scorecardresearch
Saturday, 27 April, 2024
होमफीचरहिंदू मंदिरों का संचालन किसे करना चाहिए? तमिलनाडु इस नई रस्साकशी का केंद्र है

हिंदू मंदिरों का संचालन किसे करना चाहिए? तमिलनाडु इस नई रस्साकशी का केंद्र है

तमिलनाडु का HR&CE विभाग इस लड़ाई में सबसे आगे है. उन्हें मंदिरों को जातिवादी कुप्रथा से बचाने का श्रेय दिया जाता है, लेकिन उन पर मंदिरों के कुप्रबंधन और पुजारियों को उनके अधिकारों से वंचित करने का भी आरोप है.

Text Size:

चेन्नई: जब तमिल ब्राह्मण पुजारी रामचंद्रन को अयोध्या के एक मंदिर में काम करने का निमंत्रण मिला, तो उनका पहला विचार ‘न’ कहने का था. उनकी प्राथमिकता कहीं और थी-तमिलनाडु में अपने मंदिर को राज्य सरकार के नियंत्रण से छीनना.

उनके मन में, राज्य तमिल मंदिरों से उनकी ज़मीन, गहने और वाजिब कमाई लूटना चाहता है. और रामचंद्रन अकेले नहीं हैं – उनकी शिकायत अब नए मंदिर स्वतंत्रता आंदोलन का हिस्सा है जो तमिलनाडु, कर्नाटक, उत्तराखंड, ओडिशा, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश और पश्चिम बंगाल में चल रहा है. हालांकि, इसका केंद्र तमिलनाडु है.

मंदिर के पूसारी या पुजारी, रामचंद्रन ने कहा, “डीएमके सरकार हम हिंदुओं की स्थिति पर हंस रही है.” उन्होंने कहा कि सरकार हिंदुओं का उपहास और अपमान करना चाहती है. उन्हें हमारे दर्द की परवाह नहीं है.”

राज्य में मंदिर प्रबंधन द्रविड़ सामाजिक न्याय की राजनीति के सात दशकों में बना है. इसे कई दलित और ओबीसी समूहों के बीच एक टेम्पलेट के रूप में रखा गया है, लेकिन समय के साथ हिंदू समूहों के बीच भी इसमें काफी मतभेद और खटास पैदा हो गई है.

इस सप्ताह, यह सवाल कि धन-संपदा से संपन्न हिंदू मंदिरों को कौन चलाता है, को लेकर एक बार फिर राजनीतिक विवाद पैदा हो गया. कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने हाल ही में हिंदू धार्मिक संस्थान और धर्मार्थ बंदोबस्ती (संशोधन) विधेयक पारित किया, जो सरकार को 1 करोड़ रुपये से अधिक राजस्व वाले मंदिरों से 10 प्रतिशत टैक्स इकट्ठा करने का अधिकार देता है. भाजपा के मंत्री राजीव चन्द्रशेखर ने इसे नया जजिया कर कहा, जिससे जनता के बीच हिंदुओं पर औरंगजेब के शासन की परेशान करने वाली यादें ताजा हो गईं. कर्नाटक का यह स्पष्टीकरण कि इस धन से राज्य के गरीब पुजारियों को लाभ होगा, भाजपा के तुष्टीकरण की राजनीति के आरोपों के शोर में खो गया है.

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें

मुक्त हिंदू मंदिर आंदोलन

रामचंद्रन की प्रतिक्रिया तमिलनाडु सरकार और मुख्य रूप से ब्राह्मण समुदाय द्वारा मंदिरों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त करने के लिए चलाए जा रहे अभियान के बीच दशकों पुरानी लड़ाई का हिस्सा है. राज्य 46,000 से अधिक मंदिरों का घर है, जिनमें देश के कुछ सबसे पुराने और सबसे पवित्र मंदिर भी शामिल हैं. भारत के अन्य राज्य तमिलनाडु और उसके 1959 के हिंदू धार्मिक और धर्मार्थ बंदोबस्ती (एचआर एंड सीई) अधिनियम को मंदिर प्रशासन के ब्लूप्रिंट के रूप में देखते हैं, लेकिन कई लोग सरकार की भूमिका को हिंदू धर्म में सीधे हस्तक्षेप के रूप में देखते हैं.

डीएमके सरकार हम हिंदुओं की स्थिति पर हंस रही है.’ उन्हें हमारे दर्द की कोई परवाह नहीं है.
-रामचंद्रन, मंदिर पुजारी

तमिलनाडु द्वारा मंदिर नियंत्रण को एक गर्म राजनीतिक मुद्दा बनाने से बहुत पहले, ईस्ट इंडिया कंपनी के एजेंटों ने सबसे पहले धार्मिक बंदोबस्ती अधिनियम 1863 के माध्यम से भारत के मंदिरों और मस्जिदों पर कब्जा कर लिया था. मंदिरों को ब्रिटिश राज के लिए धन और किराए के स्रोत के रूप में देखा जाता था.

हालांकि, तमिलनाडु में राज्य का नियंत्रण 20वीं सदी के मध्य में द्रविड़ आंदोलन के बाद आया, जिसमें मांग की गई थी कि मंदिर में प्रवेश के बाद तार्किक कदम मंदिरों पर ब्राह्मणों के एकाधिकार को समाप्त करना था. इसके इर्द-गिर्द गुस्सा एक बुनियादी सवाल को लेकर है: कौन तय करेगा कि मंदिर कैसे चलाए जाएं?

एक तरफ द्रमुक सरकार और जाति-विरोधी कार्यकर्ता हैं जो इस बात पर जोर देते हैं कि मंदिरों को जातिवाद से मुक्त करने के लिए सरकार द्वारा चलाया जाना चाहिए. दूसरी तरफ मुक्त हिंदू मंदिर आंदोलन है, जो द्रमुक सरकार पर मंदिरों की सुरक्षा और प्रबंधन करने में विफल रहने और इसके बजाय उनकी भूमि और धन का दुरुपयोग करने का आरोप लगाता है. दोनों पक्ष मंदिर के संसाधनों के प्रबंधन के अधिकार की वकालत करते हैं – लेकिन कोई भी पक्ष आमने-सामने नहीं बैठता.

A temple priest monitors donations on his laptop | Vandana Menon | ThePrint
मंदिर का एक पुजारी अपने लैपटॉप पर दिए गए दान को चेक करता हुआ| वंदना मेनन | दिप्रिंट

पेरियार ने मंदिरों में जाति-आधारित भेदभाव को समाप्त करने को अपना मिशन बनाया और गैर-ब्राह्मण अर्चकों या पुजारियों की नियुक्ति के लिए अभियान चलाया. पिछली सदी में तमिलनाडु सरकार द्वारा किए गए कई बदलाव – जैसे कि मुफ्त मंदिर प्रवेश, गैर-ब्राह्मण पुजारियों की नियुक्ति, आत्म-सम्मान विवाह और तमिल में न कि संस्कृत में प्रार्थना – को हिंदुओं के अधिकारों पर अतिक्रमण और पूजा की प्रकृति को मौलिक रूप से बदलने के रूप में देखा गया है. भाजपा भी मैदान में उतर आई है और सवाल कर रही है कि मस्जिदों और चर्चों को मुस्लिम और ईसाई समुदाय के सदस्यों द्वारा चलाने की अनुमति क्यों दी जाती है.

आईटी मंत्री पलानिवेल थियागा राजन ने कहा, “पिछली सदी में द्रविड़ आंदोलन का सामूहिक प्रभाव पूरे तमिलनाडु में आस्था का लोकतंत्रीकरण करना रहा है, न कि आस्था के मामलों को आनुवंशिकता के आधार पर कुछ चुनिंदा लोगों के हाथों में सौंपना.” पलानिवेल के पिता HR&CE मंत्री थे और उनका परिवार मदुरै में ऐतिहासिक मीनाक्षी अम्मन मंदिर के ‘वन थाउजेंड पिलर हॉल’ और ‘चिथिराई टॉवर’ के निर्माताओं का वंशज है.

यह राज्य भारत में सबसे अधिक संख्या में पर्यटकों को आकर्षित करता है, जिनमें घरेलू पर्यटक भी शामिल हैं जो तमिल मंदिरों के दर्शन के लिए आते हैं. वर्ष 2023 की पहली तिमाही में 12 करोड़ से अधिक घरेलू पर्यटकों का राज्य में आगमन हुआ.

पीटीआर ने कहा, “तमिलनाडु में हिंदू धर्म द्रविड़वाद के कारण फला-फूला है, न कि इसके बावजूद. ऐसा इसलिए है क्योंकि हमने सभी लोगों को मंदिरों तक पूर्ण और न्यायसंगत पहुंच प्रदान की है, और लोगों और उनके देवताओं के बीच अंतर को बंद कर दिया है. तमिलनाडु में हिंदू धर्म के अनुयायियों की संख्या सबसे अधिक है. तमिलनाडु मंदिरों की भूमि है, लेकिन यह सामाजिक न्याय की भी भूमि है.”


यह भी पढ़ेंः ‘हिंदुस्तान हिंदुओं का है’- इंस्टा, कैमरा और राम मंदिर तक का सफर, सब कुछ ऑनलाइन पोस्ट करना क्यों है जरूरी


मंदिरों को मुक्त कराने का मामला

कार्यकर्ता टीआर रमेश अकेले ही ऐसे व्यक्ति हैं जो कि एचआर एंड सीई विभाग पर निगरानी रखते हैं. वह अकेले ही उन्हें जवाबदेह ठहराने और उन्हें पारदर्शी बनाए रखने की कोशिश कर रहे हैं.

पूर्व सिटीबैंक पेशेवर एचआर एंड सीई अधिनियम को बहुत बेहतर तरीके से जानते हैं और वह आमतौर पर पूरे तमिलनाडु में विभिन्न मंदिरों के प्रशासन के संबंध में दायर जनहित याचिकाओं और रिट याचिकाओं को लेकर अदालत में ही दिखते हैं. उनके मायलापुर घर का सामने वाला कमरा उनकी सक्रियता को दिखाता है, उनकी डेस्क विभाग की डेस्क की तरह फाइलों और दस्तावेजों से भरी हुई है.

रमेश ने इस काम के लिए पिछले 15 साल समर्पित कर दिए हैं, और यह साबित करने की अपनी लड़ाई में कि अगर सरकार के नियंत्रण से मुक्त किया जाए तो मंदिर अधिक कुशलता से काम कर सकते हैं, उन्होंने कड़ी मेहनत से सदियों के दस्तावेज़ों को खंगाला है.

रमेश ने कहा, ”मंदिरों को मुक्त कराने से वे सशक्त होंगे. यदि आप तमिलनाडु में मंदिरों को मुक्त कराते हैं, तो समाज के कल्याण के लिए समर्पित एक हजार संस्थान खुल जाएंगे.”

The HR&CE department’s office at the Kapaleeshwarar temple in Mylapore | Vandana Menon | ThePrint
मायलापुर में कपालेश्वर मंदिर में HR&CE विभाग का कार्यालय | वंदना मेनन | दिप्रिंट

उनका तर्क है कि उदाहरण के लिए, सरकार बिशपों की नियुक्ति में हस्तक्षेप नहीं करती है, इसलिए उन्हें हिंदू धर्म को भी अकेला छोड़ देना चाहिए.

रमेश ने जोर देकर कहा, “मूल दिक्कत यह है कि सरकार ट्रस्टियों के बजाय मंदिरों का प्रशासन कर रही है. जिस विधानसभा ने इस अधिनियम को पारित किया, उसमें सरकार द्वारा मंदिरों का प्रशासन करने की परिकल्पना नहीं की गई थी. यह ‘अगर सरकार नहीं, तो और कौन’ का सवाल नहीं है. इसका मतलब सरकार नहीं है. यह 70 साल की धोखाधड़ी है.”

उनके अनुसार, अधिनियम के कुछ प्रावधान – जैसे ट्रस्टियों और लेखा परीक्षकों को नियुक्त करने की सरकार की शक्ति, और मंदिरों में कार्यकारी अधिकारियों को नियुक्त करने की आयुक्त की शक्ति – हिंदुओं के मौलिक अधिकारों के खिलाफ हैं. उन्होंने मंदिरों की अचल संपत्तियों को अतिक्रमणकारियों से बचाने में विभाग की “घोर विफलता” की ओर भी इशारा किया, जिससे उन्हें अपनी वास्तविक आय का अहसास नहीं हुआ. रमेश के अनुसार, 1986 से लेकर अब तक 18.69 लाख ऑडिट आपत्तियों का समाधान लंबित है. उन्होंने यह भी कहा कि प्राचीन मंदिरों की संरचनाओं और सुंदरता का उचित ध्यान नहीं रखा गया है, क्योंकि सरकार के पास रिनोवेशन के लिए आकर्षक कॉन्ट्रैक्ट करने का विवेकाधिकार शामिल है.

तमिलनाडु में हिंदू धर्म द्रविड़वाद के कारण ही फला-फूला है, इसके बावजूद नहीं.
– पीटीआर, आईटी मंत्री

वह किसी भी राजनीतिक पार्टी का नहीं लेते हैं – द्रमुक और अन्नाद्रमुक सरकारों के आलोचक होने के साथ-साथ वह मंदिरों को मुक्त कराने के भाजपा और आरएसएस के एजेंडे के भी आलोचक हैं. रमेश ने कहा, “भाजपा वेटिकन मॉडल चाहती है – वे नियंत्रित करना चाहते हैं कि हिंदू कौन है और हिंदू कैसे सोचता है. इसके बजाय, हिंदुओं को स्वतंत्र रूप से सोचने की अनुमति दी जानी चाहिए, उन्हें यह जानने का अधिकार होना चाहिए कि उनकी परंपराएं क्या हैं, उन्हें बनाए रखने और अपने संसाधनों का उपयोग अपनी इच्छानुसार करने का अधिकार है. उन्हें किसी राजनीतिक दल को यह बताने की ज़रूरत नहीं है कि उन्हें क्या करना है.”

रमेश ने कई मौकों पर सभी खामियों और संभावित छूटों की खोज करते हुए अधिनियम की आलोचना की है. उन्होंने औपनिवेशिक काल से लेकर चोल काल तक सदियों के मंदिर प्रशासन का पता लगाया है, और अपने वर्तमान तर्कों को मजबूत करने के लिए उन्हें अतीत में वापस जाना पड़ा है.

यदि आप तमिलनाडु में मंदिरों को मुक्त कर दें, तो समाज के कल्याण के लिए समर्पित एक हजार संस्थाएं सामने आ जाएंगी
– टीआर रमेश, कार्यकर्ता

ऐसा ही एक उदाहरण 1897 में ऑक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी में “डिनॉमिनेशन” शब्द की परिभाषा है – एक महत्वपूर्ण परिभाषा जो उनके पूरे धर्मयुद्ध का आधार बनती है. एचआर एंड सीई अधिनियम में कहा गया है कि यदि हिंदुओं का एक समूह पर्याप्त रूप से खुद को एक संप्रदाय साबित कर सकता है, तो वे मंदिर का प्रशासन अपने हाथ में ले सकते हैं. इस प्रकार चिदम्बरम मंदिर – तमिलनाडु का सबसे बड़ा मंदिर जो एआर एंड सीई विभाग द्वारा शासित नहीं है – सरकारी नियंत्रण से स्वतंत्र है. दीक्षितर समुदाय यह साबित करने में सक्षम था कि वे हिंदू धर्म के तहत एक अलग संप्रदाय हैं.

दीक्षितर ब्राह्मणों का एक विशिष्ट समूह है जो मंदिर के वंशानुगत ट्रस्टी रहे हैं, और उन्हें मंदिर में पुजारी या अर्चक के रूप में काम करने का भी अधिकार है. 1982 में, सरकार ने मंदिर को चलाने के लिए एक कार्यकारी कार्यालय नियुक्त करने की कोशिश की, लेकिन समुदाय ने फैसले को चुनौती दी – सुप्रीम कोर्ट ने अंततः 2014 में उनके पक्ष में फैसला सुनाया, जिससे चिदंबरम मंदिर एक सांप्रदायिक मंदिर बन गया.

सरकार की नज़र उन तरीकों पर है जिससे वह मंदिर का प्रशासन अपने हाथ में ले सके, जिसे शेखर बाबू ने छिपाकर नहीं रखा है. उन्होंने कहा, “चिदंबरम नटराज मंदिर को एचआर एंड सीई के तहत लाने के प्रयास किए जा रहे हैं.” दीक्षितरों और सरकार के बीच अक्सर टकराव होता रहा है – हाल ही में मंदिर के भीतर बाल विवाह आयोजित करने का आरोप लगाते हुए एक प्राथमिकी दर्ज की गई थी, और सरकार ने दीक्षितरों द्वारा मंदिर के एक विशेष हॉल, कनागासाबाई में पूजा करने से इनकार करने पर आपत्ति जताई है. हाल ही में एक ऐसा मामला भी सामने आया था जिसमें कनागासाबाई में एक दलित महिला को पूजा करने के अधिकार से वंचित करने के लिए 20 से अधिक दीक्षितरों पर मामला दर्ज किया गया था.

लेकिन हजारों साल पुराने मंदिर में अपनी सदियों पुरानी उपस्थिति का बचाव करने के लिए दीक्षितरों ने भी एड़ी चोटी का जोर लगा दिया है. यह अति धार्मिक संप्रदाय अपनी उत्पत्ति कैलाश पर्वत से हुआ मानता है, और माना जाता है कि इसे 3,000 साल पहले भगवान नटराज (शिव) द्वारा चिदंबरम में लाया गया था.

रमेश के लिए, चिदंबरम मंदिर इस बात का एक मॉडल है कि लोगों के कल्याण के लिए जीवन समर्पित करने वाले लोगों द्वारा मंदिर का प्रशासन चलाया जा सकता है. सरकार के लिए, यह भेदभाव और कुप्रबंधन का एक मॉडल है. जिसका केंद्रीय तत्त्व जाति है.

तमिलनाडु मंदिरों की भूमि है, लेकिन यह सामाजिक न्याय की भी भूमि है.
– पीटीआर, आईटी मंत्री

एक विभाग जिसके हाथ बंधे हुए हैं

तमिलनाडु में HR&CE विभाग इस लड़ाई में सबसे आगे है. उन्हें मंदिरों को जातिवादी सड़ांध से बचाने का श्रेय दिया जाता है, लेकिन उन पर मंदिरों के कुप्रबंधन और पुजारियों को उनके अधिकारों से वंचित करने का भी आरोप लगाया जाता है.

विभाग के पास बहुत कुछ है. दशकों पुरानी फाइलों के ढेर को निपटाने के लिए अलावा वे आलोचना के भी पात्र हैं.

इस पर भाजपा और अन्य हिंदू दक्षिणपंथी समूहों द्वारा लगातार हमला किया जाता है, वे मंदिरों को उनके नियंत्रण से मुक्त करने की मांग करते हैं जिसे डिपार्टमेंट हर तरीके से अनदेखा करता है.

यह ‘सरकार नहीं तो और कौन’ का सवाल नहीं है. इसका मतलब सरकार नहीं है. यह 70 साल से दिया जा रहा धोखा है.
– टीआर रमेश, कार्यकर्ता

एचआर एंड सीई मंत्री शेखर बाबू ने हाल ही में राज्य विधानसभा में घोषणा की, “जो लोग बौद्धिक रूप से अंधे हैं उनका कहना है कि एचआर एवं सीई विभाग ने तमिलनाडु में मंदिरों पर अतिक्रमण किया है.” उन्होंने भाजपा पर परोक्ष हमला बोलते हुए कहा, “राज्य सरकार ने मंदिरों के निजीकरण की मांग करने वाले लोगों के एक वर्ग से 700 करोड़ रुपये की नौ मंदिर संपत्तियों को वापस ले लिया है.”

विभाग बड़ा और प्रतिष्ठित है जो कि चेन्नई के नुंगमबक्कम में स्थित है और जिसमें 1,300 से अधिक लोग काम करते हैं. इमारत नई और चमचमाती है, इसके प्रांगण में अपना मंदिर है. यह हफ्ते भर लोगों का आना जाना रहता है. एक बड़े कमरे की दीवार स्क्रीन से भरी हुई है, जिस पर विभिन्न मंदिर स्थलों के सीसीटीवी फुटेज लगातार चलते रहते हैं.

The HR&CE department occupies prime property in Chennai’s Nungambakkam and employs over 1,300 people | Vandana Menon | ThePrint
एचआर एंड सीई विभाग चेन्नई के नुंगमबक्कम में है और 1,300 से अधिक लोग यहां काम करते हैं | वंदना मेनन | दिप्रिंट

लेकिन विभाग के अधिकारी काफी बुरे जाल में फंस गए हैं. उन्हें अक्सर मंदिर के उन स्टाफ द्वारा बदनाम किया जाता है जिन्हें प्रशासन के लिए भेजा जाता है. उनके साथ कई दिनों तक अच्छा व्यवहार नहीं किया जाता और उनके साथ असहयोग भी किया जाता है. उन्हें अपनी गतिविधियों को लेकर लगातार अन्य हलकों से भी जांच का सामना करना पड़ता है, यही कारण है कि विभाग खुले और पारदर्शी होने का अतिरिक्त ध्यान रख रहा है.

“हमारे खिलाफ सभी प्रकार के अनुचित आरोप लगाए गए हैं, इस तरह हम मजाक का पात्र बन गए हैं. काम की प्रक्रिया में, हमें बदनामी का सामना करना पड़ रहा है – और कोई भी हमारी मदद नहीं करता है.” एक अधिकारी ने नाम न बताने का अनुरोध करते हुए कहा. “मैं सभी से कहता हूं कि वे इस विभाग में न आएं.”

उसी अधिकारी ने उन बाधाओं के बारे में विस्तार से बताया जिनका सामना उन्हें तब करना पड़ा जब वे तिरुचिरापल्ली के श्रीरंगम मंदिर में कार्यकारी अधिकारी थे. उन्होंने जो भी बदलाव लागू करने की कोशिश की, उसे कड़े विरोध का सामना करना पड़ा. उदाहरण के लिए, जब उन्होंने मंदिर में वैकुंठ एकादशी उत्सव के आयोजन के तरीके को और अधिक समावेशी बनाने और सशुल्क पास शुरू करने की कोशिश की, तो उन्हें याद आया कि मिनटों के भीतर सैकड़ों फोन कॉल आए और उन पर बदलाव वापस लेने के लिए दबाव बनाया गया.

एक ब्राह्मण पुजारी ने उन्हें धमकी दी और पूछा कि क्या उन्हें अपना जनेऊ उतारकर मजदूर के रूप में काम करना चाहिए.

मामले के मूल में कठोर और व्यापक जाति विभाजन है. और अब, लगातार मामलों ने HR&CE विभाग को मुकदमेबाजी में फंसा दिया है.

The HR&CE department’s office in Chennai has a temple shrine in its courtyard | Vandana Menon | ThePrint
चेन्नई में HR&CE विभाग के कार्यालय के प्रांगण में एक मंदिर है | वंदना मेनन | दिप्रिंट

एचआर एंड सीई विभाग के अधिकारी न्यायिक प्रक्रिया की वजह से खुद को काफी बंधा हुआ महसूस करते हैं.  भूमि के अतिक्रमण से निपटने के मामलों में समय लगता है, खासकर जब वे दीवानी यानि सिविल मामले होते हैं – और विभाग अक्सर भूमि के टुकड़ों के लिए लड़ाई में दशकों बिता देता है. इन मामलों में वह भूमि भी शामिल है जिसे विभाग पुराने पट्टेदारों से फिर से पाने की कोशिश कर रहा है – उदाहरण के लिए, उन्होंने हाल ही में नागपट्टिनम में वेदारण्येश्वर मंदिर में 2,000 एकड़ से अधिक भूमि फिर से प्राप्त की है जिसे ईस्ट इंडिया कंपना द्वारा साल्ट कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया को पट्टे पर दे दिया गया था, जो अभी भी उतना ही किराया दे रही थी.

एक अन्य मामले में, सरकार द्वारा सेंट थॉमस माउंट में काशी विश्वनाथर मंदिर से संबंधित भूमि को रिकवर करने के कुछ घंटों बाद, एक वन्नियार जाति समूह ने भूमि पर अपना दावा पेश किया और मद्रास उच्च न्यायालय ने सरकार की रिकवरी पर रोग लगा दी.

एक अन्य उदाहरण में, रमेश ने मायलापुर के कपालेश्वर मंदिर की भूमि और धन के दुरुपयोग का आरोप लगाते हुए एक रिट याचिका दायर की, जिसका बचाव अब सरकार को करना है.

Mylapore’s Kapaleeshwarar temple | Vandana Menon | ThePrint
मायलापुर का कपालेश्वर मंदिर | वंदना मेनन | दिप्रिंट

विभाग यह दिखाना चाहता है कि वह पारदर्शिता से काम कर रहा है ताकि उनका काम आगे बढ़ सके: उनके पास अब थिरुक्कोइल नाम का एक ऐप है जो कि एक एकीकृत मंदिर प्रबंधन प्रणाली है, और यहां तक ​​कि हाल ही में दान पेटियों को खोलने की लाइवस्ट्रीमिंग भी शुरू कर दी है. लेकिन विभाग के अधिकारियों पर दबाव की भरपाई नौकरशाही की सुस्ती से होती है, यही वजह है कि रमेश जैसे कार्यकर्ता विभाग पर अक्षमता और कुप्रबंधन का आरोप लगाते हैं.

उपरोक्त अधिकारी ने कहा, “घृणा के कारण, हम इस विभाग में सरकारी अधिकारी के रूप में काम करने से दुखी हैं. कम से कम जब हम वहां होते हैं, तो दोष देने वाला कोई न कोई तो होता है,”

पेरियार प्रभाव

तमिलनाडु में सभी के लिए मंदिर में प्रवेश कभी भी अंतिम लक्ष्य नहीं था बल्कि आस्था का लोकतंत्रीकरण मूल लक्ष्य था.

पूर्व मुख्यमंत्री और द्रविड़ नेता करुणानिधि ने मंदिर प्रशासन में बदलाव के लिए एक लंबी, कानूनी लड़ाई लड़ी. उन्होंने वंशानुगत पौरोहित्य कर्म को ख़त्म करने का नेतृत्व किया और ऐसा करने के लिए 1971 में 1959 एचआर एंड सीई अधिनियम में संशोधन किया. अन्य सुधारों में मंदिर ट्रस्टी बोर्डों को अपने पांच सदस्यों में से एक महिला और एक दलित को शामिल करने की आवश्यकता शामिल थी, और उन्होंने भूमि सीमा अधिनियम को मंदिरों के लिए भी आवश्यक बना दिया.

लेकिन सुधारों के आलोचक सुप्रीम कोर्ट चले गए, जिससे मामला और भी कानूनी पेंच में फंस गया. एक उल्लेखनीय निर्णय जिसने आज के कार्यों में बाधा उत्पन्न की है, वह है 1972 का सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय जिसमें पुजारियों के वंशानुगत अधिकारों को समाप्त कर दिया गया है – साथ ही साथ द्रमुक सरकार के 1971 के अधिनियम के संशोधन को “अनिवार्य रूप से धर्मनिरपेक्ष” के रूप में बरकरार रखा गया है.

“ऑपरेशन सफल; मरीज मर गया,” पेरियार ने अपनी मृत्यु से एक साल पहले फैसले के बाद विदुथलाई के लिए एक संपादकीय में लिखा था. शीर्ष अदालत की नजर में यह अधिनियम धर्मनिरपेक्ष था, लेकिन इसका विरोध दशकों तक जारी रहा.

अन्नाद्रमुक सरकारों की तुलना में द्रमुक सरकारों के दौरान इस मुद्दे को लेकर उत्साह अधिक तीव्र रहा है, जब भी अदालतें मंदिर प्रशासन से संबंधित मामलों को उठाती हैं, तो आगे-पीछे राजनीतिक माहौल खराब हो जाता है. वर्तमान एचआर एंड सीई मंत्री शेखर बाबू स्वयं अन्नाद्रमुक से द्रमुक में चले गये.

डीएमके सुप्रीमो करुणानिधि ने पेरियार के दृष्टिकोण को पूरा करने के लिए 2006 में एक और प्रयास किया: मंदिरों में सभी जातियों के लोग अर्चक के रूप में काम कर सकें इसके लिए उन्होंने प्रशिक्षित करने के लिए 18 महीने का पाठ्यक्रम शुरू किया. 2007 में दाखिला लेने वाले 240 लोगों में से 207 ने अगले वर्ष स्नातक की उपाधि प्राप्त की – लेकिन खुद को बेरोजगार पाया. ब्राह्मणवादी मंदिर उन्हें काम करने देने को तैयार नहीं थे. एक हिंदू समूह, अखिल भारतीय आदि शैव शिवचार्यर्गल सेवा संगम द्वारा एक याचिका दायर किए जाने के बाद प्रशिक्षण स्कूल को जल्द ही बंद कर दिया गया था. एआईएडीएमके के कार्यकाल के दौरान, सीएम एडप्पादि के पलानीस्वामी ने गैर-आगमिक मंदिरों में दो गैर-ब्राह्मण अर्चकों को नियुक्त किया, लेकिन आगे कोई नियुक्ति नहीं की.

मेरे परिवार और मुझे धमकी भरे कॉल करके परेशान किया गया, हम पर एक पवित्र स्थान को प्रदूषित करने का आरोप लगाया गया
– एक गैर-ब्राह्मण अर्चक

रमेश ने कहा, “सरकार वहां [मंदिरों में] धोखाधड़ी करके, लगातार अनावश्यक रूप से मंदिरों के मामलों में हस्तक्षेप कर रही है.” ऐसा लगता है कि तमिलनाडु सरकार मंदिरों को अकेला नहीं छोड़ रही है – वे हमेशा प्रशासनिक मामलों में हस्तक्षेप करने, बदलाव करने और अपडेट करने की कोशिश कर रहे हैं.

जब से एचआर एंड सीई अधिनियम पेश किया गया, तब से 2022 तक इसमें 58 संशोधन हो चुके हैं.

2021 में, DMK के सत्ता में वापस आने के 100 दिन बाद, करुणानिधि के बेटे और वर्तमान मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने राज्य के मंदिरों में 23 गैर-ब्राह्मण अर्चकों की नियुक्ति की. 2024 तक, इन 23 पुजारियों में से केवल दो ही अभी भी कार्यरत हैं. अन्य सभी ने ब्राह्मण अर्चकों द्वारा अपमान और बहिष्कार का हवाला देते हुए अपना नाम वापस ले लिया है.

“मुझे हर दिन अपमानित किया जाता था. मुझे गर्भगृह में प्रवेश नहीं करने दिया गया और छोटे-मोटे काम करने को कहा गया. मुझे भक्तों के लिए अनुष्ठान करने का अधिकार नहीं दिया गया और यहां तक कि निजी स्तर पर अवसरों से भी वंचित कर दिया गया. एक गैर-ब्राह्मण अर्चक ने नाम न छापने का अनुरोध करते हुए कहा, मेरे परिवार और मुझे धमकी भरे कॉल करके परेशान किया गया, हम पर एक पवित्र स्थान को प्रदूषित करने का आरोप लगाया गया. वह अब अपने परिवार से दूर एक छोटे से निजी मंदिर में काम करता है – वह मुश्किल से ही बचत कर पाता है, लेकिन उसके भोजन और रहने का ख्याल रखा जाता है.

जाति-विरोधी कार्यकर्ता और राजनीतिक टिप्पणीकार मारुथैयन के मुताबिक, एचआर एंड सीई विभाग और सरकार के निर्देशों के विरोध से ब्राह्मणवादी उत्पीड़न के फिर से लौटने का खतरा है. इसके अलावा, वह अन्य धर्मों को लेकर कई संप्रदायों पर दिए जाने वाले तर्क को जाति के तर्क के रूप में ही देखते हैं – उनके अनुसार, हिंदू दक्षिणपंथी जाति की व्याख्या विविधता के रूप में करते हैं, न कि श्रेणीबद्ध असमानता के रूप में.

“संघर्ष जातिगत उच्चता या निम्नता के विरोध को लेकर है. मंदिर इस सामाजिक व्यवस्था की रक्षा करने वाली एक संस्था है,” मारुथैयन ने एक उदाहरण को याद करते हुए कहा, जिसमें उनके संगठन, पीपुल्स राइट्स प्रोटेक्शन फोरम, ने 1993 में श्रीरंगम मंदिर में पुजारियों के साथ मारपीट की थी, जब दलितों को मंदिर के गर्भगृह में प्रार्थना करने की अनुमति नहीं थी.

वे मंदिर में गैर-ब्राह्मणों के स्वागत का संकेत देते हुए, मंदिर के भीतर अंबेडकर और पेरियार की तस्वीरें लगाने की कोशिश कर रहे थे. आख़िरकार, ब्राह्मण पुजारी पीछे हट गए, और कोई मामला दर्ज नहीं किया गया.


यह भी पढ़ेंः दयाग्रस्त हिंदुओं के सामने बहुत दिक्कते हैं — विकास से ताजमहल तक, योगी का यूपी ही उनका मरहम है


राजनीतिक माहौल

श्रीरंगम मंदिर के बाहर पेरियार की एक मूर्ति खड़ी है. इसमें उनके प्रसिद्ध शब्द हैं: “कोई भगवान नहीं है, कोई भगवान नहीं है, कोई भगवान नहीं है. जिसने भगवान का आविष्कार किया वह मूर्ख है. जो ईश्वर का प्रचार करता है वह दुष्ट है. जो भगवान की पूजा करता है वह जंगली है.”

विवादास्पद मूर्ति भाजपा के घोषणापत्र में शामिल थी: भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष अन्नामलाई ने शपथ ली कि यदि वे राज्य में सत्ता में आए तो मूर्ति को हटाना उनकी सर्वोच्च प्राथमिकता होगी.

भाजपा तमिलनाडु के प्रोटोकॉल अधिकारी और उनके त्रिची चैप्टर के प्रमुख दीपक रेंगराजन, मूर्ति की ओर इशारा करते हुए कहते हैं, “यहां यह पूरी तरह से अनावश्यक है. यह एक प्राचीन, पवित्र मंदिर है और इस प्रतिमा को यह कहना कि इसमें कोई भगवान नहीं है, उसकी मान्यताओं के विरुद्ध है. अगर लोग ऐसा मानते तो क्या यह इतना महत्वपूर्ण मंदिर होता?”

रेंगराजन नियमित रूप से श्रीरंगम मंदिर में पूजा करते हैं, और यह बताने के लिए उत्सुक हैं कि सरकार द्वारा नियुक्त पुजारी भक्तों के आगमन और उसके जरिए धन के प्रवाह को कैसे नियंत्रित करते हैं. विशेष, फास्ट-ट्रैक दर्शन नियमित दर्शनों की तुलना में अधिक महंगे हैं, और वह अक्सर आश्चर्य करते हैं कि मंदिर के खजाने में कितना पैसा आ रहा है. साथ ही, उनका मानना है कि केवल ब्राह्मणों को ही पुजारी होना चाहिए क्योंकि केवल वे ही हैं जो वास्तव में मंदिरों की पवित्रता को बनाए रख सकते हैं. उनका अविश्वास द्रमुक सरकार पर है, सदियों पुरानी सामाजिक पदानुक्रम पर नहीं.

Devotees can pay to get a ‘speed darshan’ of the diety | Vandana Menon | ThePrint
भक्त देवी के ‘स्पीड दर्शन’ पाने के लिए भुगतान कर सकते हैं | वंदना मेनन | दिप्रिंट

मारुथैयन ने कहा, “मंदिरों पर कब्ज़ा करके, भाजपा सोचती है कि वे हिंदू समुदाय को नियंत्रित कर सकते हैं. उन्हें मंदिर की संपत्तियों में कोई दिलचस्पी नहीं है – वे दिमागों पर कब्ज़ा करने में रुचि रखते हैं.” उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि भाजपा की राजनीति का तमिलनाडु में कोई खरीददार नहीं है. “भगवान में विश्वास जाति वर्चस्व में विश्वास के बराबर नहीं है.”

मारुथैयन के अनुसार, ‘लेकिन भाजपा की बयानबाजी का पहले से ही समाज पर घातक प्रभाव पड़ रहा है.’ उन्होंने हालिया मुकदमे की ओर इशारा किया: जनवरी में, मद्रास उच्च न्यायालय की मदुरै पीठ ने कहा कि गैर-हिंदुओं को पलानी मंदिर के परिसर के अंदर जाने की अनुमति नहीं है, जब एक हिंदू खिलौना विक्रेता ने एक मुस्लिम फल विक्रेता और उसके परिवार के खिलाफ मामला दायर किया था. फल विक्रेता अपने बच्चों को पर्यटन स्थल दिखाने के लिए मंदिर जा रहा था, जो याचिकाकर्ता खिलौना विक्रेता को बुरा लगा. एक उदारतापूर्ण बयान में, याचिकाकर्ता ने कहा कि गैर-ईसाइयों को चर्चों से और गैर-मुसलमानों को मस्जिदों से भी प्रतिबंधित किया जाना चाहिए. बदले में, उच्च न्यायालय ने कहा कि मंदिरों को पिकनिक स्थल के रूप में नहीं देखा जा सकता है, और सभी आगंतुकों की आस्था के बारे में रिकॉर्ड दर्ज करने का सुझाव दिया.

ईश्वर में विश्वास जाति वर्चस्व में विश्वास के बराबर नहीं है.
– मारुथैयन, जाति-विरोधी कार्यकर्ता और राजनीतिक टिप्पणीकार

इसे भारत की समन्वयवादी परंपरा पर हमला बताते हुए मारुथैयन ने कहा कि हिंदू दक्षिणपंथी तमिलनाडु में द्रविड़ विचारधारा को तोड़ने के लिए जातिगत गौरव का इस्तेमाल कर रहे हैं. यही कारण है कि मानवता से ऊपर ईश्वर पर जोर और किसे किस ईश्वर के लिए बोलना है “मुक्त मंदिर” आंदोलन के आधार पर है.

“मंदिरों को किससे मुक्त करना है?” हिंदुओं के प्रतिनिधि कौन हैं? क्या यह वह सरकार नहीं है जिसे उन्होंने चुना है?” मरुथैयन ने पूछा.

बीजेपी का धक्का

2021 में, उत्तराखंड में पुष्कर धामी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार ने एक विवादास्पद उपाय को उलट कर मंदिरों का नियंत्रण पुजारियों और मंदिर ट्रस्टों को बहाल कर दिया. इस अत्यधिक संवेदनशील कदम ने उस समय कई लोगों के बीच बहस छेड़ दी और भाजपा के हाथ में एक राजनीतिक मुद्दा था.

भारत के क्रांतिकारी मंदिर प्रवेश आंदोलन के सदियों बाद, भाजपा के नेतृत्व में एक नए तरह का मंथन चल रहा है.

आरएसएस के पब्लिकेशन ऑर्गनाइज़र के पूर्व संपादक शेषाद्रि चारी ने कहा, “कई राज्यों में मंदिरों पर सरकारी नियंत्रण से बाहर निकलने की मांग करने वाले हिंदू समूहों को हिंदू जागृति और दावे के प्रकाश में देखा जाना चाहिए.”

पिछले साल कर्नाटक विधानसभा चुनाव से ठीक पहले, भाजपा ने भक्तों को मंदिर प्रशासन की पूर्ण स्वायत्तता देने और उन्हें सरकार के नियंत्रण से हटाने का वादा किया था जो कि अंधेरे में खेला गया एक शॉट था.

चूंकि मंदिर प्रशासन राज्य सूची और कुछ हद तक समवर्ती सूची के अंतर्गत आता है, इसलिए भाजपा इस मुद्दे को राज्य स्तर पर तो गरमा सकती है, लेकिन केंद्रीय स्तर पर इससे नहीं निपट सकती.

चारी ने कहा, ”यह राज्य स्तर पर भाजपा के लिए एक मुद्दा बन सकता है. उदाहरण के लिए, कर्नाटक में एक करोड़ से अधिक आय वाले मंदिरों पर कर लगाने के सरकार के विचार पर नाराजगी है.” हिंदू मंदिरों पर इस टैक्स से बीजेपी को फायदा होगा.’

भाजपा सदस्य निजी तौर पर यह भी कहते हैं कि अगर वे इस पर बहुत अधिक जोर देंगे तो इससे राजनीतिक जोखिम भी हो सकता है, खासकर दक्षिण में. भाजपा को अपना ब्राह्मण-बनिया टैग त्यागने और ओबीसी, दलित और आदिवासी समुदायों में पैठ बनाने में दशकों लग गए. सामाजिक टिप्पणीकारों का कहना है कि मंदिरों को स्वायत्तता देने से संभवतः ब्राह्मण पुजारियों का वर्चस्व फिर से जीवित हो सकता है और जातियों के बीच लड़ाई शुरू हो सकती है.

लेकिन मंदिर की राजनीति अब कई मायनों में वापस आ गई है. एक, अयोध्या में राम मंदिर जैसी पुनरुद्धार परियोजनाओं के लिए भाजपा का कदम है, जो श्री राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र द्वारा संचालित है और जिसमें आरएसएस व वीएचपी सदस्य शामिल हैं. वाराणसी और मथुरा में ज्ञानवापी को पुनः प्राप्त करना अगला कदम है. दूसरा सुधार मंदिरों को सरकार के चंगुल से मुक्त करना और उन्हें ट्रस्टों और पुजारियों को सौंपना है. यह सब इसलिए है क्योंकि भाजपा की राज्य सरकारें भी मंदिर आर्थिक गलियारों की कल्पना और कार्यान्वयन कर रही हैं.

आगे का रास्ता

शेखर बाबू और एचआर एंड सीई विभाग के खिलाफ लड़ाई रामचंद्रन की व्यक्तिगत लड़ाई है. उन्होंने ज़ोर देकर कहा, “वे केवल हमारी सारी संपत्ति छीन लेना चाहते हैं.” उन्होंने पुजारियों द्वारा मंदिर का सोना या भगवान के आभूषणों को गिरवी रखने की घटनाओं को कुछ समय के लिए आई कठिनाई बताकर खारिज कर दिया. “सरकार ने महीनों से हमारा वेतन नहीं दिया है! बेचारे पुजारियों को और क्या करना चाहिए?”

इस मुद्दे पर गुस्सा निर्वाचित द्रमुक सरकार पर है, कई लोगों ने उस पर हिंदू गौरव के स्थलों के रूप में मंदिरों को व्यवस्थित रूप से नष्ट करने का आरोप लगाया है. द्रमुक ने भी इसे ब्राह्मण मुद्दे के रूप में पेश करने में सावधानी बरती है – और इस तरह राज्य में बड़े हिंदू समुदाय को बदनाम नहीं किया है.

मंदिरों को किससे मुक्त करवाना है? हिंदुओं के प्रतिनिधि कौन हैं? क्या यह वह सरकार नहीं है जिसे वे चुनते हैं?
– मारुथैयन, जाति-विरोधी कार्यकर्ता और राजनीतिक टिप्पणीकार

पीटीआर ने पूछा, “लोग कहते हैं कि HR&CE विभाग ठीक से काम नहीं कर रहा है. मुझे कोई ऐसा सरकारी विभाग दिखाइए जिसके लिए ऐसी ही आलोचना सही नहीं बैठती. यदि यह निजीकरण का आधार है, तो क्या निजीकरण से सभी सरकारों में सुधार किया जा सकता है? और यदि हां, तो नया ‘निजी’ मालिक कौन होगा? और क्या वे ठीक से काम की गारंटी दे सकते हैं?”

उन्होंने कहा कि मंदिरों का लोकतंत्रीकरण करने और जाति की परवाह किए बिना सभी के लिए आस्था लाने के सामूहिक उद्देश्य की सराहना की जानी चाहिए, न कि इसे “हिंदू विरोधी” के रूप में गलत तरीके से चित्रित किया जाना चाहिए.

विडंबना यह है कि मद्रास उच्च न्यायालय – इस मुद्दे का स्वतः निर्णायक – मंदिर की ज़मीन पर बना है. इसका निर्माण ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा उस भूमि पर किया गया था जो चेन्नकेशवा पेरुमल और चेन्ना मल्लेश्वर के पूर्ववर्ती जुड़वां मंदिरों से संबंधित थी. एचआर एंड सीई अधिकारियों के अनुसार, साल में एक बार, मंदिर में शुद्धीकरण अनुष्ठान करने के लिए अदालत को कथित तौर पर बंद कर दिया जाता है.

अतिक्रमण मामले की फाइल बंद करते समय एचआर एंड सीई विभाग के एक अधिकारी ने कहा, “हम ऐसे माहौल में रहते हैं जहां तार्किकता यहां तक कि कानून में भी आस्था के सामने फीकी पड़ जाती है.”

(यह धन और पूजा पर नियंत्रण को लेकर राज्यों और मंदिरों के बीच रस्साकशी के बारे में सीरीज़ का पहला लेख है. इस नए मंदिर स्वतंत्रता आंदोलन पर सीरीज़ को यहां फॉलो करें.)

(संपादनः शिव पाण्डेय)
(इस फीचर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


यह भी पढ़ेंः मोदी युग पर किताबें नया चलन हैं, प्रकाशक भारत में मंथन करते रहना चाहते हैं


 

share & View comments