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Wednesday, 24 April, 2024
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हालात सामान्य हैं पर सबको लॉकडाउन करके रखा है, मोदी सरकार ने कैसे देश को अक्षम बनाने का जोखिम उठाया है

भारत को धीरे-धीरे अपने कामकाज पर लौटाने की जरूरत थी, बजाय कि देश को लॉकडाउन की मूर्छा से बाहर न निकालकर रेड, ग्रीन, ऑरेंज जोन में सेलेक्टिव तौर पर खोलने की.

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आखिर, लॉकडाउन अपने मकसद में कितना कामयाब रहा? अगर इसे इतनी संपूर्णता से लागू न किया गया तो हालात कितने बुरे हो सकते थे?

138 करोड़ लोग, जिनमें अधिकांश गरीब हैं, इस देश के मामले में आप जोखिम कैसे ले सकते हैं? क्या प्रधानमंत्री ने यह नहीं कहा था कि ‘जान है तो जहान है?’ जान तो बेशक है. भारत में कोरोनावायरस से प्रति 10 लाख की आबादी पर मरने वालों का औसत किसी बड़े देश के इस औसत के मुक़ाबले सबसे नीचा है. इसलिए, आप अपने चुने हुए भगवान को धन्यवाद दीजिए कि अब तक सब ठीकठाक रहा है. इसलिए घर के अंदर बंद हो जाइए. क्या सचमुच?

हम जान बचाने की कोशिशों में जुटे हैं, लेकिन हमारा जहान, हमारी आजीविका ठंडे बस्ते में पड़ी है. कई-कई भारतीयों के लिए वह जहान जल्दी वापस लौटने वाला नहीं दिख रहा है. 1991 के बाद जो दसियों करोड़ लोग गरीबी से बाहर निकले थे वे फिर उसी गर्त में गिरने की कगार पर पहुंच चुके हैं. हम बेशक जिंदा हैं लेकिन अमिताभ बच्चन की 1979 की हिट फिल्म ‘मिस्टर नटवारलाल’ के मशहूर डायलॉग को याद करें तो कह सकते हैं कि ‘ये जीना भी कोई जीना है लल्लू?’


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या मैं आपको हिंदी सिनेमा के पांच दशक पहले के दौर में ले जाकर कविता की मदद से ही अधिक विस्तृत विवरण देने की कोशिश करता हूं. गोपालदास नीरज (1925-2018) को गहरे विषाद का कवि माना जाता रहा है लेकिन उन्होंने ऐसे रोमानी गीत भी लिखे, जो पीढ़ियों की सीमा तोड़ डालते हैं. शशि कपूर के लिए उन्होंने ‘कन्यादान’ फिल्म (1968) में ‘लिक्खे जो खत तुझे…’ लिखा, तो देवानंद के लिए ‘प्रेम पुजारी’ (1970) ‘फूलों के रंग से…’ गाना लिखा.

लेकिन उन्हें अमर कर देने वाला गीत उनके उदासी भरे गीतों में से ही एक है— ‘कारवां गुजर गया, गुबार देखते रहे….’ तनुजा की 1966 की फिल्म ‘नयी उम्र की नयी फसल’ फिल्म के लिए लिखा गया यह गीत रोशन के संगीत निर्देशन में मोहम्मद रफी ने गाया है. उपेक्षित, पराजित प्रेमी की पीड़ा को अभिव्यक्त करने वाला इससे बेहतर गीत शायद ही कोई दूसरा होगा. यह उतना उदासी भरा था कि उन दिनों जब मैं स्कूल में पढ़ता था, इसकी कई तरह की पैरोडी सुना करता था. उनमें से एक, जो सबके सामने कहा जा सकता है वह यह था—‘मर गया मरीज, हम बुखार देखते रहे…’

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मुझे मालूम है कि बुखार और कोरोनावायरस के बीच क्या रिश्ता है, और मुझे यह भी पता है कि मुझ पर यह आरोप लगाया जाएगा कि मैं सदियों में कभी-कभार होने वाली ऐसी महामारी को हल्के में ले रहा हूं. लेकिन बिना सोचे-विचारे एक ही तरह से लॉकडाउन को जारी रखने का नतीजा वही हो सकता है जो ऊपर पैरोडी में बताया गया है. अगर वायरस से हम बच भी गए तो बेरोजगारी, भूख, हताशा, अवसाद, आत्मविश्वास का डिगना हमें जिंदा नहीं छोड़ेगा. क्वारंटाइन को हम मृत्युशैय्या न बनने दें!

सरकार ने लॉकडाउन को दो सप्ताह और बढ़ाने तथा पूरे देश को अलग-अलग रंगों से रंगकर रंगों के मुताबिक अलग-अलग सीमित छूट देने का जो ताज़ा फैसला किया है वह यही बताता है कि हालात जल्दी बदलने वाले नहीं हैं.

बहुत पुरानी कहावत है— निरंकुश सत्ता निरंकुश भ्रष्टाचार को जन्म देती है. किसी भी देश, किसी भी व्यवस्था का इतिहास देख लीजिए. निरंकुश सत्ता आपको निरंकुश रूप से मदोन्मत्त भी करती है.

यही वजह है कि केंद्र सरकार न केवल राज्यों के छोटे-छोटे मामलों को भी अपने हाथ में ले रही है, बल्कि व्यक्तियों की रोजाना की जिंदगी को भी नियंत्रित कर रही है. लोगों पर इस तरह के सम्पूर्ण नियंत्रण का यह नतीजा भी सामने आ सकता है कि कई नौकरशाह मिनी रॉबर्ट मुगाबे की तरह व्यवहार करने लगें.

हरियाणा को ही देखिए. वहां एक आला पुलिस अधिकारी ने कैमरे के सामने घोषणा कर दी कि राज्य के जिले पत्रकारों और डॉक्टरों समेत सबके लिए सील किए जा रहे हैं. अब उनको कौन बताए कि उस राज्य ने बड़े गर्व से अपने यहां मेडीसिटी बनाई है जहां कई बड़े अस्पताल चल रहे हैं और सैकड़ों मरीज, डॉक्टर, स्वास्थ्य कर्मचारी रोज दिल्ली से वहां आते-जाते हैं.

जिस जिले के बारे में दावे किए जाते हों कि वह भारत की तीसरी ‘सिलिकन वैली’ है, उसे लॉकअप करना राज्य सरकार की सनक ही मानी जा सकती है, जबकि वह दिल्ली और राजस्थान के बीच आवाजाही के रास्ते पर भी है. निरंकुश सत्ता किसी शासन को किस तरह सनकी बना सकती है, इसका यह उदाहरण क्या आपको बकवास लगता है?

कृपा करके ‘दप्रिंट’ की रिपोर्टर ज्योति यादव की यह रिपोर्ट पढ़िए कि कोरोनावायरस को दिल्ली में ही रोके रखने के लिए हरियाणा शासन दिल्ली की सीमा पर अच्छी-ख़ासी सड़कों को किस तरह खुदवा रहा है. खाई खोदना बहुत अच्छा कदम है. क्या पता वायरस टी-72 टैंक पर सवार होकर न पहुंच जाए!

इस संकट से उबरने के लिए भारत के पास अमेरिका (जिसके पास दुनिया में मुद्रा का सबसे बड़ा भंडार है) की तरह नकदी नहीं है, न ही इतनी वित्तीय गुंजाइश है कि वह नोट छाप सके लेकिन उसके पास थलसेना, नौसेना और वायुसेना तो है न, जो आपके जज्बे में जान डाल दे.

इसकी मिसाल भी आपको जल्दी ही दिख जाएगी. वायुसेना के लड़ाकू विमान फ्लाइपास्ट करेंगे, सेना के बैंड धुन बजाएंगे और कोरोना के मरीजों का इलाज कर रहे अस्पतालों पर हेलिकॉप्टर से फूल बरसाए जाएंगे. यह सब अक्षय कुमार की किसी फिल्म के लिए बहुत अच्छा नज़ारा बन सकता है, लेकिन जब रोजगार की सबसे निचली सीढ़ी पर जी रहे लाखों बदहाल मजदूर हजारों मील दूर अपने घरों की ओर लौटने के लिए पैदल चल पड़े हों, तब यह सब ऐसा ही है मानो 2020 में कोई 18वीं सदी के फ्रांस की महारानी की तरह यह कह रहा हो— ‘… तो उन्हें केक खाने को कहो!’

जबकि जरूरत उन्हें अपना जीवन नये और बेहतर सिरे से शुरू करने का मौका उपलब्ध कराने और यह भरोसा दिलाने का है कि उनका रोजगार तो नहीं ही छिनेगा बल्कि वे फिर से शुरुआत कर सकेंगे, उनकी जरूरत है. क्या यह फ्लाइपास्ट सामूहिक पलायन का जश्न मनाने के लिए होगा? मुझे तो यह अश्लीलता ही लगती है.

वियतनाम युद्ध के दौरान अमेरिकी फौज जो ब्रीफिंग करती थी उसे पत्रकारों ने ‘फाइव ओ क्लॉक फॉलीज़’ (5 बजे की मूर्खताएं) नाम दिया था. ऐसी चीज़ें तभी होती हैं जब शासन तंत्र लोगों को नासमझ बच्चा समझने लगता है.

इन दिनों नयी दिल्ली में स्वास्थ्य मंत्रालय देश में कोरोना महामारी की स्थिति के बारे में रोज जो ब्रीफिंग करता है, उस पर नज़र डालिए. यह इतना नीरस, उबाऊ और सवालों से कतराने वाला होता है कि आप इसे ‘4 बजे की मूर्खताएं’ नाम दे सकते हैं.

इनमें केवल कोरोना संक्रमण के नये मामलों और मौतों के आंकड़े देकर यह जताया जाता है कि हर दिन हम बाकी दुनिया के मुक़ाबले कितना अच्छा काम कर रहे हैं. एक दिन मैं भी इस ब्रीफिंग में पहुंच गया था, और पीआईबी की ब्रीफिंग में शायद दो दशक बाद शामिल हुआ था.

मैंने एक सवाल भी पूछा था— ‘तमाम एक्टिव मामलों में से वेंटिलेटर पर कितने हैं?’ इसका जवाब वहां बैठे एकमात्र वैज्ञानिक/डॉक्टर ने नहीं बल्कि एक प्रशासनिक अधिकारी ने दिया. उसका जवाब यह था कि गंभीर रूप से संक्रमित मरीजों का प्रतिशत आईसीएमआर/स्वास्थ्य अधिकारी नियमित तौर पर बताया करते हैं. उसने और किसी अगली कार्रवाई के बारे में या और कोई जानकारी नहीं दी, बस नौकरशाहों वाली पुरानी चाल—’मैं आपसे कभी झूठ नहीं बोलूंगा लेकिन आप अगर मेरा नाम पूछेंगे तो मैं अपना जन्मदिन बताऊंगा.’

भारत में कोविड-19 का पहला मामला सामने आने के 3 महीने बाद हमें सिर्फ रोज का स्कोर नहीं चाहिए. यह तो कोई भी दिन के एक निश्चित समय पर ट्वीट करके बता सकता है. और न हमें रोज किसी स्पष्टीकरण की या यह बताने की जरूरत है कि हम क्या करें और क्या न करें. मसलन एक स्पष्टीकरण (शराब की बिक्री के मामले में) आ भी चुका है, और यह इस सच्चाई की ही पुष्टि कर रहा है कि जब तक स्पष्टीकरण ना आ जाए तब तक इस सरकार की किसी बात पर यकीन ना करें.

हमें तो यह बताइए कि आगे का, सामान्य स्थिति की ओर लौटने का रास्ता कौन-सा है. या हम भिखारियों का देश बनने जा रहे हैं, जहां अपना वजूद बचाने के लिए माई-बाप सरकार के आदेशों और अनुग्रहों का इंतज़ार करना पड़े? हम तो इसी बात पर फिदा हैं कि हर मर्ज की एक दवा के तौर पर बिना सोचे-विचारे लॉकडाउन का जो तुगलकी फरमान लागू किया जा रहा है उसका भारत के लोग कितने उत्साह से पालन कर रहे हैं.


यह भी पढ़ेंः कोविड भारत में अभी वायरल नहीं हुआ पर देश और दुनिया में कुछ लोग सच्चाई को स्वीकार नहीं कर पा रहे


दरअसल, हम इसलिए आज्ञाकारी बने हुए हैं कि हम डरे हुए हैं. भय, भाग्यवाद, और आत्मदया ऐसे वायरस हैं जो कोरोनावायरस से भी ज्यादा संक्रामक, विनाशक और हठीले हैं. 138 करोड़ लोगों के जिस देश की महत्वाकांक्षा, उद्यमशीलता की तारीफ दुनियाभर में होती है, वह आज इस एहसान के कुएं में दुबका हुआ है कि उसकी जान बची हुई है.

हमें मालूम है कि बेहद गंभीर हालत में पहुंचे मरीज को मेडिकल उपाय करके बेहोश कर दिया जाता है ताकि उसका शरीर स्वस्थ हो सके. लेकिन उसे जितनी जल्दी हो सके, बेहोशी से बाहर लाना भी जरूरी होता है. उसे बेहोश करके आप उसका बुखार ही नापते रहें और अपनी पीठ थपथपाते रहें, तो नीरज के गीत की तर्ज पर कहीं ऐसा न हो कि ‘मर गया मरीज, हम बुखार देखते रहे…’

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें )

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3 टिप्पणी

  1. यही पत्रकारिता हैं , वाजिब सवालों को जनता के समक्ष लाना और सरकारों को दबाव में बनाए रखना की आपको सहि दिशा में प्रयास करने ही होंगे .
    कलम की कारीगरी नहीं आती जनता को , वो समझ और ताक़त आप जैसों के पास हैं. हर दौर में निर्णय आप ही लोगों का होता हैं — आवाम को चुनना हैं या सरकारों की सरपरस्ती
    निर्भीक पत्रकारिता.

  2. Sir door se baith akr reporting Kar ke sarkar ki galti nikalana asan hai…lekin yadi log hazaro ki sankhya Mai bimari we Karne lage to aap for Rona roynhr ki sarkar logo ko mar rahhi hai…to samay ka intzar akro jab karorna Chala jayga tab economy. B boost karegi….

  3. हर बात में आपको मोदी जी को क्यों कोसना होता है, कई राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने भी यही सुझाव दिया था उनपे आपने टिप्पणी क्यों नहीं की?? और अपने अपने राज्यों में लॉकडाउन बढ़ाया भी है, कई विशेषज्ञ कह रहे हैं कि मई सबसे महत्वपूर्ण महीना है तो इसमें ढील नही दी जा सकती

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