scorecardresearch
Wednesday, 8 May, 2024
होममत-विमतसिविल-मिलिटरी मेल अब जरूरी है लेकिन सेना की अपनी पहचान की कीमत पर नहीं

सिविल-मिलिटरी मेल अब जरूरी है लेकिन सेना की अपनी पहचान की कीमत पर नहीं

भारत की सेना से संपूर्ण आज्ञाकारिता की मोदी सरकार में कितनी चाहत है यह सेना का नेतृत्व करने वालों के चयन में उसके द्वारा अपनाई गई शैली से स्पष्ट है.

Text Size:

यह समझने के लिए बहुत ज्ञानी होना जरूरी नहीं है कि भारत की घरेलू राजनीति पर धर्म और जाति का बोलबाला कायम है और वे देश के विकास की राह में कई रोड़े अटकाते हैं. लेकिन इस बात को अक्सर कबूल नहीं किया जाता कि पहचान के मसले सैन्य सुधारों की भी कुंजी हैं. पहला टकराव असैनिक (सिविल) और सैन्य (मिलिटरी) सत्ताओं की पहचानों के बीच है.

सिविल पहचान का प्रतिनिधित्व करने वाला राजनीतिक नेतृत्व तो यही चाहेगा कि सेना तनी हुई रस्सी पर चलने का करतब करे, जिसे वह राष्ट्रीय हितों की सुरक्षा की खातिर देश के दुश्मनों के खिलाफ इस्तेमाल कर सके. राजनीतिक नेतृत्व सेना से निर्विवाद आज्ञाकारिता की अपेक्षा करेगा और वह प्रायः तानाशाही, निरंकुश रवैया अपनाएगा. लेकिन भारत जैसे लोकतंत्र में नेतृत्व से उम्मीद की जाती है कि वह विचार-विमर्श करे और सलाह ले कि विरोधियों के खिलाफ सेना का वह कैसे और किस मकसद से इस्तेमाल कर सकता है.

यह बात स्वीकृत है कि राजनीतिक मकसदों के लिए हिंसा के इस्तेमाल के बारे में सिविल और मिलिटरी नेतृत्व के बीच संवाद के जरिए मध्यस्थता की जानी चाहिए. यह मध्यस्थता आवश्यक है क्योंकि उनकी पहचान अलग-अलग तत्वों से निर्धारित होती है- सिविल की पहचान राजनीतिक तर्क से तय होती है, तो मिलिटरी की पहचान हिंसा के इस्तेमाल के मामले में उसके कौशल से.


यह भी पढ़ें: यांगत्से की घटना ने भारतीय सेना की ताकत उजागर की लेकिन उसका पलड़ा नौसेना ही भारी कर सकती है


सिविल-मिलिटरी पहचान: तीन मुद्दे

सिविल-मिलिटरी संबंधों से जुड़े तीन मुद्दों को रेखांकित करने की जरूरत है. पहला यह कि एक वर्ग के रूप में राजनीतिक नेताओं में सेना और उसके संभावित उपयोगों के बारे में समझदारी की कमी पाई जा सकती है. दूसरे, सैन्य नेतृत्व राजनीतिक बारीकियों को सही तरह से समझने में प्रायः चूक जाता है. तीसरे, ताकतवर नेताओं की स्वाभाविक प्रवृत्ति यह होती है कि सेना उनके प्रति निर्विवाद रूप से आज्ञाकारी हो.

यूक्रेन में रूसी सेना जो प्रदर्शन कर रही है उसके लिए निरंकुश पुतिन को जिम्मेदार माना जा सकता है, जिनमें अपने देश की सैन्य क्षमता की उपयुक्त समझ तो नहीं ही है, उन्हें शायद आज्ञाकारी सेना की चाटुकारितापूर्ण सलाह ने भ्रमित भी किया. इस मामले का मुख्य सबक यह है कि उस पेशेवर सैन्य सलाह से परहेज किया जाए, जो ताकतवर नेता के विचारों को ही प्रतिध्वनित करते हों. भारत को भी यह सबक गंभीरता से लेना चाहिए क्योंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ताकतवर नेताओं में शुमार किया जा सकता है. वास्तव में, आज दुनिया भर में ताकतवर नेता उभर रहे हैं.

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें

गिदेओं राशमैन ने अपनी ताजा किताबद एज ऑफ स्ट्रॉंगमैन ‘ में इस मसले का विश्लेषण किया है और समान प्रवृत्तियों को रेखांकित किया है- ‘ऐसे सारे नेता राष्ट्रवादी और सांस्कृतिक रूढ़िवादी हैं जिनमें अल्पसंख्यकों, असहमति या विदेशियों के हितों के प्रति सहिष्णुता नगण्य होती है. अपने देश में वे दावा करते हैं कि वे ‘वैश्विकतावादी’ सामंतों से आम आदमी की रक्षा कर रहे हैं. विदेश में वे खुद को अपने देश के साकार प्रतिनिधि के रूप में पेश करते हैं. जहां भी वे जाते हैं वहां व्यक्तिपूजा को बढ़ावा देते हैं.’ लेखक ने इस तथ्य को रेखांकित किया है कि ताकतवर नेता वाला रुझान केवल अधिनायकवादी व्यवस्थाओं में नहीं है बल्कि लोकतांत्रिक देशों में निर्वाचित नेताओं में भी पाया जाता है.

भारतीय सेना से संपूर्ण आज्ञाकारिता की मोदी सरकार में कितनी चाहत है यह सेना का नेतृत्व करने वालों के चयन में उसके द्वारा अपनाई गई शैली से स्पष्ट है. इस सरकार ने वरिष्ठता के सिद्धांत को कुल मिलाकर उलट दिया है. इस प्रवृत्ति को अधिक स्पष्ट रूप में देखना है तो चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस) के पद के लिए योग्यता से संबंधित नियमों में किए गए परिवर्तन से बेहतर उदाहरण शायद ही मिलेगा.

इसी परिवर्तन के आधार पर दूसरे सीडीएस के रूप में जनरल अनिल चौहान की नियुक्ति की गई है. पहले सीडीएस जनरल बिपिन रावत की दुखद मृत्यु के बाद यह पद 10 महीने तक खाली रहा. तब राजनीतिक नेतृत्व को इस बात की कोई चिंता नहीं हुई कि सैन्य व्यवस्था को नेतृत्व विहीन रखने से उस पर क्या प्रभाव पड़ेगा. अगर उसे इसके नतीजे का एहसास था भी तो उसने बहुत परवाह नहीं की.

दूसरे सीडीएस की नियुक्ति के आदेश में गौर करने वाली बात यह है कि उनका कार्यकाल निश्चित नहीं किया गया है. कहा गया है कि वे ‘अगले आदेश तक’ पद पर बने रहेंगे. अगर सरकार चाहेगी तो शायद वे 2026 तक पद पर रहेंगे, जब उनकी उम्र 65 साल हो जाएगी. या सरकार की मर्जी पर उनका कार्यकाल खत्म हो सकता है. इस अनिश्चितता के कारण इस दौड़ में कई दावेदार बने रहेंगे और उनमें सेवारत चीफ भी शामिल होंगे क्योंकि वे 62 साल की उम्र में रिटायर होने के एक दिन पहले भी इस पद पर नियुक्त किए जाने के योग्य रहेंगे. इस व्यवस्था के तहत सरकार को सेना के नेतृत्व के लिए ज्यादा संख्या में अपने अनुकूल अधिकारी उपलब्ध हो सकेंगे. लेकिन ताकतवर राजनीतिक नेता पेशेवर सैन्य परामर्श से वंचित हो जाएगा क्योंकि उसके सलाहकारों में वही लोग होंगे जो उसके ही विचारों को प्रतिध्वनित करेंगे.


यह भी पढ़ें: थिएटर कमांड हो या डिफेंस यूनिवर्सिटी, क्यों राष्ट्रीय सुरक्षा को चाहिए राजनीतिक प्रोत्साहन


क्या किया जा सकता है?

सिविल-मिलिटरी रिश्ते में ऐसे प्रकट चलन को काटने के लिए जिससे बचा जा सकता है, भारत के सैन्य नेतृत्व को चली जा रही राजनीतिक चालों के बारे में जागरूक होना पड़ेगा. उसे इस बात के प्रति जागरूक होना पड़ेगा कि नेताओं के निशाने पर है सेना की पहचान. वह पहचान जो उसकी वर्दी में निहित है और जो मूल्यों को अपना मूल तत्व मानती है.

जाहिर है, उनके पास राजनीतिक चालों को रोकने की कोई शक्ति नहीं है, सिवा इसके कि वे हिंसा के इस्तेमाल में अपनी विशेषज्ञता के बूते अपनी पेशेगत ईमानदारी को बनाए रखें. खासकर साइबर तथा अंतरिक्ष के दायरे में टेक्नोलॉजी की प्रगति के कारण सिविल महकमे को भी यह विशेषज्ञता हासिल है. इसलिए सिविल-मिलिटरी के बीच गहरा मेल अब जरूरी है.

लेकिन इस प्रक्रिया में सैन्य पहचान के मूल तत्व, चरित्र की बलि न दी जाए. इसमें विफलता देश को बहुत महंगी पड़ेगी.
समझदार लोग दूसरों की गलतियों से भी सीखते हैं. कोई कारण नहीं कि हम न सीखें, बशर्ते सीमित लाभ का लोभ व्यापक हितों पर हावी न हो जाए, जैसा कि ताकतवर नेताओं के साथ अक्सर होता रहा है. इतिहास इसका गवाह है.

(संपादन: कृष्ण मुरारी)

(लेफ्टिनेंट जनरल (डॉ.) प्रकाश मेनन (रिटायर) तक्षशिला संस्थान में सामरिक अध्ययन कार्यक्रम के निदेशक; राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय के पूर्व सैन्य सलाहकार हैं. उनका ट्विटर हैंडल @prakashmenon51 है. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ें: भारतीय सेना ‘अखंड भारत’ जैसे सपनों के फेर में पड़कर अपना मकसद न भूले


 

 

share & View comments