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Friday, 3 May, 2024
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थिएटर कमांड हो या डिफेंस यूनिवर्सिटी, क्यों राष्ट्रीय सुरक्षा को चाहिए राजनीतिक प्रोत्साहन

रक्षा संबंधी सुधार सत्तासीन सरकार के जिम्मे हैं. पीएमओ को रक्षा मंत्रालय पर दबाव बढ़ाना चाहिए और रक्षामंत्री को इसके लिए जवाबदेह बनाना चाहिए.

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मई 2020 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘आत्मनिर्भर भारत’ का आह्वान किया था, जिसने आत्मनिर्भरता को रक्षा मंत्रालय का नीतिगत लक्ष्य बना दिया. दशकों के प्रयासों के बावजूद भारत के रक्षा संबंधी उद्योग ने उल्लेखनीय प्रगति नहीं की; और देसी अनुसंधान, विकास और उत्पादन क्षमता एक चुनौती बनी रही.

अब समय ही बताएगा कि उपरोक्त नारा उपलब्धि के हिसाब से सफल हुआ है या नहीं. लेकिन एक स्वीकार्य सीमा तक आत्मनिर्भरता हासिल कर ली जाए तब भी भारत को सैन्य रूप से प्रभावी बनने के लिए दो अहम सुधारों को लागू करना पड़ेगा— एक तो रक्षा विश्वविद्यालय, और दूसरा थिएटर कमांड. दोनों सुधार भारत की सैन्य ताकत में भारी इजाफा करने की क्षमता रखते हैं. यह नेतृत्व में सुधार, और तीनों सेनाओं में सांगठनिक पुनर्गठन के जरिए एक करके हासिल किया जा सकता है.

ये कदम उठाना रक्षा मंत्रालय के दायरे में है, लेकिन ऐसा लगता है कि उसे इसकी उतनी जरूरत नहीं दिखती जितनी चाहिए. कई कारणों से इसे शायद आत्मनिर्भरता पर ज़ोर देने के कारण दरकिनार किया जा रहा है, जबकि तुलनात्मक दृष्टि से आत्मनिर्भरता एक स्थायी और दीर्घकालिक लक्ष्य बनी रहेगी.

दोनों सुधारों का संबंध अंतत इससे जुड़ा है कि सैन्य प्रभाव हासिल करने के लिए क्या जरूरी है—विकास के मामले में विवेकशीलता, और भारत के राजनीतिक लक्ष्य हासिल करने के लिए सैन्य क्षमता का उपयोग और परिवर्तन.


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भारतीय रक्षा विश्वविद्यालय : अधूरा रिफॉर्म

चीफ ऑफ स्टाफ कमिटी ने भारत में रक्षा विश्वविद्यालय (आईडीयू) की स्थापना की जरूरत को पहली बार 1967 में रेखांकित किया था. करगिल युद्ध के बाद 1999 में, राष्ट्रीय सुरक्षा से संबंधित मंत्रियों के समूह (जीओएम) की रिपोर्ट ने इसे स्थापित करने की सिफ़ारिश की थी. इस सिफ़ारिश को सुरक्षा मामलों की कैबिनेट कमिटी ने 2002 में मंजूर किया. इसके बाद कई कमिटियों बनीं और कई अध्ययन हुए लेकिन आईडीयू अभी भी साकार नहीं हो पाया है.

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2013 में, पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने गुरुग्राम के बिनोला में इंडियन नेशनल डिफेंस यूनिवर्सिटी (इन्दु) की नींव रखी. 2016 में, ‘इन्दु’ के विधेयक के मसौदे को सार्वजनिक विमर्श के लिए ऑनलाइन प्रस्तुत किया गया और 2017 में संशोधित किया गया. इसके बाद विधेयक पीएमओ (कैबिनेट सचिवालय), रक्षा मंत्रालय और सेना के बीच चक्कर काटता रहा. एक अटकाऊ मुद्दा विश्वविद्यालय के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष की योग्यता पर असहमति का था.

बताया जाता है कि नौकरशाही दोनों पदों के दरवाजे सभी नौकरशाहों के लिए खुला रखना चाहती थी. लेकिन सेना को यह कबूल नहीं था, वह अध्यक्ष पद सेना में कार्यरत तीन सितारे वाले जनरल के लिए, और उपाध्यक्ष पद भारतीय विदेश सेवा (आईएफएस) के अधिकारी के लिए चाहती थी. संस्थाओं में बहुसंख्यकवादी विचारधारा की घुसपैठ के व्यापक चलन को देखते हुए इस तर्क में कुछ दम हो सकता है कि आईडीयू की स्थापना पर रोक से फौजी संस्थानों में इस चलन के प्रवेश को टाला जा सकता है. इस विषय पर पिछले सप्ताह लिखा जा चुका है.

अवधारणात्मक दृष्टि से देखें तो आईडीयू के न होने से तीनों सेनाओं और सिविल-फौजी तत्वों की एक करने के लिए साझा सैद्धांतिक संपर्क सूत्र के रूप में बौद्धिक मंच नहीं उपलब्ध होगा और वह जॉइंट करने का लक्ष्य अधूरा रह जाएगा. इसने थिएटर कमांडों के, जो हाल में उभरा दूसरा जरूरी सुधार है. गठन पर असर पड़ा है.

थिएटर कमांडों के गठन में रोड़ा

चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस) का पद बनाने की शुरुआती सिफ़ारिश करगिल युद्ध के बाद आई ‘जीओएम’ की रिपोर्ट में की गई थी लेकिन समेकित थिएटर कमांड के गठन के लिए किसी सुधार को लागू करने की शुरुआत तब तक नहीं की गई जब तक यह राजनीतिक आदेश नहीं आया कि सीडीएस और रक्षा मंत्रालय में डिपार्टमेंट ऑफ मिलिटरी अफेयर्स (डीएमए) का भी गठन किया जाए. तीनों सेनाओं में 17 कमांडों की मौजूदगी ऐसी ढांचागत गड़बड़ी को दर्शाती थी जिसे दुरुस्त करना जरूरी था क्योंकि यह संयुक्तता, समेकित योजना, ऑपरेशनल कार्रवाई, और दुर्लभ राष्ट्रीय संसाधन के अधिकतम उपयोग के लिए मुफीद नहीं थी.

एक बार जब आदेश जारी हो गया तब गेंद तीनों सेनाओं के पाले में चली गई. तीन साल से यही स्थिति है और इसकी मुख्य वजह यह है कि सेनाओं के बीच गहरे मतभेद हैं. सीडीएस जनरल बिपिन रावत के असमय निधन ने भी इस पर असर डाला, जिसके बाद 10 महीने तक यह पद खाली रहा.

थिएटर कमांड के मामले में प्रगति के कुछ संकेत नौसेना अध्यक्ष एडमिरल आर. हरि कुमार ने 3 दिसंबर को मीडिया के साथ अपनी बातचीत में दिए. उन्होंने पुष्टि की कि प्रथम सीडीएस के आदेश पर किया गया अध्ययन पूरा हो गया है और यह कि तीनों सेना थिएटर कमांड के गठन और आगे के रास्ते के मूलभूत सिद्धांतों पर काम कर रही हैं.

थिएटर कमांड के गठन की प्रक्रिया बेशक जटिल है, इनका गठन बढ़ते भू-राजनीतिक खतरों के माहौल में ही किया जाना चाहिए. लेकिन इसके विचार की प्रक्रिया के रूप में पहला कदम भी तीन साल में नहीं निश्चित नहीं किया जा सका है. इसका अर्थ यह है कि हाल में नये सीडीएस ले.जनरल (रिटायर्ड) अनिल चौहान की नियुक्ति के बाद सेनाओं के आपसी मतभेद सुलझने के आसार नहीं हैं. अब केवल मजबूत हस्तक्षेप ही सुधारों को आगे बढ़ा सकता है और यह हस्तक्षेप राजनीतिक हलके की ओर से ही हो सकता है.

नीति के तौर पर आत्मनिर्भरता के सामने कई चुनौतियां हैं, खासकर साधन और रणनीति के संदर्भों में, लेकिन आईडीयू और थिएटर कमांडों के गठन में कोई बाधा नहीं है. फिर भी दोनों काम अटके पड़े हैं.

नेताओं का हस्तक्षेप जरूरी है

विपक्ष ने इन मसलों पर संसद में कोई सार्थक सवाल नहीं उठाए हैं. शायद यह इस विषय के प्रति उनकी उदासीनता को दर्शाता है, लेकिन सुधार तो सत्तासीन सरकार के जिम्मे है. पीएमओ को रक्षा मंत्रालय पर दबाव बढ़ाना चाहिए और रक्षा मंत्री को इसके लिए जवाबदेह बनाना चाहिए.

राजनीतिक दिशा-निर्देश और दबाव फौजी पृष्ठभूमि वाले नेता द्वारा उपलब्ध कराए गए ज्ञान पर आधारित होना चाहिए, या रक्षामंत्री सेना से बाहर से सलाह ले सकते हैं. यह किसी एक सेना के पूर्वाग्रह की समस्या से निपटने में मदद कर सकती है, जो उसके अपने विशेष हितों की सुरक्षा के लिए होता है. वे समाधान का हिस्सा बनने की जगह समस्या का हिस्सा बन सकते हैं.

फौजी पृष्ठभूमि वाला रक्षामंत्री पाना फिलहाल व्यावहारिक नहीं होगा, इसलिए रक्षा मंत्रालय में स्थायी सैन्य आयोग जैसी छोटी सामूहिक बहुद्देशीय संस्था का गठन एक उपाय हो सकता है. इस आयोग को आईडीयू और थिएटर कमांड जैसे मसलों की जांच करने और समाधान सुझाने का जिम्मा सौंपा जा सकता है. आगे यह उम्मीद की जा सकती है कि थिएटर कमांड से जुड़े कई मामले उभर सकते हैं, जिनमे कुछ अप्रत्याशित हो सकते हैं. इस तरह का आयोग उपयोगी होगा और उन्हें अपनी मुख्य जिम्मेदारियों पर ध्यान देने की गुंजाइश बना सकता है.

जाहिर है, रक्षा संबंधी सुधार राजनीतिक निगरानी और प्रोत्साहन के बिना मुमकिन नहीं हैं. परिवर्तन का विरोध स्वाभाविक है क्योंकि इससे सत्ता के आधारों में भी परिवर्तन होते हैं. नेता लोग इसे औरों के मुक़ाबले बेहतर समझते हैं. भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा हितों की मांग है कि राजनीतिक नेतृत्व तेजी से काम करे और मामलों को घिसटने न दे. समय हमारे लिए अनुकूल नहीं हो सकता है.

(अनुवाद : अशोक कुमार | संपादन : इन्द्रजीत)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(लेफ्टिनेंट जनरल (डॉ.) प्रकाश मेनन (रिटायर) तक्षशिला संस्थान में सामरिक अध्ययन कार्यक्रम के निदेशक; राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय के पूर्व सैन्य सलाहकार हैं. उनका ट्विटर हैंडल @prakashmenon51 है. व्यक्त विचार निजी हैं)


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