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Sunday, 5 May, 2024
होममत-विमत‘नो इंटरनेट, हाई-प्रोपेगेंडा’- दिप्रिंट लेकर आया डिक्टेशन और SMS के जरिए मणिपुर की असली कहानियां

‘नो इंटरनेट, हाई-प्रोपेगेंडा’- दिप्रिंट लेकर आया डिक्टेशन और SMS के जरिए मणिपुर की असली कहानियां

एडिटर्स और पत्रकारों के सामने आने वाली कठिनाई अपने आप में जटिल थी — इग्नोरेंस. आप मणिपुर की ऐतिहासिक कुकी-मैतेई दुश्मनी की जटिलताओं को कैसे व्यक्त करते हैं जो अचानक हिंसक हो गई?

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क्या आप जानते हैं के सोंगजांग क्या है और कहां है? क्वाक्टा के बारे में क्या ख्याल है? क्या आप दोलैथाबी को पहचान सकते हैं? क्या आप कुकी और मैतेई को जानते हैं कि उन्हें क्या-क्या अलग करता है?

आपको सच्चाई बताने के लिए, मुझे इस हिंसक लहर और सरकारी उदासीनता से पहले, केवल आखिरी सवाल का जवाब मालूम था, जिसने दूसरों को समाचारों की सुर्खियों में ला दिया था.

पूर्वोत्तर राज्य मणिपुर में बीती 3 मई से मैतेई और कुकी समुदाय के बीच जातीय संघर्ष जारी है. 25 जून तक, हिंसा में 131 लोग मारे गए और 400 से अधिक घायल हो गए. लगभग 50,000 लोगों को अस्थायी राहत शिविरों में रहने के लिए मजबूर किया गया, स्थानीय और केंद्रीय बलों की एक बड़ी टुकड़ी शांति बनाए रखने के लिए लगातार कोशिश कर रही है.

संघर्ष की भयावहता ने मीडिया जगत सहित सभी को हैरान कर दिया. दिप्रिंट और अन्य संगठनों के पास ग्राऊंड पर तुरंत रिपोर्टर मौजूद थे. किसी को उम्मीद नहीं थी कि यह चिंगारी इतनी भड़क जाएगी कि राज्य जलकर खाक हो जाएगा.

एडिटर्स और पत्रकारों के सामने आने वाली पहली कठिनाई अपने आप में जटिल थी- जो है — इग्नोरेंस. आप उस ऐतिहासिक दुश्मनी की पेचीदगियों को कैसे दिखाएंगे जो अचानक हिंसक हो गई और उसने संभावित गृहयुद्ध की शक्ल अख्तियार कर ली — जबकि बहुत कम लोगों को ही शायद ही यह मालूम होगा कि मणिपुर भारतीय मानचित्र पर कहां है?

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

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दिप्रिंट ने अपने पाठकों के लिए भय में लिपटे उस रहस्य को उजागर करने की ठानी — हालांकि, पूरी तरह से नहीं, लेकिन काफी हद तक और इसके संवाददातओं ने उन सभी सवालों के जवाब दिए जो मैंने इस रीडर्स-एडिटर्स कॉलम की शुरुआत में आपसे पूछे थे.


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सही जवाब

कुकी-मैतेई और नागा मणिपुर में तीन मुख्य जातीय समूह हैं. वे भूगोल द्वारा अलग-अलग हैं — कुकी पहाड़ियों के बड़े विस्तार में रहते हैं, जबकि मैतेई इंफाल घाटी में रहते हैं.

चूड़ाचांदपुर जिले में एक समय कुकी बहुल गांव के सोंगजांग को संरक्षित वन भूमि पर कथित अतिक्रमण के आरोप में सीएम एन बीरेन सिंह सरकार ने फरवरी में उजाड़ दिया था.

बिष्णुपुर जिले में स्थित क्वाक्टा में मैतेई महिलाओं ने केंद्रीय सुरक्षा बलों के खिलाफ अपना आक्रोश व्यक्त करने के लिए एक मानव नाकाबंदी की.

3 मई की शाम को दोलैथाबी गांव में जातीय संघर्ष में 140 घर जला दिए गए, जिनमें ज्यादातर मैतेई लोग रहते थे.


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संघर्ष की खोज

मई और जून की शुरुआत में दिल्ली से दिप्रिंट की मौसमी दास गुप्ता और सोनल मथारू, गुवाहाटी में तैनात करिश्मा हसनत के साथ, संघर्षग्रस्त राज्य से होकर गुजरीं — पहाड़ों में कुकी समुदाय के घरों से लेकर इंफाल के मैदानों तक जहां मैतेई लोग रहते हैं.

दिप्रिंट के नेशनल सिक्योरिटी एटिडर प्रवीण स्वामी कहते हैं, “उस समय, हमें नहीं पता था कि क्या हो रहा है और हमें इसका कोई सुराग नहीं मिला कि ऐसा क्यों हुआ था.”

जातीय हिंसा और उसके बाद की घटनाओं के लिए ट्रिगर — सरकार की प्रतिक्रिया, सैनिकों की तैनाती, हज़ारों लोगों का विस्थापन, ताज़ा झड़पें और जीवन की तबाही — खबरों में अच्छी तरह से कैद हैं. आपको दो समुदायों द्वारा लगभग बिना सोचे-समझे एक-दूसरे पर हमला करने का स्पष्ट अनुभव और वास्तविक एहसास मिलता है.

मौसमी दास गुप्ता ने 10 मई को लिखा, “तनाव की मौजूदा स्थिति मैतेई लोगों की अनुसूचित जनजाति (एसटी) दर्जे की मांग पर केंद्रित है, जिसके बारे में उनका कहना है कि यह समुदाय के लिए संवैधानिक सुरक्षा उपायों को सुरक्षित करने की कोशिश है.”

लेकिन क्या इससे दोनों समुदायों के बीच इतने चरम ध्रुवीकरण की व्याख्या हो सकती है? दिप्रिंट के एडिटर (ऑपरेशन) निशीथ उपाध्याय कहते हैं, “इस मामले में ब्रेकिंग न्यूज़ को प्रासंगिक बनाना होगा. नहीं, तो यह काम नहीं करेगा.” उन्होंने कहा, “बिग पिक्चर देना ज़रूरी था क्योंकि आप इसके बिना सामने आने वाली घटनाओं को नहीं समझ सकते.”


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‘अभिभूत’

किसी भी संघर्ष की रिपोर्टिंग में हिंसा की घटनाएं और उनकी मानवीय लागत अधिक नहीं तो समान रूप से गहरे, कारणात्मक आख्यान के रूप में ध्यान देने की होड़ करती है. दिप्रिंट की खबरों को पढ़ते हुए — जब मई में मणिपुर से 30 से अधिक लोग थे — आप कारण और प्रभाव के बीच जागरूक होते रहेंगे.

हसनत ने 28 अप्रैल को छिटपुट हिंसा के बारे में रिपोर्ट की, जो एक हफ्ते के भीतर राज्य के लिए एक बुरे सपने में तब्दील हो गई.

मार्च में उन्होंने म्यांमार में समस्याओं पर रिपोर्ट की थी जो मणिपुर की स्थिति को प्रभावित कर सकती है.

और फिर ऐसी और खबरें आईं जिन्होंने गहरी और अधिक चिंताजनक गलतियों को उजागर किया. दास गुप्ता ने जातीय आधार पर विभाजित नौकरशाही के बारे में लिखा.

उन्होंने कहा, “अपने इतने साल के रिपोर्टिंग करियर में मैंने कभी ऐसा कुछ नहीं देखा.” वे कहती हैं, “हमने ज़मीनी स्थिति और दोनों पक्षों के बीच विभाजन की वास्तविकता को सामने लाया. शायद हमने बहुसंख्यकवाद और आदिवासियों या राजनीति को लेकर पर्याप्त काम नहीं किया.”

मथारू इसका कारण बताती हैं, “हम हर तरफ से आ रही खबरों और सूचनाओं से भरे हुए थे — पीछे हटना और बिग पिक्चर की तलाश करना हमेशा आसान नहीं होता. बहुत प्रोपेगेंडा भी फैलाया गया, जिसकी सच्चाई आपको सत्यापित करनी थी.”

उदाहरण के लिए मैतेई द्वारा लगाए गए आरोपों की पुष्टि करना असंभव था कि म्यांमार से अवैध इमिग्रेशन के कारण कुकी आबादी असंगत रूप से बढ़ी है — 2011 के बाद से कोई जनगणना नहीं हुई है. मथारू कहती हैं, “डेटा बस एक मुद्दा था.”

3 मई को जब हिंसा भड़की तो हसनत इंफाल में थीं. वे झड़प के केंद्र बिंदु चूड़ाचांदपुर तक गईं. वे कहती हैं, “भूमि विवाद इस संकट के प्रमुख कारणों में से एक था और मैंने रिपोर्ट में यह बताने की कोशिश की है.”

एक गायब लिंक जो मैंने देखा वह राजनीतिक था. हालांकि, अपनी शिकायतें लेकर दिल्ली आए प्रदर्शनकारी विधायकों की कहानियों और उद्धरणों में कुछ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की आवाज़ें हैं, लेकिन यह उससे आगे नहीं बढ़ती है. आप विपक्ष से — इस मामले में कांग्रेस से — मुखर होने और जानकारी का एक अच्छा स्रोत होने की उम्मीद कर सकते हैं. हसनत कहती हैं, “विपक्षी राजनीतिक दल सामने नहीं आए और अपनी बात नहीं रखी.”

उपाध्याय मानते हैं, “सुरक्षा के पहलू से देखें तो, हिंसा थोड़ी ज़्यादा हो गई थी.”

तो, क्या दिप्रिंट ज़मीनी हकीकत और इसके पीछे की कहानी को बताने में सफल रहा? हां या ना.

स्वामी ने मुझे याद दिलाया कि संघर्ष रिपोर्टिंग की प्रकृति में पहले दिन-प्रतिदिन के विकास पर ध्यान केंद्रित करना शामिल है. वे कहते हैं, “जब आपके आस-पास हमेशा कुछ न कुछ घटित हो रहा हो तो अन्य चीज़ों के बारे में लंबी बातचीत करना मुश्किल होता है.”


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डिक्टेशन, टेक्सट मैसेज, संपर्क

सिर्फ राजनेता ही नहीं, दिप्रिंट के पत्रकारों ने भी अधिकारियों और पुलिस को ‘इस स्थिति’ के बारे में बात करने के लिए अनिच्छुक पाया. हालांकि, दास गुप्ता के अनुसार, कुकी और मैतेई “बातचीत करके बहुत खुश थे”. मथारू कहती हैं, “कुछ गांवों में लोगों के मन में अविश्वास था.” उन्होंने कहा, “मुझे उनका भरोसा जीतना था.”

जब हसनत और दास गुप्ता ने मणिपुर की यात्रा की, तब तक इंटरनेट सस्पेंड थे. यह रिपोर्टिंग का एक और आयाम है जो अक्सर तब छूट जाता है जब हम किसी प्रकाशित खबर को देखते हैं. सोशल मीडिया ने हमें अधीर बना दिया है—हम खबरें तो तभी चाहते हैं जैसे ही वो पक रही हो.

लेकिन जब आप यात्रा कर रहे हों, खासकर दूरदराज के इलाकों में जहां इंटरनेट कनेक्शन हमेशा खराब रहता है, तो आप उसी ज़रूरी गति से छापने के लिए रिपोर्ट और लंबे विश्लेषणात्मक लेखों को कैसे भेजते हैं? दास गुप्ता कहती हैं, “हिंसक स्थितियों में समय महत्वपूर्ण है.”

पत्रकारों और एडिटर्स को आविष्कारशील होना होगा. दास गुप्ता ने अपनी खबरें भेजने के लिए राज्य सचिवालय में संपर्कों का उपयोग किया. हालांकि, यह सीमित था; हसनत स्थानीय पत्रकारों को जानती थीं. उन्होंने मैसेज में वाक्य-दर-वाक्य खबरें भी भेजीं. दिल्ली में एडिटर्स फोन पर डिक्टेशन लेते थे.

ऐसी परिस्थितियों में फोन पर बिग पिक्चर वाली खबरें लिखना और किसी के बोलने के दौरान उन्हें ट्रांसक्राइब करना मुश्किल होता है.

समस्या तब और भी बड़ी हो गई जब फोन पर तस्वीरें भेजने या इंटरनेट तक सीमित पहुंच की बात आई. पत्रकारों और सीनियर फोटोग्राफर सूरज सिंह बिष्ट की उन तस्वीरों से हमें पता चला कि ज़मीन पर स्थिति कितनी ख़राब थी.

पाठकों को स्थिति को और भी बेहतर ढंग से समझने में सहायक ग्राफिक्स और मानचित्र हो सकते हैं – उदाहरण के लिए, हिंसक स्थानों का हीट मेप.

बेशक, बाद में बुद्धिमान बनना बहुत आसान है. मैंने सभी खबरें एक साथ पढ़ीं – और इसके अंत में मैं ईमानदारी से कह सकती हूं कि हालांकि, मैं कोई एक्सपर्ट नहीं हूं, लेकिन मुझे इस बात की कामकाजी समझ है कि मणिपुर में क्या दांव पर लगा है.

इसने मुझमें और अधिक जानने की इच्छा पैदा कर दी है…

(शैलजा बाजपेई दिप्रिंट की रीडर्स एडिटर हैं. कृपया अपनी राय, शिकायतें readers.editor@theprint.in पर भेंजे. लेखिका के विचार निजी हैं और उनका ट्विटर हैंडल @shailajabajpai है.)

(संपादन: फाल्गुनी शर्मा)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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