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Sunday, 5 May, 2024
होममत-विमतलॉकडाउन का पूरा श्रेय तो मोदी ले जायेंगे, पर इसे खोलने के जोखिम में वो राज्यों की हिस्सेदारी चाहते हैं

लॉकडाउन का पूरा श्रेय तो मोदी ले जायेंगे, पर इसे खोलने के जोखिम में वो राज्यों की हिस्सेदारी चाहते हैं

राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन के अपने 24 मार्च के फैसले के लिए सराहे गए प्रधानमंत्री मोदी को मालूम है कि लॉकडाउन बढ़ाना हो या उसमें ढील देना, दोनों ही फैसलों से कोई खास राजनीतिक लाभ नहीं मिलने वाला है.

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कोरोनवायरस संकट से निपटने के लिए राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन के अपने 24 मार्च के फैसले के लिए सराहे गए प्रधानमंत्री मोदी को मालूम है कि लॉकडाउन बढ़ाना हो या उसमें ढील देना, दोनों ही फैसलों से कोई खास राजनीतिक लाभ नहीं मिलने वाला है. मार्च में राष्ट्र के नाम संदेश के ज़रिए लॉकडाउन की उनकी घोषणा कविता के समान संक्षिप्त थी. इसके विपरीत मई में इसकी अवधि बढ़ाए जाने और इसके तहत नई रियायतें दिए जाने की घोषणा विस्तृत गद्य के रूप में आई है -सरकारी अधिसूचनाओं, आदेशों और दिशा-निर्देशों के रूप में. केंद्र और राज्य सरकारों के निर्देशों को मिलाकर देखें तो आखिरी गिनती तक तकरीबन 3,940 निर्देश आ चुके थे.

तो, अब फैसला राज्यों पर छोड़ दिया गया है कि वे तय करें कि चरणबद्ध तरीके में लॉकडाउन को कब और कहां हटाना है. आप इसे भारत की संघीय व्यवस्था में मोदी के भरोसे के रूप में देखें या उनके निर्विवाद राजनीतिक बुद्धिमता के तौर पर.

मोदी जैसा स्मार्ट राजनेता सबसे बड़े स्वास्थ्य और आर्थिक संकट के दौरान अपनी लोकप्रियता में आए शुरुआती उछाल को खोना नहीं चाहेगा. लेकिन उनके लिए उससे भी अधिक अक्लमंदी है ये जानना कि मंच से दूर हटने, या बाघ से उतरने का सही अवसर कौन-सा है.

यदि प्रधानमंत्री मोदी बहुत लंबे समय तक राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन की अगुआई करते दिखते हैं, तो उन्हें पता है कि उन्हें मिले श्रेय की चमक लॉकडाउन के कार्यान्वयन, संक्रमण के परीक्षण, अस्पताल में उपलब्ध बेड की संख्या, बीमारी का कर्व सपाट करने, आर्थिक क्षति, भूख और बेरोजगारी आदि के बारे में असुविधाजनक सवालों के साथ धीरे-धीरे मंद पड़ने लगेगी.

मोदी को राजनीतिक कीमतों का अहसास है

द इंडियन एक्सप्रेस के पहले पन्ने पर शनिवार को खबर थी कि केंद्र ने ‘ज़ोनों के क्रम बदलने का दायित्व राज्यों पर छोड़ा.’ सेक्टरों और रंगों वाले ज़ोनों के आधार पर पाबंदियों की चरणबद्ध समाप्ति का रोडमैप बनाने का दायित्व अब राज्यों पर आ गया है.

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ऐसा नहीं है कि ये विशुद्ध रूप से राजनीतिक निर्णय हैं. लेकिन इन फैसलों का परिणाम स्वास्थ्य और अर्थव्यवस्था के क्षेत्रों में दिखेगा, इसलिए उनकी राजनीतिक कीमत भी होगी और अहर्निश राजनीति में डूबा मोदी जैसा घाघ नेता इससे अनभिज्ञ नहीं हो सकता.

लोकप्रियता संबंधी सर्वेक्षणों में मोदी अभी भी ऊपर चल रहे हैं, महामारी के दौर में भी जिसके बारे में ट्वीट करने से गृह मंत्री अमित शाह खुद को रोक नहीं पाए. वैसे यह निश्चित रूप से अमेरिकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप द्वारा खुद अपनी रेटिंग की जानकारी ट्वीट करने की तुलना में कम दंभपूर्ण है. जो भी हो, जैसा कि असीम अली और अंकिता बर्थवाल ने दिप्रिंट में लिखा है, भाजपा ने सौ साल की सबसे बड़ी जनस्वास्थ्य आपदा के दौरान भी अपनी राजनीति को विराम नहीं दिया है. निस्संदेह, ये फैसले कैसे लिए जाते हैं और उन्हें कैसे क्रियान्वित किया जाता है, इसमें राजनीतिक गुणा-भाग की भूमिका होगी.


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बोरिस-बोलसोनारो-ट्रंप क्लब

अमेरिका में, डोनल्ड ट्रंप भी इन राजनीतिक जोखिमों को लेकर पसोपेश में हैं. अंतर केवल इतना है वह मोदी से कम सतर्कता बरत रहे हैं. अमेरिका को दोबारा खोलने के लिए बढ़ती अधीरता को देखते हुए, ट्रंप ने चेतावनी भी दी, ‘यदि कुछ राज्य व्यवसायों को खोलने से इनकार करते हैं, तो मैं चाहूंगा कि संबंधित व्यक्ति चुनाव लड़ के दिखाएं.’

यह लॉकडाउन की निश्चित राजनीतिक कीमत की सबसे सार्वजनिक स्वीकारोक्ति थी. लेकिन जल्दबाजी में लॉकडाउन उठाना भी कम जोखिम भरा नहीं है. अनलॉकिंग प्रक्रिया का सही निर्धारण महत्वपूर्ण है. अगर आपकी टाइमिंग और क्रम ठीक नहीं बैठा, तो फिर आप राजनीति परेशानियों के लिए तैयार रहें.

अप्रैल के अंतिम सप्ताह में फ्रांस में हुए एक सर्वे में पता चला कि सख्त लॉकडाउन का समर्थन पहली बार घटकर 50 प्रतिशत से नीचे आ गया है.

अधिकांश अमेरिकी लॉकडाउन जारी रखने का समर्थन करते हैं और वे आमतौर पर इसका विरोध करने वालों के साथ नहीं हैं. हाल के दिनों में इंटरनेट पर सक्रिय कुछ सामाजिक समूहों, जिनमें बंदूक रखने के अधिकार के हिमायती और टीकों का विरोध करने वाले शामिल हैं, ने अमेरिका के पसंदीदा विषय आजादी के नाम पर लॉकडाउन का विरोध करना शुरू किया है. कैलिफोर्निया में, लॉकडाउन हटाया जाए या नहीं, इस बात पर मेयरों और गवर्नर के बीच खुला टकराव हो रहा है.

महामारी के दौरान ब्राज़ील के जायर बोलसोनारो, ब्रिटेन के बोरिस जॉनसन और इटली के जिएसेपे कॉन्टे की लोकप्रियता में भी उछाल आया है.

जोखिमों का पुनर्वितरण

यदि मोदी लॉकडाउन की शेष अवधि और पाबंदियों में फेरबदल संबंधी निर्णय मुख्यमंत्रियों पर छोड़ देते हैं, तो वह एक राष्ट्रीय नेता के रूप में उभरकर सामने आएंगे जिसने समय रहते फैसले किए, स्थिति को काबू में किया और फिर, सच्ची संघीय भावना से, आगे के फैसले बाकियों पर छोड़ दिया.

लॉकडाउन संबंधी शुरुआती भाषण के बाद, मोदी आगे की घोषणाओं में अधिक संघीय और सलाहकारी नज़र आए.

जोखिमों को आगे बांटना, संकट से बाहर निकलने की उनकी रणनीति का हिस्सा हो सकता है. निश्चित रूप से मोदी समर्थक इस बात को उछालेंगे कि उनके आलोचकों को दोनों ही स्थितियों से समस्या होती है, जब फैसले केंद्रीय स्तर पर लिए जाते हों और जब वह इसे राज्यों पर छोड़ते हों. लेकिन यहां बात टाइमिंग की है. भारत को फिर से खोलने का निर्णय राजनीतिक जोखिमों से भरा हुआ है और इसलिए यह साझा निर्णय बन जाता है.

हर तरह से फायदा?

क्या मुख्यमंत्रियों के लिए सभी प्रतिबंधों को हटाना संभव होगा या वे अतिरिक्त सतर्कता बरतेंगे? जिस अधीरता के साथ वे प्रवासी श्रमिकों को अपनी सीमाओं से बाहर करना चाहते हैं (अरविंद केजरीवाल, उद्धव ठाकरे, के. चंद्रशेखर राव) और आवागमन रोकने के लिए जिस तरह सड़कों पर गड्ढे बनाए जा रहे हैं (मनोहरलाल खट्टर), उससे यही संकेत मिलता है कि वे सावधानी बरतेंगे और लॉकडाउन हटाने की जल्दी नहीं करेंगे. खासकर जब लौट रहे प्रवासी पॉजिटिव पाए जा रहे रहे हों और कई राज्यों में ग्रीन ज़ोन कम हो रहे हों.

इंडिया टुडे की 30 अप्रैल की रिपोर्ट के अनुसार, ‘भारत में कोविड-19 हॉटस्पॉट जिलों की संख्या एक पखवाड़े पूर्व के 170 से घटकर 129 हो गई है, लेकिन इसी अवधि में संक्रमण मुक्त जिलों या ग्रीन ज़ोनों की संख्या भी 325 से घटकर 307 रह गई है.’

तमिलनाडु में सिर्फ एक कोरोनावायरस मुक्त ग्रीन ज़ोन है.


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मोदी सरकार ने भले ही लॉकडाउन को आसान बनाने के लिए दिशानिर्देश जारी कर दिए हों. लेकिन उसका क्रियान्वयन राज्यों में रंगों वाले ज़ोनों और मुख्यमंत्रियों के सतर्क फैसलों पर निर्भर करेगा. हालांकि राज्य इस संबंध में अपना हाथ बंधा हुआ पा सकते हैं.

पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने शनिवार को इंडिया टुडे से बातचीत में कहा कि ज़ोन निर्धारित करने का अधिकार खुद राज्यों को मिलना चाहिए, न कि केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय में बैठा कोई अधिकारी ये काम करे.

यदि मौजूदा व्यवस्था काम करती है तो मोदी उसका श्रेय ले सकते हैं, यदि ऐसा नहीं हुआ तो दोष राज्यों और मुख्यमंत्रियों पर मढ़ा जाएगा.

(व्यक्त विचार लेखिका के निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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