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Friday, 3 May, 2024
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कृषि क्षेत्र में तेजी से बढ़ रहा MP लेकिन पंजाब की हरित क्रांति की ‘विफलताओं’ की गूंज दे रही सुनाई

मध्य प्रदेश ने पिछले दो दशकों में रिकॉर्ड खाद्यान्न उत्पादन किया है लेकिन राज्य के सामने खतरे के भी कई कारण मौजूद हैं. इस चुनावी मौसम में किसानों के पास समस्याओं की लंबी फेहरिस्त है.

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नर्मदापुरम/भोपाल: मध्य प्रदेश ने पिछले दो दशकों में रिकॉर्ड खाद्यान्न उत्पादन किया है और गेहूं उत्पादन में हरियाणा और पंजाब को पीछे छोड़ दिया है और ‘सोया राज्य’ का खिताब अर्जित किया. राज्य की अर्थव्यवस्था में लगभग आधा हिस्सा कृषि का है लेकिन चेतावनी के संकेत उभर रहे हैं कि यह उछाल कम हो सकता है, जो पंजाब की हरित क्रांति के बाद की स्थिति की याद दिलाता है. इस चुनावी मौसम में किसानों की कई समस्याएं हैं.

राज्य की राजधानी भोपाल से 20 किमी दूर रतुआ गांव के सुनील जाट शुरू से ही एमपी की कृषि सफलता की कहानी का हिस्सा रहे हैं. वह जून-जुलाई में खरीफ की बुआई सीज़न में सोयाबीन उगाते हैं और अक्टूबर-नवंबर की रबी सीज़न में गेहूं की फसल लगाते हैं. हालांकि सुनील 20 साल से खेती कर रहे हैं लेकिन उनकी जिंदगी में ज्यादा बदलाव नहीं आया है.

भोपाल मंडी में खड़े होकर, जहां उन्होंने अभी-अभी अपनी 2 एकड़ सोयाबीन की फसल 3,800 रुपये प्रति क्विंटल की दर से बेची थी, सुनील खुश होने की बजाय थोड़े हताश नजर आए.

उन्होंने कहा, “पहले की तुलना में उत्पादन बहुत बढ़ गया है. अब हम पहले की तुलना में अधिक उगाते हैं लेकिन उत्पादन की लागत हमारी आय से अधिक बढ़ गई है.”

भोपाल मंडी में अनाज के दाम व्यापारी तय करते हैं. एमपी में कृषि उपज मंडी समिति (एपीएमसी) प्रणाली लागू है. एपीएमसी एक राज्य सरकार द्वारा स्थापित विपणन बोर्ड है जिसका उद्देश्य किसानों को बड़े खुदरा विक्रेताओं द्वारा संभावित शोषण से बचाना है | फोटो: कृष्ण मुरारी | दिप्रिंट

सुनील जाट अपने बच्चों को शिक्षित करने के लिए दृढ़ संकल्पित हैं ताकि उनके पास करियर के अन्य विकल्प भी हों. उन्होंने आगे कहा, “मैं नहीं चाहता कि उन्हें खेती में भी इसी तरह की परेशानियों का सामना करना पड़े जैसा मुझे झेलना पड़ रहा है.”

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लेकिन सिर्फ आंकड़ों के आधार पर कृषि क्षेत्र मध्य प्रदेश में एक अच्छी तस्वीर पेश करता है.

राज्य का खाद्यान्न उत्पादन (चावल, गेहूं, मोटा अनाज और दालें) 2011-12 में 149 लाख टन से दोगुना से अधिक होकर 2021-22 में 349 लाख टन हो गया, जो 9.12 प्रतिशत की चक्रवृद्धि वार्षिक वृद्धि दर (सीएजीआर) है.

राज्य की अर्थव्यवस्था में भी कृषि सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है. 2021-22 में मध्य प्रदेश की अर्थव्यवस्था में कृषि का 47 प्रतिशत हिस्सा था और सकारात्मक वृद्धि (5.2 प्रतिशत) दर्ज करने वाला एकमात्र क्षेत्र था. राज्य की लगभग 72 प्रतिशत आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है, जो दर्शाता है कि लगभग चार में से तीन लोग किसी न किसी तरह से खेती से जुड़े हुए हैं.

कृषि विशेषज्ञ खाद्य फसल उत्पादन में वृद्धि का श्रेय चार प्रमुख कारकों को देते हैं: बेहतर सिंचाई, किसानों को शून्य प्रतिशत ब्याज पर दिया गया ऋण, उच्च गुणवत्ता वाले बीजों की उपलब्धता, राज्य भर में अच्छा सड़क नेटवर्क.

सीहोर कृषि महाविद्यालय के पूर्व डीन एचडी वर्मा ने कहा, “बेहतर परिवहन के कारण, किसानों को स्थानीय बाजारों की तुलना में अन्य स्थानों पर बेहतर कीमतें मिल रही हैं. रीवा, शहडोल और सतना जैसे जिलों में सिंचाई की कोई सुविधा नहीं थी लेकिन बरगी परियोजना के माध्यम से वहां भी पानी की आपूर्ति की गई.”

लेकिन जबकि मध्य प्रदेश की आर्थिक विकास की कहानी कृषि द्वारा संचालित है लेकिन इससे किसानों के जीवन की गुणवत्ता या प्रति व्यक्ति आय में सुधार नहीं हुआ है. फर्टिलाइजर का बहुत उपयोग, मिट्टी के क्षरण और घटते जल संसाधनों ने भी सफलता की गाथा को धूमिल कर दिया है.


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‘कृषि पर काफी निर्भर है मध्य प्रदेश की अर्थव्यवस्था’

राज्य कृषि विभाग के अनुसार, मध्य प्रदेश की कृषि विकास दर 2002-03 में 3 प्रतिशत थी, जो 2020-21 में बढ़कर 18.89 प्रतिशत हो गई है. यह उल्लेखनीय वृद्धि गुजरात, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश और राजस्थान जैसे पड़ोसी राज्यों से कहीं अधिक है.

मध्य प्रदेश भारत में सोयाबीन का सबसे बड़ा उत्पादक है, जो देश में आधे से ज्यादन सोयाबीन का उत्पादन करता है. यह उत्तर प्रदेश के बाद गेहूं का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक भी है.

Graphic: Manisha Yadav | ThePrint
ग्राफिक: मनीषा यादव/दिप्रिंट

जबकि पिछले दशक में सोयाबीन के उत्पादन में कुछ उतार-चढ़ाव आए हैं, पिछले कुछ वर्षों में यह फिर से बढ़ गया है, जो 2019-20 में 3,856 हजार मीट्रिक टन से बढ़कर 2022-23 में 6,401 हजार मीट्रिक टन हो गया है.

मध्य प्रदेश में गेहूं का उत्पादन 2013-14 में 174.8 लाख मीट्रिक टन (एमटी) से बढ़कर 2021-22 में 349.23 लाख मीट्रिक टन हो गया.

Graphic: Manisha Yadav | ThePrint
ग्राफिक: मनीषा यादव/दिप्रिंट

इस साल की शुरुआत में मध्य प्रदेश ने लगातार सातवीं बार खाद्यान्न उत्पादन के लिए भारत सरकार का प्रतिष्ठित कृषि कर्मण पुरस्कार जीता.

भोपाल कृषि विभाग के वरिष्ठ अधिकारी स्वदेश श्रीवास्तव ने मध्य प्रदेश के कृषि विकास का श्रेय लंबे समय से चल रही सरकारी योजनाओं को दिया.

उन्होंने कहा, “सरकार इनपुट आपूर्ति पर ज़ोर देती है.” उन्होंने कहा, “किसान रथ यात्राओं के माध्यम से हर गांव को कवर किया गया, जहां किसानों की समस्याएं सुनी गईं. कृषि मेले भी नियमित रूप से आयोजित किए गए हैं.”

श्रीवास्तव ने कहा कि 2017 में शुरू की गई मध्य प्रदेश सरकार की भावांतर भुगतान योजना के कारण अधिक किसान गेहूं की खेती की ओर आकर्षित हुए, जिसने किसानों को एमएसपी और उनकी फसलों के बिक्री मूल्य के बीच अंतर की भरपाई की.

श्रीवास्तव ने कहा, “गेहूं एक ऐसी फसल है जिस पर मौसम का असर कम होता है और नुकसान भी कम होता है. वर्तमान में राज्य में गेहूं का औसत उत्पादन 38 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.” प्रमुख गेहूं उत्पादक जिलों में नरसिंहपुर, नर्मदापुरम (पहले होशंगाबाद), सीहोर, रायसेन, भोपाल, विदिशा, सागर, दमोह, उज्जैन, इंदौर, खरगोन और सतना शामिल हैं.

कई अन्य योजनाओं से भी राज्य में खेती को बढ़ावा मिला है.

कृषि विभाग के अनुसार, दिसंबर 2022 तक, मध्य प्रदेश में 74.11 लाख किसानों को किसान क्रेडिट कार्ड (केसीसी) जारी किए गए हैं, जिनमें से 39.63 लाख अकेले सहकारी बैंकों द्वारा जारी किए गए थे.

किसानों को साहूकारों के चंगुल से बचाने के लिए सरकार शून्य प्रतिशत ब्याज पर 3 लाख रुपये तक का ऋण भी उपलब्ध करा रही है. राज्य सरकार मुख्यमंत्री किसान कल्याण योजना के तहत किसानों को सालाना 6,000 रुपये भी देती है.

2022-23 में राज्य ने अपने कुल व्यय का 6.4 प्रतिशत कृषि के लिए आवंटित किया, जो राज्यों द्वारा कृषि के लिए औसत आवंटन, जो 5.8 प्रतिशत है, से अधिक है.

भोपाल में भारतीय विज्ञान शिक्षा एवं अनुसंधान संस्थान (आईआईएसईआर) के आर्थिक विज्ञान विभाग में सहायक प्रोफेसर बिस्वजीत पात्रा ने कहा, “जैसा कि बजट दस्तावेजों से पता चलता है, मध्य प्रदेश ने खुद को कृषि अर्थव्यवस्था की ओर आगे बढ़ाया है.”

Farmers with their soybean harvest in Bhopal mandi

उन्होंने कहा, “मध्य प्रदेश की सिंचाई योजनाएं और कृषि ऋण योजनाएं इस कृषि विकास दर के पीछे हैं, जिससे लोगों को फायदा हुआ.” उन्होंने कहा कि यह क्षेत्र राज्य में कई लोगों को रोजगार देता है.

पात्रा ने कहा कि पिछले एक दशक में राज्य कृषि उत्पादन की वृद्धि ट्रैक्टरों की बिक्री से भी परिलक्षित होती है. हालांकि हालिया डेटा उपलब्ध नहीं था लेकिन इंडियन काउंसिल फॉर रिसर्च ऑन इंटरनेशनल इकोनॉमिक रिलेशंस (ICRIER) के विश्लेषण के अनुसार, राज्य में ट्रैक्टर की बिक्री 2008-09 में सालाना 24,306 इकाइयों से लगभग चार गुना बढ़कर 2013-14 में 87,831 इकाइयों से अधिक हो गई.

हालांकि, पात्रा ने स्वीकार किया कि राज्य की आर्थिक वृद्धि “हमेशा किसानों की आय में प्रतिबिंबित नहीं होती”.


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‘किसान सिर्फ चुनावी मुद्दा हैं’

मध्य प्रदेश के कुल भूमि क्षेत्र के आधे हिस्से पर खेती होती है और राज्य में 98.44 लाख से अधिक किसान हैं. इनमें से लगभग 76 प्रतिशत छोटे और सीमांत किसान हैं.

किसानों और विशेषज्ञों ने कहा कि विकास की कहानी के पीछे की जमीनी हकीकत चिंताजनक है- खेती की लागत में बढ़ोतरी, स्थिर आय और बाजार सुरक्षा की कमी. भंडारण सुविधाओं की कमी के कारण फसलें खराब हो जाती हैं, यह भी किसानों की एक बड़ी शिकायत है.

सागर में हरि सिंह गौर विश्वविद्यालय के प्रोफेसर और मानवविज्ञानी राजेश कुमार गौतम ने कहा कि फसल पैटर्न में बदलाव से मध्य प्रदेश में कृषि उत्पादन में वृद्धि हुई है लेकिन किसान अभी भी संघर्ष कर रहे हैं.

सोयाबीन की फसल बेचने के लिए बैरसिया मंडी के बाहर खड़ा किसान | फोटो: कृष्ण मुरारी | दिप्रिंट

उन्होंने कहा, “मध्य प्रदेश में भूमि जोत पहले से ही बहुत छोटी है और पारिवारिक विभाजन के कारण और भी छोटी होती जा रही है, जिसका सीधा असर व्यक्तिगत आय पर पड़ रहा है.”

श्रम, उपकरण और अन्य कृषि आवश्यक वस्तुओं की इनपुट लागत भी बढ़ गई है. भारतीय मृदा विज्ञान संस्थान के पूर्व निदेशक अशोक पात्रा ने कहा, “कृषि में लागत कम होने पर ही आय बढ़ेगी.”

किसान नेता राहुल राज ने कहा, “खेती की लागत व्यावहारिक नहीं है. ग्रामीण अर्थव्यवस्था किसानों पर निर्भर है लेकिन किसान केवल एक चुनावी मुद्दा बन गया है जिसे कोई हल नहीं करना चाहता.”

राज्य विधानसभा चुनावों से पहले, भाजपा और कांग्रेस किसानों को साधने में लगी है.

मध्य प्रदेश कांग्रेस ने पोस्टर लगाए हैं, जिन पर लिखा है, “18 साल किसान बदहाल बस बहुत हुआ. वोट नहीं, माफी मांगो शिवराज.”

कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में कृषि ऋण माफ करने, सिंचाई के लिए मुफ्त 5 हॉर्स पावर बिजली देने, 2 रुपये प्रति किलोग्राम पर गोबर खरीदने, किसानों के खिलाफ पुराने मामलों को खत्म करने और उनके बिजली बिल माफ करने का भी वादा किया है. कांग्रेस नेता कमलनाथ ने दावा किया है कि उनकी पार्टी के 15 महीने के शासन के दौरान 27 लाख किसानों का कर्ज माफ किया गया.

इस बीच भाजपा कह रही कि चौहान सरकार ने पहले ही पांच हॉर्स पावर पंप का उपयोग करने वाले किसानों को सब्सिडी दी है, महामारी के दौरान बिजली का बकाया माफ कर दिया है, किसानों के खिलाफ मामले वापस ले लिए हैं और प्रति दिन 12 घंटे बिजली देना शुरू कर दिया है.

लेकिन इस चुनावी मौसम में किसानों की कई शिकायतें हैं.

किसान नेता राज ने कहा, “मध्य प्रदेश में जो खाद्यान्न उत्पादन बढ़ा है वह ज्यादातर मालवा क्षेत्र और नर्मदा घाटी में है. और किसानों के सामने असली चुनौती फसलों की खरीद है.”

उनके अनुसार, किसान मुख्य रूप से गेहूं, धान और सोयाबीन जैसी उच्च नकदी क्षमता वाली फसलों की खेती करते हैं, जबकि वैकल्पिक फसलों की खेती में लगे लोगों को अक्सर वित्तीय चुनौतियों का सामना करना पड़ता है.

राज ने मंदसौर में 2017 के किसान आंदोलन की ओर इशारा किया, जब पुलिस द्वारा छह प्रदर्शनकारियों की गोली मारकर हत्या कर दी गई, जिससे 2018 के चुनाव से पहले एक बड़ा राजनीतिक विवाद पैदा हो गया. किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य में बढ़ोतरी की मांग को लेकर प्रदर्शन कर रहे थे.

उस समय, मध्य प्रदेश सरकार ने फसल विविधीकरण को प्रोत्साहित किया था, जिससे कई किसानों ने प्याज की खेती की ओर रुख किया. हालांकि, सरप्लस उत्पादन के कारण, किसानों ने दावा किया कि उन्हें पर्याप्त कीमतें नहीं मिलीं.

विशेष रूप से, रूस-यूक्रेन संघर्ष के मद्देनजर खुले बाजार में कीमतों में बढ़ोतरी के कारण गेहूं की खरीद भी असंतुलित हो गई.

Graphic: Manisha Yadav | ThePrint
ग्राफिक: मनीषा यादव/दिप्रिंट

मध्य प्रदेश के 2022-23 आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार, गेहूं की खरीद 2021-22 में 128.15 से घटकर 2022-23 में 46.03 मीट्रिक टन हो गई.

किसान अन्य प्रणालीगत मुद्दों पर भी जोर देते हैं जैसे कृषि-प्रसंस्करण क्षेत्र में विकास की कमी, विशेष रूप से ऑइल सीड उद्योग के लिए सोयाबीन और इथेनॉल उत्पादन के लिए गेहूं जैसे संसाधनों के दोहन में.

इसके अलावा, सरकारी मंडियां अपर्याप्त भंडारण सुविधाओं से ग्रस्त हैं, जिसके परिणामस्वरूप बरसात के मौसम में फसल खराब हो जाती है. उदाहरण के लिए, इसी साल सितंबर में मंदसौर मंडी में बारिश की भेंट चढ़ने से सैकड़ों क्विंटल लहसुन बर्बाद हो गया.

राज्य में कोल्ड स्टोरेज की भी कमी है और इसका अधिकांश हिस्सा निजी कंपनियों के हाथ में है. राज्य में 250 कोल्ड स्टोरेज में से केवल पांच सरकार द्वारा संचालित हैं.

पहले उद्धृत किसान सुनील जाट ने कहा, “छोटे किसानों के पास फसल को कोल्ड स्टोरेज में रखने का विकल्प नहीं है. निजी कोल्ड स्टोरेज में फसल भंडारण की लागत बहुत अधिक है. केवल बड़े किसान ही ऐसा कर सकते हैं.”


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सिंचाई परियोजनाएं- एक वरदान

पेयजल और कृषि दोनों के लिए नर्मदा नदी मध्य प्रदेश की जीवन रेखा है.

पिछले दो दशकों में, मध्य प्रदेश ने खेती की सुविधा के लिए नर्मदा नदी के पानी को खेतों तक पहुंचाने के उद्देश्य से कई सिंचाई परियोजनाएं शुरू की हैं.

राज्य सिंचाई विभाग के आंकड़ों से पता चलता है कि पिछले तीन वर्षों में ही 179 नई सिंचाई परियोजनाएं शुरू की गई हैं, जिससे सिंचाई क्षमता में काफी वृद्धि हुई है. 2013 में, राज्य की सिंचाई क्षमता 7.5 लाख हेक्टेयर थी लेकिन 2023 तक यह बढ़कर 47 लाख हेक्टेयर हो गई, जिसे 2025 तक 65 लाख हेक्टेयर तक विस्तारित करने का लक्ष्य है. वर्तमान में 475 नई सिंचाई परियोजनाएं प्रगति पर हैं.

विधानसभा चुनाव से पहले सीएम चौहान ने सिंचाई परियोजनाओं को भी प्राथमिकता दी है. पिछले कुछ महीनों में उन्होंने हरदा, नर्मदापुरम, खंडवा, अलीराजपुर और खरगोन जिलों सहित दर्जनों सिंचाई परियोजनाओं की आधारशिला रखी है.

Irrigation canal
इटारसी के जमानी गांव के पास एक नहर. नहर क्षेत्र में सिंचाई का एक महत्वपूर्ण स्रोत है | फोटो: कृष्ण मुरारी | दिप्रिंट

जल आपूर्ति की प्रचुरता होने के साथ, नर्मदा नदी के आसपास के क्षेत्रों में कृषि में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं.

इटारसी कॉलेज में अर्थशास्त्र के पूर्व प्रोफेसर डॉ. कश्मीर सिंह उप्पल ने कहा कि 1970 और 1980 के दशक तक नर्मदापुरम और इसके आसपास के इलाकों में मोटे अनाज और अरहर की खेती व्यापक रूप से की जाती थी. हालांकि, 1972 में जब तवा बांध बनाया गया, तो किसानों ने इसके बजाय गेहूं और चावल उगाना शुरू कर दिया.

नर्मदापुरम (पहले होशंगाबाद) के ज़मानी गांव के निवासी किसान हेमंत दुबे ने कहा कि धान अब पारंपरिक फसलों की तुलना में अधिक लोकप्रिय है. उन्होंने कहा, “अब लोग सोयाबीन से भी अधिक धान उगाते हैं.”

दुबे ने कहा, इस क्षेत्र में एक और नया चलन है, खरीफ और रबी सीजन के बीच तीसरी फसल के रूप में मूंग की खेती.

जिला कृषि विभाग के प्रमुख जेआर हेडाऊ द्वारा साझा किए गए आंकड़ों के अनुसार, नर्मदापुरम जिले में मूंग की खेती 2014 में 62,000 हेक्टेयर से बढ़कर 2023 में 293,000 हेक्टेयर हो गई है, जिससे उत्पादन 1,150 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर से बढ़कर 1,600 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर हो गया है.

हालांकि, इसके कुछ दुष्प्रभाव भी सामने आए हैं, जिसमें मिट्टी पर बढ़ता दबाव और पराली जलाने की घटनाएं शामिल है.

नर्मदापुरम के इटारसी के किसान प्रशांत चौधरी ने कहा, “जैसे ही गेहूं की फसल कट जाती है, किसान खेतों को खाली करने के लिए आग लगाना शुरू कर देते हैं ताकि तीसरी फसल लगाई जा सके. मूंग की खेती में वृद्धि के साथ, आग की घटनाओं में भी काफी वृद्धि हुई है.”

2019 में नर्मदापुरम में पराली जलाने से कई गांव बड़े पैमाने पर प्रभावित हुए, जिसमें तीन लोगों की मौत हो गई.

सुनील नागले, नर्मदापुरम के केसला ब्लॉक के किसान और जिला कृषि समिति के सदस्य हैं. वह अपने 20 एकड़ खेत में धान, गेहूं और मूंग की खेती करते हैं. वह कहते हैं, “यहां की जमीन बहुत उपजाऊ है और पानी की कोई कमी नहीं है.” | फोटो: कृष्ण मुरारी | दिप्रिंट

केसला ब्लॉक, नर्मदापुरम के खटामा गांव के किसान अमर सिंघेकलमे ने कहा कि खेती पहले केवल प्रकृति पर निर्भर होती थी लेकिन अब बदलाव आया है. उन्होंने कहा, “जब पानी खेतों तक पहुंचने लगा तो लोगों ने फसलें बदल लीं. ट्यूबवेलों और नहरों के निर्माण के साथ, इस क्षेत्र में नई फसलें उगाई जाने लगीं.”

उप्पल ने बताया कि बेहतर सिंचाई सुविधाओं के कारण कृषि उत्पादन निस्संदेह बढ़ा है लेकिन इसके अपने खतरे हैं.

उन्होंने कहा, “सिंचाई में वृद्धि के साथ, इस क्षेत्र में रसायनों का उपयोग भी काफी बढ़ गया है. अब, हर गांव में रसायन बेचे जाते हैं, जो भूमि को प्रदूषित कर रहे हैं.”

नर्मदापुरम जिले में भी भूजल स्तर गिर रहा है.

उप्पल ने कहा, “पहले, पानी 70-80 फीट पर उपलब्ध था लेकिन अब यह 180 फीट तक पहुंच गया है. बोरवेल का जीवनकाल भी छोटा होता जा रहा है.” उन्होंने कहा, “गेहूं और धान जैसी फसलों को बहुत अधिक पानी की आवश्यकता होती है. इन फसलों को पैदा करने में बहुत अधिक पानी का उपयोग होता है. एक तरह से पानी भी एक अभिशाप बन गया है.”

लेकिन अगर कुछ क्षेत्रों में उत्पादन में बढ़ोत्तरी दिखी है, तो अभी भी मध्य प्रदेश का बहुत बड़ा इलाका सिंचाई के लिए बड़े पैमाने पर वर्षा जल पर निर्भर है.

एमपी कृषि सलाहकार समिति के पूर्व सदस्य केदार सिरोही कहते हैं, “मध्य प्रदेश में खेती करीब 180 लाख हेक्टेयर में होती है लेकिन सिंचाई सुविधा सिर्फ 45 लाख हेक्टेयर तक पहुंची है, यानि की पानी अभी भी केवल एक-चौथाई खेतों तक ही पहुंच रहा है. राज्य के आदिवासी क्षेत्रों में उत्पादन अभी भी बहुत कम है क्योंकि वे अभी भी वर्षा जल पर निर्भर हैं.”


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पंजाब की राह पर मध्य प्रदेश

उच्च उपज वाली फसल किस्मों, आधुनिक कृषि तकनीकों और उर्वरक के उपयोग में वृद्धि के साथ, 1960-70 के दशक की हरित क्रांति ने पंजाब को खाद्यान्न के शीर्ष उत्पादक, यानि कि ‘भारत की रोटी की टोकरी’ में बदल दिया.

हालांकि, इसकी कीमत पारिस्थितिक और आर्थिक दोनों दृष्टि से चुकानी पड़ी. रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के अत्यधिक उपयोग से मिट्टी का क्षरण, जैव विविधता की हानि और जल प्रदूषण हुआ. पंजाब की अर्थव्यवस्था भी कृषि पर अत्यधिक निर्भर थी, जिससे बेरोजगारी, शहरी प्रवासन और औद्योगिक विकास अवरुद्ध हो गया. पीछे देखने पर, क्रांति को अक्सर विफलता कहा जाता है.

कुछ विशेषज्ञों ने चिंता जताई है कि मध्य प्रदेश भी इसी रास्ते पर चल रहा है.

मोंगाबे की रिपोर्ट के अनुसार, नर्मदापुरम में मिट्टी उपजाऊ है और पानी की कोई कमी नहीं है लेकिन पिछले कुछ वर्षों में गेहूं का उत्पादन स्थिर हो गया है, जो 48-50 क्विंटल प्रति हेक्टेयर के बीच है.

उप्पल ने कहा कि उर्वरकों के “अंधाधुंध” उपयोग ने इस समस्या को बढ़ाया है.

उन्होंने कहा, “मध् यप्रदेश की भूमि अब ऐसी स्थिति में पहुंच गई है कि बिना दवाई के फसल ही नहीं देती. मिट्टी की गुणवत्ता लगातार खराब हो रही है.”

मध्य प्रदेश के आर्थिक सर्वेक्षण से पता चलता है कि पिछले पांच वर्षों में राज्य में उर्वरक का उपयोग दोगुना हो गया है. सीईआईसी के आंकड़ों के अनुसार, मध्य प्रदेश में 2021 में प्रति हेक्टेयर 96.4 किलोग्राम उर्वरक का उपयोग किया गया, जो 2020 में 93.060 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर से अधिक है.

उप्पल ने दिप्रिंट को बताया कि हरित क्रांति के बाद पंजाब में भी ऐसी ही स्थिति पैदा हुई और ऐसा लगता है कि मध्य प्रदेश भी उसी दिशा में आगे बढ़ रहा है.

उप्पल ने कहा, “मध्य प्रदेश ने पंजाब की कृषि पद्धतियों को अपनाया है लेकिन वहां की विफलताओं से सीख नहीं ली है. वर्तमान में, खाद्यान्न उत्पादन में वृद्धि हुई है लेकिन आने वाले कुछ दशकों में राज्य को संकट का सामना करना पड़ सकता है.”

प्रोफेसर वर्मा ने इन चिंताओं को दोहराया. उन्होंने कहा, “मौजूदा हालात को देखते हुए कहा जा सकता है कि भविष्य में नर्मदापुरम और हरदा पंजाब बन सकते हैं.”

हालांकि, नर्मदा घाटी विकास निगम के उपाध्यक्ष और मध्य प्रदेश के पूर्व सिंचाई सचिव एसएन मिश्रा ने कहा कि दोनों राज्यों की तुलना नहीं की जा सकती.

उन्होंने कहा, “मध्य प्रदेश ने पंजाब के विपरीत एक दीर्घकालिक रणनीति अपनाई है. राज्य में पाइप आधारित सिंचाई परियोजनाओं पर भी काम चल रहा है, जबकि जैविक खेती भी तेजी से बढ़ रही है.”

मृदा विशेषज्ञ अशोक पात्रा ने उर्वरक के अत्यधिक उपयोग के हानिकारक प्रभावों को स्वीकार करते हुए कहा कि मध्य प्रदेश में पंजाब की गलतियों को दोहराने की संभावना नहीं है.

उन्होंने कहा, “उस समय की तुलना में अब किसान अधिक जागरूक हैं और सरकार भी पर्यावरण पर ध्यान दे रही है.”


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जैविक खेती पर जोर

देवास के रहने वाले अमित दुबे ने अपनी कॉर्पोरेट नौकरी छोड़ दी और लगभग पांच साल पहले मध्य प्रदेश में जैविक खेती शुरू की.

उन्होंने कहा, “मध् यप्रदेश में बड़ी संख्या में लोग जैविक खेती कर रहे हैं. इस क्षेत्र में काफी संभावनाएं हैं, जिससे पूरी अर्थव्यवस्था को काफी फायदा हो सकता है.”

जहां मध्य प्रदेश उर्वरकों का उपयोग करके खाद्यान्न उत्पादन में वृद्धि जारी रख रहा है, वहीं यह जैविक खेती पर भी जोर दे रहा है.

कृषि विभाग के अनुसार, राज्य में जैविक खेती के तहत देश में सबसे बड़ा 16.37 लाख हेक्टेयर क्षेत्र है.

पिछले साल, मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने घोषणा की थी कि मिट्टी के स्वास्थ्य और उत्पादकता को बहाल करने के उपाय के रूप में राज्य के 5,200 गांवों में “प्राकृतिक खेती” शुरू की जाएगी, जो उर्वरकों के अत्यधिक उपयोग के कारण क्षतिग्रस्त हो गई थी.

सरकार ने 2015-16 में परंपरागत कृषि विकास योजना (पीकेवीवाई) भी शुरू की, जो जैविक खेती के लिए व्यापक वित्तीय सहायता देती है.

प्रोफेसर एचडी वर्मा ने कहा कि जैविक खेती को व्यापक रूप से अपनाने से मध्य प्रदेश को दीर्घकालिक समस्याओं से बचाया जा सकता है.

उन्होंने कहा, “शुरुआती वर्षों में इससे (किसानों को) नुकसान हो सकता है क्योंकि उत्पादन में कमी आएगी लेकिन सरकार मुआवजा देकर इसे संतुलित कर सकती है.”

(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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