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Thursday, 25 April, 2024
होममत-विमतगुजरात से लेकर मध्य प्रदेश तक, कोविड की लड़ाई में भाजपा के मुख्यमंत्री पीएम मोदी को नीचे गिराने में लगे हैं

गुजरात से लेकर मध्य प्रदेश तक, कोविड की लड़ाई में भाजपा के मुख्यमंत्री पीएम मोदी को नीचे गिराने में लगे हैं

भाजपा के नेतागण जनता की याददाश्त को लेकर चिंतित नहीं हैं, उन्हें भरोसा है कि मोदी अपनी पसंद का समय चुन कर एक नया आख्यान गढ़ देंगे, और जनता भी उन्हें उसी तरह माफ कर देगी जैसे उसने नोटबंदी के बाद किया था.

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कोरोना की महामारी के बावजूद भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के समर्थकों के लिए खुश होने के तीन-तीन कारण हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता अपने चरम पर है, गृह मंत्री अमित शाह नेपथ्य से पार्टी को चला रहे हैं, और विपक्ष हमेशा की तरह बिखरा हुआ है. फिर भी भाजपा के समर्थक खुश नहीं दिख रहे.

उन्हें यह बात खटक गई कि पिछले सप्ताह प्रधानमंत्री मोदी दूसरी बार लॉकडाउन बढ़ाने की घोषणा करने के लिए राष्ट्र के नाम संदेश देने नहीं आए, यह काम उन्होंने गृह मंत्रालय के जिम्मे डाल दिया कि वह इसके लिए प्रेस विज्ञप्ति जारी कर दें. सत्ताधारी खेमे में यह धारणा मजबूत हो रही है कि अगर महामारी जारी रही तो तमाम जोशीली बातें, वाहवाहियां, ताली-थाली-दीया धरे रह जाएंगे और भाजपा से लोगों के मोहभंग को रोका नहीं जा सकेगा. मोदी सरकार ‘जान है तो जहान है’ के बहाने जिंदगी या आजीविका के बीच चुनने का जो विकल्प प्रस्तुत कर रही है उसकी निरर्थकता जनमानस में वर्षों तक कड़वी याद बनकर रह जा सकती है.

वैज्ञानिक पत्रकार और लेखिका लॉर स्पीन्नी ने 2017 में प्रकाशित अपनी किताब ‘पेल राइडर : द स्पैनिश फ्लू ऑफ 1918 ऐंड हाउ इट चेंज्ड द वर्ल्ड’ में लिखा है— ‘हम युद्धों को कुछ दिनों तक याद रखते हैं, फिर धीरे-धीरे उन्हें भूल जाते हैं; जबकि महामारियों को भूल जाते हैं और फिर धीरे-धीरे उन्हें याद रखने लगते हैं.’ वैसे, भाजपा के नेतागण जनता की याददाश्त को लेकर चिंतित नहीं हैं. उन्हें भरोसा है कि मोदी अपनी पसंद का समय चुन कर एक नया आख्यान गढ़ देंगे, और जनता भी उसी तरह माफ कर देगी और सब कुछ भूल जाएगी जैसे उसने नोटबंदी के बाद किया था. आखिर, लोकसभा चुनाव चार साल दूर है.

भाजपा मुख्यमंत्रियों का फीका कामकाज

पार्टी के लिए चिंता की वजह यह है कि उसके मुख्यमंत्री वक़्त की मांग के मुताबिक काम न कर पाए और संकट का कामयाबी से सामना करके मोदी के दूत न बन पाए. जो मुख्यमंत्री सचमुच कोरोना-योद्धा बनकर उभरे उनमें अधिक संख्या गैर-भाजपाई मुख्यमंत्रियों की ही है—केरल के पिनराई विजयन, ओडीशा के नवीन पटनायक, महाराष्ट्र के उद्धव ठाकरे, राजस्थान के अशोक गहलोत, पंजाब के अमरिंदर सिंह, छतीसगढ़ के भूपेश बघेल, तमिलनाडु के एडाप्पड़ी पालनीस्वामी. भाजपा के केवल सर्वानंद सोनोवाल (असम), मनोहरलाल खट्टर (हरियाणा) ही बेहतर काम करके दिखा पाए.


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वैसे, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने ‘प्रदेश की 23 करोड़ जनता के प्रति कर्तव्यबोध के कारण‘ अपने पिता की अन्त्येष्टि में न जाने का जो फैसला किया उसकी काफी प्रशंसा हुई. प्रदेश में कोविड-19 पॉजिटिव मामलों की संख्या भी अपेक्षाकृत कम है. लेकिन उनके कामकाज पर सबकी नज़र बनी हुई है क्योंकि उनके प्रदेश में टेस्टिंग अभी कुछ दिनों पहले ही शुरू की गई है. 25 अप्रैल के आंकड़े के मुताबिक, उत्तर प्रदेश में प्रति 10 लाख आबादी पर टेस्टिंग का औसत देश में सबसे नीचा था— 483 के राष्ट्रीय औसत के मुक़ाबले मात्र 246. 2 मई के आंकड़े के मुताबिक, प्रदेश में टेस्टिंग का औसत 425 था जबकि राष्ट्रीय औसत 758 था. कोविड-19 से लड़ने का बहुप्रचारित ‘आगरा मॉडल’ फिसड्डी साबित हुआ है. अब आदित्यनथ पर इस संकट का ‘संप्रदायीकरण’ करने का आरोप लगाया जा रहा है क्योंकि लखनऊ में कोरोना के हॉटस्पॉट की नाम उन इलाकों की मस्जिदों के नाम पर रखे गए हैं.

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इसके मुख्यमंत्रियों का कामकाज भाजपा के लिए चिंता का कारण होना चाहिए, क्योंकि मतदाता लोकसभा और विधानसभाओं में अलग-अलग तरीके से मतदान करने लगे हैं, नेता नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी में फर्क करने लगे हैं. राज्यों में भाजपा ने कोविड-19 का जिस तरह मुक़ाबला किया है उससे उसके गौरव में कोई इजाफा नहीं हुआ है. मध्य प्रदेश में उसका सामना इस आरोप से है, और यह सही भी है, कि उसने जनता के स्वास्थ्य की कीमत पर, जिससे कई जानें जा सकती हैं, सत्ता की राजनीति को तरजीह दी.

भाजपा-शासित गुजरात ने सबसे ज्यादा मौतों का संदिग्ध रेकॉर्ड बनाया है. शुक्रवार तक वहां कोरोना के 4721 पक्के मामलों में से 236 की मौतें हो चुकी थीं. मेरे साथी सिमरन सिरुर और प्रवीण जैन ने पिछले सप्ताह अहमदाबाद से जो खबर भेजी है उसके मुताबिक सरकार के प्रयास बेहद नाकाफी हैं. जब राज्य सरकार का पूरा ध्यान कोविड-19 से लड़ने पर होना चाहिए था, वह ‘नमस्ते ट्रंप’ के आयोजन में व्यस्त थी और इसके बाद वह दलबदल करवाने में व्यस्त हो गई थी ताकि राज्यसभा की एक सीट कांग्रेस न झटक ले जाए.

कर्नाटक के मुख्यमंत्री बी.एस. येद्दियुरप्पा ने कोविड-19 से कुछ बेहतर मुक़ाबला किया लेकिन गलत कारणों से सुर्खियों में रहे— उनके एक मंत्री बी. श्रीरामुलु ने अपनी बेटी की शादी पर शानदार आयोजन किया, मुख्यमंत्री भाजपा के एक विधायक के बेटे की शादी में जा पहुंचे, राज्य सरकार ने पूर्व मुख्यमंत्री एच.डी. कुमारस्वामी को अपने बेटे की शादी का समारोह करने की इजाजत दे दी, राज्य के मंत्रियों के बीच कलह हुई, केरल के साथ सीमा विवाद हुआ, आदि-आदि.

एनडीए-शासित राज्यों में सबसे बुरा हाल बिहार का रहा. पिछ्ले बुधवार को केंद्रीय मंत्री प्रहलाद जोशी के साथ एक वीडियो कान्फ्रेंस में राज्य के भाजपा सांसदों ने कोविड-19 के मामले में राज्य सरकार के अनमने प्रयासों के लिए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पर अपना गुस्सा उतारा. इससे भी बुरा यह कि इन सांसदों ने शिकायत की कि लॉकडाउन के कारण दूसरे राज्यों में फंसे बिहारी मजदूरों और छात्रों को प्रदेश वापस न आने देकर मुख्यमंत्री ने आगामी विधानसभा चुनाव के मद्देनजर एनडीए की साख को भारी धक्का पहुंचाया है. जोशी के इस वीडियो कान्फ्रेंस में भाग लेने वाले एक वरिष्ठ भाजपा ने इस लेख के लेखक से कहा कि ‘बिहारी लोग एक तरफ कुआं (जेडीयू) और दूसरी तरफ खाई (राजद) के बीच फंसे हैं. लेकिन आलाकमान ने फैसला कर दिया है (नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करके), तो अब मोदी जी ही हमारे लिए उम्मीद की एकमात्र किरण हैं.’

भाजपा की आलाकमानवादी संस्कृति का दोष

जो हालात बने हैं उनके लिए मुख्यमंत्रियों को दोष देना बहुत आसान है लेकिन क्या वे सचमुच दोषी हैं?
गुजरात को वहां के मुख्यमंत्री विजय रुपाणि के चीफ प्रिंसिपल सेक्रेटरी के. कैलाशनाथन के, जो मोदी के करीबी हैं, जरिए दिल्ली से चलाया जा रहा है. मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान ने कांग्रेस सरकार का तख़्ता पलटने में अगुआई की, लेकिन कोविड-19 से लड़ाई में उनके हाथ बंधे नज़र आते हैं. राज्य में कोविड-19 के कारण हालात बिगड़ते रहे लेकिन हफ्तों तक ‘सुपर सीएम’ की भूमिका में आने का फैसला उनका अपना नहीं था. वे दिल्ली की सत्ता मंडली में शामिल नहीं थे इसलिए जब कमलनाथ को हटाने का मकसद सध गया तो उन्हें अपने भरोसे छोड़ दिया गया.


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काफी शोरशराबे के बाद चौहान को एक छोटा-सा मंत्रिमंडल दिया गया, लेकिन इससे उनका काम आसान नहीं हुआ है. उन्हें गृह और स्वास्थ्य मंत्रालय नरोत्तम मिश्र को देने पड़े, जो अमित शाह के करीबे माने जाते हैं. भोपाल में जब भाजपा विधायक दल के नेता का चुनाव हो रहा था तब मिश्रा के समर्थक नारे लगा रहे थे— ‘हमारा मुख्यमंत्री कैसा हो, नरोत्तम मिश्र जैसा हो’.

कर्नाटक में येद्दियुरप्पा को गद्दी से अलग नहीं रखा जा सकता था क्योंकि उनकी वजह से ही कुमारस्वामी सरकार का पत्ता साफ हुआ, फिर भी वे मोदी-शाह का भरोसा नहीं जीत पाए हैं. इसके चलते उनकी सरकार में हर कोई अपनी मर्जी चला रहा है. बिहार में, अमित शाह ने नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया था. राज्य के भाजपा नेता आज चाहे जितना गुस्सा जाहिर करें, उन्हें हालत को कबूल करना पड़ेगा और यह उम्मीद रखना पड़ेगा कि लालू यादव के ‘जंगल राज’ का डर नीतीश कुमार की अक्षमता और बढ़ती आलोकप्रियता की भरपाई करेगा.

अब आगे क्या?

एनडीए के कुछ मुख्यमंत्री कोविड-19 से लड़ने में कमजोर साबित होते हैं तो क्या इससे फर्क पद सकता है? ऊपर से लगता है कि नहीं पड़ेगा. कम-से-कम मोदी को तो नहीं पड़ेगा, क्योंकि कोरोना संकट में उनकी लोकप्रियता बढ़ी ही है. वे मजबूती से डटे हुए हैं, उनका कोई विश्वसनीय प्रतिद्वंद्वी नज़र नहीं आता. लेकिन यह संकट भाजपा के तेज पतन का कारण बन सकता है, जो दिसंबर 2018 में राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ में उसकी हार से शुरू हुआ था. अगला विधानसभा चुनाव बिहार में इस्स साल अक्तूबर-नवंबर में होना है. इसके बाद असम, पश्चिम बंगाल, केरल, तमिलनाडु और पुडुचेरी में चुनाव होंगे. इनमें से अंतिम तीन राज्य भाजपा के लिए महत्व नहीं रखते क्योंकि उनमें उसका कोई दावा नहीं है. असम में उसकी स्थिति अच्छी है, जहां कोरोना अभी बड़े संकट के रूप में सामने नहीं आया है.

लेकिन एनडीए-शासित बिहार और तृणमूल कांग्रेस के पश्चिम बंगाल के चुनाव भाजपा के लिए काफी महत्वपूर्ण हैं. बिहार में विपक्ष जिस तरह बिखरा हुआ है और जातीय समीकरण भाजपा के काफी अनुकूल है, इसलिए वहां के चुनाव नतीजे यह पहला संकेत देंगे कि कोरोना संकट से निबटने में मोदी सरकार के प्रयासों पर किस तरह की चुनावी मुहर लगने वाली है. पश्चिम बंगाल में केंद्र सरकार और राज्यपाल जगदीप धनकड़ ने ममता बनर्जी सरकार की पोल अच्छी तरह खोली है कि वह कम टेस्टिंग, आंकड़ों में हेरफेर के जरिए कोरोना संकट किस तरह हल्के में ले रही थी. इसके बाद इस संकट के मामले में राज्य सरकार के प्रयासों में भारी बदलाव आया है.


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2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने पश्चिम बंगाल की 42 में से 18 सीटें जीत कर अपेक्षा से कहीं ज्यादा प्रदर्शन किया था, लेकिन गौर करने वाली बात यह है कि ‘मोदी लहर’ के बावजूद ममता अपना गढ़ बचा ले गई थीं. 2021 के विधानसभा चुनाव में वहां भाजपा का कोई स्थानीय चेहरा नहीं होगा. इसलिए पश्चिम बंगाल चुनाव के नतीजे एक और संकेत देंगे कि कोविड-19 पारंपरिक चुनावी समीकरण में उथलपुथल ला सकता है या नहीं.

अगर कोविड-19 संकट के कारण नीतीश और ममता जैसे क्षेत्रीय महारथी पराजित हो जाते हैं, तब भाजपा और मोदी सरकार को अपनी राजनीति और शासन शैली को बदलने पर मजबूर होना पड़ेगा.

(लेख उनका निजी विचार है)

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