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Tuesday, 16 April, 2024
होममत-विमतदिल्ली में 48 घंटे में कोविड संकट पर काबू पा सकती है सेना और उसकी मदद लेने का समय आ गया है

दिल्ली में 48 घंटे में कोविड संकट पर काबू पा सकती है सेना और उसकी मदद लेने का समय आ गया है

सेना की पूरी क्षमता का उपयोग नहीं किया जा रहा है, न उन्हें निर्णय प्रक्रिया में शामिल किया जाता है और न सेना के प्रतिनिधियों से सलाह-मशविरा किया जाता है.

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कोविड-19 की दूसरी लहर के थपेड़े ने इसके लिए पर्याप्त तैयारी न करने वाले हमारे देश को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया. खासकर ऑक्सीजन जैसी बुनियादी सुविधाओं से वंचित भीड़ भरे अस्पतालों, मरीजों के इलाज और मृतकों की सामूहिक अन्त्येष्टि के लिए गिड़गिड़ाते असहाय लोगों की हृदय विदारक तसवीरों ने सरकारों और संस्थाओं की पोल खोल कर रख दी. फिर भी, सत्तातंत्र अपनी नाकाम स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था के बेहतर प्रबंधन के जरिए उसकी कार्यकुशलता बढ़ाने के अपने अंतिम साधन, सेना का उपयोग करने से कतराता रहा.

मेरे ख्याल से इसकी दो वजहें हैं. पहली तो यह कि सरकार को लगता है कि उसकी अक्षमता उजागर हो जाएगी; दूसरी यह कि सेना के आला कर्ताधर्ता सेना की क्षमताओं/ मूल दक्षताओं और सेनाओं के संसाधन के बेहतर उपयोग की संभावना के बारे में सरकार को सलाह देने में चूक गए. ऐसा लगता है कि वे अधिकार संपन्न विभिन्न कमेटियों से, जिनमें सेना के प्रतिनिधि शामिल नहीं होते, मिले निर्देशों का ही यंत्रवत पालन करते रहे.

पहली लहर के सबक

पहली लहर के दौरान सेना किनारे-किनारे ही रही, केवल विदेश में अटके भारतीयों के आने-जाने और उनके लिए आइसोलेशन सेंटर बनाने/चलाने का काम ही करती रही. सरकार सबसे गंभीर संकट-प्रवासी मजदूरों के पलायन- में सेना का उपयोग करने में विफल रही जबकि वह इससे बहुत अच्छी तरह से निबट सकती थी. इसने वायरस के फैलाव में इजाफा किया.

पिछले साल कोविड योद्धाओं के सम्मान में 3 मई को फ्लाई पास्ट, बैंड की प्रस्तुतियां, समुद्री पोतों की परेड और फूलों की वर्षा जैसे आयोजन में भारतीय सेना ने भूमिका निभाई थी. विडंबना यह थी कि उसी समय चीनी सेना पीपुल्स लिबरेशन आर्मी ने पूर्वी लद्दाख में पहले हमला कर दिया था. इसके बाद राष्ट्रीय सुरक्षा प्राथमिकता बन गई. यहां यह याद करना जरूरी है कि 1947-48 में हमने देश के बंटवारे के बाद शरणार्थियों की समस्या का सामना करते हुए जम्मू-कश्मीर में युद्ध भी लड़ा था.

सेनाओं ने बेहतर प्रबंधन के जरिए अपनी ताकत को असाधारण रूप से बचा कर रखा है. अधिकतर सैनिकों का टीकाकरण हो चुका है.

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इस युद्ध से सेना को अलग न रखें

कोविड की दूसरी लहर से मुक़ाबले में सेनाओं को ‘लेफ्ट आउट ऑफ बैटल’ न रखा जाए. ‘लेफ्ट आउट ऑफ बैटल’- आर्काइक मिलिट्री- जिसके तहत फौजी यूनिटें मौतों की भारी आशंका के मद्देनजर अपने पांच प्रतिशत फ़ौजियों को युद्ध से अलग रखती हैं ताकि यूनिट को फिर से संगठित किया जा सके. लेकिन इस बीच मूल्यवान समय गंवा दिया गया है. दूसरी लहर कितनी घातक होगी इसका अंदाजा 15 अप्रैल तक लग गया था और मैं तो सेना को इस बीच हरकत में देखना पसंद करता और उसे आपातकालीन योजना लागू करने के लिए बड़े शहरों और कमजोर स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था वाले जिलों में इस संकट का निपटारा करते देखना चाहता.

लेकिन अब तक बिना किसी समग्र योजना के आधे-अधूरे काम किए गए हैं. सेनाओं ने अपने कुछ अस्पतालों में 10-15 प्रतिशत बेड असैनिकों के लिए निश्चित कर दिए हैं. लेकिन इसके कारण ‘अपनों’ से ही टक्कर हो रही है क्योंकि अस्पताल पहले ही मरीज सैनिकों, उनके आश्रितों, और रिटायर्ड सैनिकों से भरे हुए हैं क्योंकि सेवानिवृत्त सैनिक ‘कंट्रीब्यूटरी हेल्थ स्कीम’ में सूचीबद्ध असैनिक अस्पतालों में भीड़ के कारण वे उनका लाभ नहीं ले सकते. सोशल मीडिया पर कई खबरें आ रही हैं कि सैनिकों के आश्रितों या रिटायर्ड सैनिकों को अस्पताल में भर्ती पाने में मुश्किल हो रही है. मंगलवार को खबरें थीं कि दिल्ली छावनी के बेस अस्पताल में ऑक्सीजन की कमी पड़ गई थी, हालांकि सेना ने बाद में इसका खंडन किया.
भारतीय वायुसेना और नौसेना ने विदेश से और देश के नादार भी ऑक्सीज़न के कंटेनररों और टैंकरों को ढोने का सराहनीय काम किया लेकिन आपात स्थिति में वितरण के काम में सेना के संगठन कौशल और परिवहन व्यवस्था का उपयोग नहीं किया गया.

डीआरडीओ ने आउटसोर्सिंग के जरिए अहमदाबाद, वाराणसी, लखनऊ, दिल्ली में कोविड अस्पताल तैयार किए. दिल्ली को छोड़ बाकी तीन शहर सत्ता दल के आला नेताओं के चुनाव क्षेत्र हैं. इन अस्पतालों का कामकाज सेना संभाल रही है और उसने इनके लिए डॉक्टरों, मेडिकल सहायता कर्मचारियों और मेडिकल साजोसामान बेहिसाब अनुपात में जुटाए हैं. यह संकट अभी फैल ही रहा है और सेना के पास कर्मचारियों की संख्या सीमित होती जा रही है.

मेरे विचार से सेना की पूरी क्षमता का अभी भी उपयोग नहीं किया जा रहा है. सेना को निर्णय प्रक्रिया में शामिल नहीं किया जा रहा है और सेना के प्रतिनिधियों से सलाह-मशविरा नहीं किया जा रहा है. इसका प्रमाण यही है कि पूरे भारत में कोविड महामारी की रोकथाम के उपायों में तालमेल और उनके नियंत्रण के लिए जो 11 अधिकार संपन्न समूह पिछले साल बनाए गए उनमें सेना का प्रतिनिधित्व नहीं है. यह स्थिति तब है जब सेना के पास इन समूहों के सभी दायरों को सीधे प्रभावित करने की क्षमता है. चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस) और सेनाओं के अध्यक्ष प्रधानमंत्री के साथ बहुचर्चित बैठकें कर चुके हैं. जब इन बैठकों के ब्योरे दर्ज नहीं किए जाते या उनमें कोई दिशा निर्देश नहीं दिया जाता तब इन बैठकों का आखिर क्या मतलब है?

सेना का सबसे अच्छा इस्तेमाल कैसे हो

टीवी पर और अखबारों के पन्नों पर हर रोज जो चिंताजनक खबरें आती हैं वे भारत के मौजूदा संकट का अंदाजा दे देती हैं. इनसे यही साफ होता है कि कोविड के खिलाग जंग में तालमेल की जिम्मेवारी कोई नहीं निभा रहा है. सरकारें अपने-अपने बंटे हुए खांचों में काम करती हैं और संकट के आगे बेबस साबित होती रहती हैं. दुनिया भर में यही चलता है.
भारतीय सेना में 15 लाख प्रशिक्षित लोग हैं, करीब-करीब उन सबको कोविड का टीका दिया जा चुका है, और वे पूरे देश में फैले हुए हैं. सेना की असली ताकत उसकी संगठन शक्ति और संकट से जूझने की उसकी क्षमता में निहित है. उसके पास काम करने वालों की विशाल फौज है और परिवहन के विशाल साधन हैं. महामारी से सबसे ज्यादा परेशान शहरों/कस्बों/इलाकों में कोविड से जंग का जिम्मा सेना को संभालना चाहिए. इस जंग के तालमेल के लिए ‘वार रूम’ बनाए जाने चाहिए.

ऑक्सीजन के अलावा दूसरे मेडिकल संसाधानों की उगाही/ढुलाई/आवंटन; अस्पतालों में बेड का आवंटन’ मरीजों तथा मृतकों की आवाजाही का समन्वय सेना को सौंपना चाहिए. मुझे इस बात का कोई कारण नहीं दिखता कि दिल्ली में 48 घंटे के भीतर स्थिति को क्यों नहीं पलटा जा सकता. लेकिन इसके लिए सरकार सेना को जिम्मा और संसाधन औपचारिक रूप से सौंपना होगा.

सेना में 13,000 अधिकारी (डॉक्टर/स्पेशलिस्ट/नर्स आदि) और 1 लाख सहायक मेडिकल कर्मचारी हैं. अनुभवी अधिकारी और मेडिकल कर्मचारी मौजूदा संसाधन में दोगुना इजाफा कर सकते हैं. सेना के 130 अस्पताल सैनिकों, उनके आश्रितों, सेवानिवृत्त फ़ौजियों की देखभाल कर रहे हैं और असैनिक मरीजों के उपचार की क्षमता में 10-15 प्रतिशत की वृद्धि कर सकते हैं.

सेना में 100-100 बेड वाले 100 फील्ड अस्पताल बनाने की क्षमता है. निजी डॉक्टरों, मेडिकल छात्रों, और अतिरिक्त मेडिकल साजसामान की मदद से कम समय में ही कई अस्थायी अस्पताल बनाए जा सकते हैं. असैनिक अस्पतालों पर बढ़े बोझ के लिए इन संसाधनों का उपयोग किया जा सकता है. ‘वार रूम’ संकटग्रस्त इलाकों में फील्ड अस्पताल बनाने के बारे में फैसले कर सकते हैं. डीआरडीओ द्वारा बनाए गए ‘स्टैंड अलोन’ बड़े अस्पतालों में सेना के संसाधन झोंकने का उलटा ही असर हो सकता है.

सेना के इंजीनियर निर्धारित इमारतों/शेडों/ कारखानों आदि को अस्पताल में बदल सकते हैं और पहले से तैयार सामाग्री से नये अस्पताल बना सकते हैं. इन सबके लिए सेना को फंड, आइसीयू के यंत्र, वेंटिलेटर, दवाओं, और अन्य जरूरी सामान की जरूरत होगी. ‘वार रूम’ घर-घर जाकर टीका लगाने के कार्यक्रम का समन्वय कर सकते हैं.

कोविड के खिलाफ हमारी जंग संगठन, समन्वयय, और प्रबंधन की कमजोरी के कारण कमजोर पड़ती है. सरकार को अपना अंतिम उपाय झोंक देना चाहिए, जिसकी क्षमता उसमें है. भारत को इस संकट की विकरालता के अनुरूप ईमानदार, अनुशासित, और तेज बड़ी कार्रवाई करने की जरूरत है. ऐसी कार्रवाई कौन कर सकता है, इस सवाल के जवाब में जिस संगठन का नाम जेहन में उभरता है वह है-भारतीय सेना!

(ले.जन. एचएस पनाग, पीवीएसएम, एवीएसएम (रिटायर्ड) ने 40 वर्ष भारतीय सेना की सेवा की है. वो जीओसी-इन-सी नॉर्दर्न कमांड और सेंट्रल कमांड रहे हैं. रिटायर होने के बाद वो आर्म्ड फोर्सेज ट्रिब्यूनल के सदस्य रहे. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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