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Saturday, 20 April, 2024
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‘मैं मैतेई या कुकी नहीं हूं, फिर भी हिंसा का शिकार’, मणिपुर के गांवों से घर छोड़ भाग रहे पड़ोसी

मणिपुर के गांवों के कई निवासी, जहां कुकी और मेइती एक-दूसरे के पास पास रहते थे, 3 मई को भड़की हिंसा को समझने की कोशिश कर रहे हैं, जिसमें लगभग 60 लोग मारे गए थे.

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दोलैथाबी, मणिपुर: मणिपुर के कांगपोकपी जिले में कुकी बहुल डोलैथाबी गांव के एक छोटे से मेइतेई गांव एकौ के बाजार में प्रवेश करते ही जलने की तेज गंध हवा में फैल जाती है, जो राजधानी इंफाल से लगभग 35 किमी दूर है.
मुट्ठी भर परेशान ग्रामीण अपने जले हुए घरों और दुकानों के अवशेषों को खंगाल रहे हैं ताकि इस आगजनी में कुछ मिला हो तो वो उसे संभाल कर रख सकें.

3 मई की शाम को, एकौ के बाज़ार और आस-पास के इलाकों में, जिनमें 140 घर थे, जिनमें ज्यादातर मैतेई लोग रहते थे, हिंसा का खामियाजा भुगतना पड़ा, जो गैर-आदिवासी मैतेई को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने की योजना के विरोध में आयोजित ‘आदिवासी एकजुटता मार्च‘ के बाद भड़क उठी थी.

मुख्य रूप से मैतेई और कुकी के बीच हुई झड़पों में करीब 60 लोगों की जान गई है. झड़पें शुरू होने के बाद से इंफाल सहित हिंसा प्रभावित जिलों में कर्फ्यू लगा दिया गया है और इंटरनेट बंद कर दिया गया है.

लगभग 700 लोगों की कुल आबादी वाले एकौ के ग्रामीणों ने दिप्रिंट को बताया कि एक भीड़ शाम 5.30-6 बजे के आसपास गांव में घुस आई और आग लगाने से पहले घरों में तोड़-फोड़ शुरू कर दी. एक स्कूल और एक सार्वजनिक परिवहन बस के अलावा 100 से अधिक घरों और दुकानों में आग लगा दी गई.

जबकि अधिकांश मैतेई ग्रामीण भाग गए और कुछ ही किमी दूर मैतेई बहुल गांव पुखाओ तेरापुर में शरण ले ली, वहीं कुछ लोग डोलाईथबी के पास सटे सैकुल गांव में असम राइफल्स के शिविर में चले गए. असम राइफल्स ने अगले दिन बचाए गए ग्रामीणों के लिए एक राहत शिविर बनाया.

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शनिवार की सुबह, जब दिप्रिंट एकौ पहुंचा, राम आशीष और उनकी पत्नी उर्मिला, जो करीब 15 साल से बाजार इलाके में किराने की दुकान चलाते थे, सैकुल राहत शिविर से यह देखने आए थे कि उनके घर और दुकान में क्या बचा है.
गोरखपुर, उत्तर प्रदेश के मूल निवासी, राम आशीष के पिता लगभग 30 साल पहले मणिपुर आए थे और अंततः एकौ में बस गए थे. आशीष इसी मैतेई बस्ती में पले-बढ़े और उनके बेटे का जन्म यहीं हुआ, जो इंफाल के एक कॉलेज में पढ़ता है.

उसने दिप्रिंट को बताया, “मैं मैतेई या कुकी नहीं हूं, लेकिन उनके संघर्ष का शिकार हो गया हूं. यहां, मैं पूरी जिंदगी मैतेई और कुकी के साथ रहा हूं.’ “मैंने कभी नहीं सोचा था कि मुझे ऐसा दिन देखना पड़ेगा जहां हमें अपने जले हुए घर के अवशेषों को खंगालना पड़ेगा.”

Gorakhpur native Urmila ran a grocery shop in the Ekou bazaar area, which was destroyed in the violence | Suraj Singh Bisht | ThePrint
गोरखपुर की रहने वाली उर्मिला एकौ बाजार इलाके में किराने की दुकान चलाती थी, जो हिंसा में तबाह हो गया | सूरज सिंह बिष्ट | दिप्रिंट

एकौ और आसपास के गांवों में अब केवल वही निवासी देखे जा सकते हैं जो असम राइफल्स, सीमा सुरक्षा बल, इंडिया रिजर्व बटालियन, सीआरपीएफ और सेना की गोरखा रेजिमेंट के कर्मी हैं.

इस बीच, सोमवार को एक संवाददाता सम्मेलन में, मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह ने कहा कि सरकार बचाए गए पीड़ितों को राहत देने के लिए हर संभव प्रयास कर रही है और विस्थापित लोगों के पुनर्वास के लिए जिला प्रशासन के साथ मिलकर काम कर रही है.

‘घबराहट में घर छोड़ा’

यदि कुकी-बहुल गांवों में मैतेई इलाके वीरान दिखते हैं, तो मैतेई बहुल गांवों से सटे कुकी पॉकेट्स में भी चीजें अलग नहीं हैं.

इधर, गांवों का कहना है कि वे 3 मई को अपने घरों से भाग गए थे, “मैतेई के प्रतिशोध के डर से”, और राहत शिविरों में शरण ले रखी है.

Over 100 houses and shops, besides a school were set on fire | Suraj Singh Bisht | ThePrint
एकौ में एक स्कूल के अलावा 100 से अधिक घरों और दुकानों में आग लगा दी गई | सूरज सिंह बिष्ट | दिप्रिंट

70 वर्षीय पाओ खुप, सोंगफेल में रहते हैं, जो करीब 10-15 घरों वाली एक छोटी कुकी बस्ती है, जो मैतेई बहुल गांव के पास स्थित है. खुप अपने परिवार और अन्य ग्रामीणों के साथ 4 मई को सैकुल में एक राहत शिविर के लिए रवाना हुए.
खुप ने कहा कि उनके इलाके में उस समय अफरातफरी मच गई जब उन्होंने सुना कि पास की एक मैतेई बस्ती को भीड़ ने आग के हवाले कर दिया है. “हमारी बस्ती में सिर्फ 15-20 आदमी हैं और हम डरे हुए थे कि जवाबी हमले की स्थिति में हम अपने परिवारों की रक्षा करने में सक्षम नहीं होंगे. इसलिए, ग्रामीणों ने निकटतम असम राइफल्स शिविर में जाने का फैसला किया.”

शनिवार की सुबह खुप अपने परिवार के लिए कुछ कपड़े लेने अपने गांव जा रहा था. खुप ने दिप्रिंट को बताया, “हम बिना कुछ लिए, यहां तक कि कपड़े का एक टुकड़ा भी नहीं ले पाए, घबराहट में अपना घर छोड़ दिया.”

सैकुल से, वह और कुछ अन्य ग्रामीण पैदल चलकर एकौ पहुंचे, जहां वे असम राइफल्स के गश्ती ट्रक में लिफ्ट लेने में कामयाब रहे.

खुप ने कहा कि हिंसा में चाहे कोई भी शामिल हो, हमेशा उसके जैसे गरीब लोग ही पीड़ित होते हैं.

उन्होंने कहा, “क्या आप इस सब की हास्यास्पदता देख सकते हैं? सदियों से एक-दूसरे के बगल में रहने वाले ग्रामीण एक-दूसरे से डरे हुए हैं और पलायन कर रहे हैं. बहुल गांवों के पास रहने वाले कुकी प्रतिशोध के डर से भाग रहे हैं और इसके विपरीत, ”.

चारों ओर खाली घरों के साथ, क्षेत्र के कई गांव भूतों के गांव जैसे लगते हैं. यहां तक कि क्षेत्र में मंदिरों और चर्च जैसे धार्मिक स्थलों को भी भीड़ ने नहीं बख्शा है.


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दोनों समुदायों के पुरुष पहरा देते हैं

क्षेत्र में भय और पागलपन के साथ, दोनों समुदाय के युवा अपने-अपने गांवों के प्रवेश प्वांइट्स पर पहरा देते हैं.
कांगपोकपी जिले के एक छोटे कुकी गांव, गंगपिजांग का उदाहरण लें, जो मैतेई बहुल गांव पुखाओ तेरापुर से सिर्फ 2 किमी दूर है.

युवा पुरुष गांव के बाहर पहरा देते हैं, जिसमें 550 की कुल आबादी वाले करीब 100 घर हैं. 48 वर्षीय मांगचा हाओकिप, सरकारी स्कूल के शिक्षक जो ग्रामीणों के पहरेदारों में से एक हैं.

दिप्रिंट से बात करते हुए हाओकिप ने कहा कि उन्होंने महिलाओं, बच्चों और बुजुर्गों को सैकुल राहत शिविर में छुपाया था

उन्होंने कहा, “पुरुष गांव की सुरक्षा के लिए रुके हुए हैं.”

उन्होंने कहा कि गांव के अंदर अभी भी तनाव है. उन्होंने कहा, “हम स्टेट फोर्स पर भरोसा नहीं करते हैं. केंद्र सरकार द्वारा भेजी गई असम राइफल्स और अर्धसैनिक बलों की वजह से हम थोड़े निश्चिंत हैं. लेकिन फिर भी, मन में शांति नहीं है.”

उनके अनुसार, दोलैताबी में समस्या इसलिए शुरू हुई क्योंकि इंफाल-सैखुल सड़क के बीच में स्थित खोनोमफाई, पास के कुकी गांवों में से एक को जला दिया गया था.

उन्होंने कहा, “उसके कारण, गुस्साई भीड़ ने मैतेई के कब्जे वाले पास के गांव को आग के हवाले कर दिया था. यह एक प्रतिक्रिया थी. ”

People from violence-hit areas at Naorem Birahari College, which was temporarily turned into a relief camp, in East Imphal district | Suraj Singh Bisht | ThePrint
पूर्वी इंफाल जिले में अस्थायी रूप से राहत शिविर में तब्दील किए गए नौरेम बिराहारी कॉलेज में हिंसा प्रभावित इलाकों के लोग | सूरज सिंह बिष्ट | दिप्रिंट

दूसरी तरफ भी कुछ ऐसी ही स्थिति है. पुखाओ तेरापुर जहां से डोलैथाबी समाप्त होता है वहां से लगभग 600 मीटर की दूरी पर है.

करीब एक हजार की आबादी वाले इस गांव में करीब 150 घर हैं. अधिकांश ग्रामीण छोटे किसान हैं. जहां पुखाओ तेरापुर खत्म होता है, वहां गांव के सामुदायिक भवन को गार्ड रूम में तब्दील कर दिया गया है.

गांव के नौजवान यहां शिफ्टों में पहरा देते हैं, अपने गांव को कुकी के संभावित हमलों से बचाने की कोशिश करते हैं.
39 वर्षीय संजय सिंह, जो गांव में किराने का एक छोटा सा व्यवसाय चलाते हैं, गार्डों में से एक हैं. उन्होंने कहा, “कोई विकल्प नहीं है. हमें अपने गांव को कुकियों से बचाना चाहिए.” “हमारी दोहरी जिम्मेदारी है क्योंकि हम अपने समुदाय के उन सैकड़ों लोगों को शरण दे रहे हैं, जिनके घरों को एकौ और साडू येंगखुमन में भीड़ ने जला दिया था.”

‘राज्य सरकार कहां है?’

पुखाओ तेरापुर और आस-पास के इलाकों में, बेघर हुए सैकड़ों ग्रामीणों को आश्रय प्रदान करने के लिए छोटे और बड़े कुछ दर्जन राहत शिविर स्थापित किए गए हैं.

इंफाल के बाहर, अधिकांश राहत शिविर या तो सुरक्षा एजेंसियों या स्थानीय क्लबों द्वारा चलाए जा रहे हैं, जिन्होंने हाथ मिलाकर ग्रामीणों के लिए भोजन और अन्य राहत सामग्री का आयोजन किया है.

इमा चिंगजरोबी राहत शिविर एक ऐसा ही है, जिसका आयोजन फ्रेंड्स यूनियन क्लब और यूथ्स ऑर्गेनाइजेशन स्पोर्टिंग क्लब द्वारा खुरई कोनसम लेकाई, इंफाल पूर्व में किया गया है.

दोलाईथाबी में साडू येंगखुमन से बचाए गए करीब 95 ग्रामीणों को इमा चिंगजरोबी मंदिर परिसर के अंदर स्थापित इस राहत शिविर में रखा गया है.

फ्रेंड्स यूनियन क्लब के अध्यक्ष एन. सोमरेंद्रो सिंह ने दिप्रिंट को बताया कि स्थानीय निवासी अनायास ही बाहर आ गए और उन्होंने बचाए गए ग्रामीणों की मदद के लिए नकद और वस्तु दान में दिया.

“लेकिन अब धीरे-धीरे ग्रामीणों को खिलाने के लिए धन की कमी हो रही है. हमें पता है कि हम कब तक ऐसे ही चलते रहेंगे. ग्रामीणों के पास जाने के लिए कोई जगह नहीं है. अभी तक प्रशासन से हमने नहीं सुना है कि वे उनके पुनर्वास के बारे में क्या सोच रहे हैं.”

(संपादन: पूजा मेहरोत्रा)
(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़नें के लिए यहां क्लिक करें)


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