्रमुक की वजह से. इसके बाद इसका स्कोरकार्ड उस क्रिकेट टीम के जैसा है, जो 53 रन पर आउट हुई हो. असम और तेलंगाना से तीन-तीन सीटें, छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल से दो-दो और बाकी 12 राज्यों से एक-एक सीट.

इसलिए 20 फीसदी वोट के उस उल्लेखनीय आंकड़े के नीचे यह बदनुमा सच छिपा है कि पार्टी केरल छोड़कर किसी राज्य में दहाई के आंकड़े में सीटें नहीं हासिल कर पाई. अब, क्या वह नये चुनाव में बेहतर प्रदर्शन करने की उम्मीद कर सकती है? केरल में फिर वैसा ही प्रदर्शन करना एक चुनौती होगी. तमिलनाडु में वह द्रमुक की मर्जी की मोहताज होगी, पंजाब में वह टूट चुकी है, तो तेलंगाना, पश्चिम बंगाल और असम में और कमजोर हो गई है.


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सबसे कड़वी सच्चाई यह है कि देश की लगभग किसी भी विपक्षी पार्टी के विपरीत कांग्रेस किसी राज्य की ‘मालिक’ नहीं है. दो महीने पहले तक वह पंजाब के बारे में ऐसा दावा कर सकती थी लेकिन इस दावे को गंवाने के लिए उसने काफी मशक्कत की.

इसकी तुलना में पश्चिम बंगाल अगर तृणमूल कांग्रेस का है, तो तमिलनाडु स्टालिन का. ये दोनों बड़े राज्य हैं, जो लोकसभा में करीब 40 सांसद भेजते हैं. केरल को कांग्रेस विधानसभा-लोकसभा के आधार पर वामदलों और अपने बीच बांटती है इसलिए वह राज्य उसका नहीं है. इसके अलावा वह और किसी राज्य में इस स्थिति की करीब भी नहीं पहुंचती. महाराष्ट्र में यह जहर का प्याला पीकर शासक गठबंधन के साथ है लेकिन उसके तीन घटकों में सबसे कमजोर है.

वाई.एस. जगन मोहन रेड्डी और केसीआर अपने-अपने राज्य में मजबूत हैं. महाराष्ट्र में ठाकरे का रुतबा बढ़ा है, छत्तीसगढ़ में कांग्रेस को मात्र दो लोकसभा सीटें मिली हैं और राजस्थान में एक भी नहीं जबकि इन दोनों राज्यों में वह सत्ता में है.

उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, मध्य प्रदेश, हरियाणा, उत्तराखंड, झारखंड, छत्तीसगढ़, ओडिशा, हिमाचल प्रदेश और पश्चिम बंगाल की कुल 286 सीटों में से इसे मात्र 10 सीटें हासिल हुई हैं. अतीत में यह इन सभी राज्यों में एक से ज्यादा बार राज कर चुकी है, कुछ में तो 1989 के बाद भाजपा के उभार के बावजूद.

लेकिन यह कहना गलत होगा कि कांग्रेस का कोई महत्व नहीं रह गया है. बेशक, एक मिनट के लिए भी ऐसा न मानने वालों में भाजपा वाले ही हैं. इसलिए नरेंद्र मोदी ने संविधान दिवस पर संसद में दिए अपने भाषण में कहा कि वंशवादी राजनीति लोकतंत्र के लिए एक खतरा है.

यह कहना भी गलत होगा कि कांग्रेस में कोई वैचारिक आकर्षण नहीं रह गया है कि किसी भी दल का कोई भी शख्स उस पर भरोसा नहीं करता. अगर ऐसा न होता तो और कई लोग भाजपा में चले गए होते और कई दूसरे लोग राष्ट्रीय स्तर पर अभी भी हाशिये पर स्थित तृणमूल कांग्रेस जैसी पार्टियों में चले गए होते.

लेकिन कांग्रेस वालों का यह सोचना आत्मघाती ही होगा कि मतदाता मोदी को वोट देने और दोबारा सत्ता में वापस लाने के लिए ‘अंततः’ सामूहिक अफसोस करेंगे. अगर वे यही उम्मीद करते रहेंगे, तो आंकड़ों के संकेत पर गौर कीजिए. 2014 और 2019 के आम चुनावों में उन सभी सीटों पर जिनमें वह भाजपा को सीधी चुनौती दे रही थी, उन 186 सीटों में वह केवल 15 ही जीत पाई जबकि भाजपा बाकी 92 प्रतिशत सीटें जीत गई थी. यही बात उन लोगों को डराती है, जो मोदी के खेमे में नहीं हैं.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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