प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सुरक्षा में 5 जनवरी को जो चूक हुई उसे कतई माफ नहीं किया जा सकता. इसने पंजाब पुलिस और एसपीजी की अक्षमता पूरी तरह उजागर कर दी. प्रधानमंत्री के काफिले को आंदोलनकारियों द्वारा किए जाने वाले हाइवे ब्लॉक में फंसने से बचाने के लिए रास्ता बदलने/मोड़ने की फौरी कार्रवाई करने में दोनों एजेंसियां में रियल टाइम सिचुएशन की जागरूकता का अभाव था. इतना ही नहीं, मौके पर 15-20 मिनट तक जो निष्क्रियता दिखी वह भी कल्पना से परे है.
पहला काम तो प्रधानमंत्री को खतरे की स्थिति से निकालने का किया जाना चाहिए था. ऐसा लगता है कि एसपीजी मानसिक रूप से पंगु हो गई थी और उसने वह काम नहीं किया जो उसकी मानक आकस्मिक योजना के तहत किया जाना चाहिए था. यहां तक कि प्रधानमंत्री के करीब तैनात एसपीजी ने उन्हें सामने और पीछे से पर्याप्त सुरक्षा घेरा नहीं बनाया. पंजाब पुलिस रास्ता साफ करने की जगह आंदोलनकारियों से वार्ता करने में व्यस्त थे और वह उस स्थान को सुरक्षित बनाने में विफल रही. फिरोजपुर में होने वाली रैली के लिए जा रहे बीजेपी कार्यकर्ताओं की भीड़ प्रधानमंत्री के काफिले से 15-20 मीटर की दूरी पर ही जमा थी.
यह एक अजीबोगरीब नज़ारा था और इसे खुशकिस्मती ही मानी जाएगी कि कोई वास्तविक खतरा नहीं पैदा हुआ. अपनी संघीय व्यवस्था में राजनीतिक दोषारोपण का जो खेल चलता है और लीपापोती की हमारी जो खास फितरत है उनके मद्देनजर अच्छा ही हुआ कि सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में मामले की जांच का आदेश दे दिया गया है. उम्मीद है कि इस जांच के बाद संबंधित दोषियों पर बिना किसी भय या पक्षपात के ज़िम्मेदारी तय की जाएगी.
इससे भी ज्यादा चिंता की बात यह है कि टीवी मीडिया और राजनीतिक हलक़ों में पूरे सिख समुदाय को शर्मिंदा करने, दोषी ठहराने और बदनाम करने की मुहिम चलाई जा रही है और उसे प्रधानमंत्री को निशाना बनाने के लिए जिम्मेदार ठहराया जा रहा है.
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नेताओं के लिए ऊंचे पैमाने
मजबूत नेता संकट के समय संयम और निश्चय का परिचय देते हैं. इतिहास पर नज़र डालें तो ऐसे नेता धमकियों और अपने ऊपर हुए हमलों को हल्के में लेते रहे हैं. प्रधानमंत्री मोदी भी इन बेहतरीन गुणों के लिए जाने जाते हैं. फ़्लाइओवर पर उन्हें अपना अगला कदम उठाने के लिए 15-20 मिनट मिले थे. वे दौरे को रद्द कर सकते थे या ब्लॉक किए गए रास्ते से बचने के लिए डाइवर्सन का रास्ता लेकर आगे जा सकते थे या आंदोलनकारियों तक जाकर उनसे बात कर सकते थे, जो निश्चित ही उनकी बात मान जाते. नहीं मानते तो अंतिम उपाय के तौर पर बलप्रयोग करके रास्ता साफ करवाया जा सकता था. प्रधानमंत्री ने दौरा रद्द करने का फैसला किया, वापस बठिंडा एयरपोर्ट पहुंचने में उन्हें एक घंटा लगा, जिसने उन्हें इस संकट का राजनीतिक जवाब देने के बारे में फैसला करने का समय दे दिया.
बताया गया कि बठिंडा पहुंचकर उन्होंने पंजाब के अधिकारियों पर कटाक्ष किया. समाचार एजेंसी एएनआई ने दोपहर 3.40 बजे ट्वीट किया कि प्रधानमंत्री ने यह बयान दिया— ‘अपने सीएम को थैंक्स कहना कि मैं बठिंडा एअरपोर्ट तक जिंदा लौट पाया.’ ‘संयम और निश्चय’ के उलट यह नाराजगी और लापरवाही भारी सियासी प्रतिक्रिया थी. वह भी इस बात के मद्देनजर कि बहुस्तरीय अक्षमता के बावजूद कोई वास्तविक खतरा सामने नहीं आया था.
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सिख समुदाय के खिलाफ मुहिम
जिस दिन प्रधानमंत्री रास्ते पर फंस गए थे उस दिन देर शाम तक पूरा राजनीतिक ज़ोर प्रधानमंत्री के दौरे को सुरक्षा देने में पंजाब सरकार की अक्षमता और नाकामी पर केंद्रित था. प्रधानमंत्री की कथित टिप्पणी से बीजेपी नेताओं और उसके आईटी सेल को अपना सुर बदलने का इशारा मिल गया. रात 10.44 बजे बीजेपी के अधिकृत ट्वीटर हैंडल @BJP4India ने ट्वीट कई— ‘पीएम नरेंद्र मोदी पर हमले की क्रोनोलॉजी को समझिए’. इसके साथ दो मिनट का ऑडिओ-विजुअल क्लिप भी जारी किया गया. इस क्लिप की शुरुआत इन सवालों से की गई— ‘किसकी योजना थी यह? पाकिस्तानियों की? खालिस्तानियों की? कांग्रेस की मदद से?’ वीडियो में आंदोलनकारियों को प्रधानमंत्री की रैली को रोकने की बात करते और बीजेपी समर्थकों के वाहनों को रोकते और फिर प्रधानमंत्री को फ़्लाइओवर पर फंसे हुए दिखाया गया.
इस क्लिप का समापन इस बयान से किया गया— ‘फेल कर दी पाकिस्तानी, खालिस्तानी समर्थकों और कांग्रेस की साजिश.’ इस ट्वीट ने बीजेपी के नव-राष्ट्रवादी सदस्यों/समर्थकों को पूरे सिख समुदाय को खालिस्तानी बताने का बेलगाम, निंदनीय अभियान छेड़ने और 1984 के दंगे को दोहराने की धमकी देने का बहाना जुटा दिया. उत्तर प्रदेश के बिठूर से बीजेपी विधायक अभिजीत सिंह सांगा ने ट्वीट किया— ‘उन्हें इंदिरा गांधी समझने की गलती मत करना. उनका नाम है श्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी. तुम्हें कुछ लिखने के लिए कागज भी नसीब नहीं होगा और न ही इतिहास पढ़ पाओगे.’ एक और प्रमुख दक्षिणपंथी ट्वीटर हैंडल @sushilkedia ने ट्वीट किया— ‘साफ समझ लो, 1984 के दंगे की सभी यादें छोटी पड़ जाएंगी…’
मीडिया के एक हलके ने 6 जनवरी के बाद कमान थाम ली और उसने प्रधानमंत्री को निशाना बनाने की खालिस्तानी साजिश का हवाला देना शुरू कर दिया. आंदोलनकारी किसानों पर फिर से खालिस्तानी का ठप्पा लगाया जाने लागा. प्रतिबंधित ‘सिख्स फॉर जस्टिस’ के उग्रपंथी संस्थापक/नेता गुरपतवंत सिंह पन्नुन के एक वीडियो को बार-बार दिखाया जाने लगा और इसे किसान आंदोलन और 5 जनवरी की घटना से जोड़ा जाने लगा.
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मुहिम के पीछे की मंशा
भारत का आंतरिक और बाहरी सुरक्षा बीजेपी के चुनावी अभियानों का स्थाई मुद्दा रहा है. इसे हमेशा प्रधानमंत्री मोदी की मजबूत नेता वाली छवि से जोड़ा जाता रहा है. चीन और पाकिस्तान के साथ सीमा विवाद और जम्मू-कश्मीर में पाकिस्तान के छद्म युद्ध जैसे मुद्दों को मई 2020 तक काफी सफलता के साथ इस्तेमाल किया गया लेकिन पूर्वी लद्दाख में चीन की घुसपैठ और उससे बदला लेने में विफलता, पाकिस्तान पर सर्जिकल स्ट्राइक के अनुकूल नतीजे न मिलने, भविष्य में इन दोनों देशों की मिलीभगत की आशंका ने बाहरी खतरों को राष्ट्रीय राजनीतिक मुद्दा बनाने की संभावना सीमित कर दी है.
आंतरिक क्षेत्र में इस्लामी आतंकवाद के लोप ने केवल जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद के व्यापक खतरे को जिंदा रखा है. जो कि काबू में है. धर्मांतरण, गोमांस, लव जिहाद आदि के बहाने मुसलमानों और ईसाइयों को निशाना इसलिए बनाया जाता है कि हिंदुत्व को खतरा महसूस होता है. वैसे, उसे सुरक्षा के लिए कोई खतरा नहीं माना जाता. जो भी हो, बीजेपी वोट बैंक का शोषण नहीं करता.
इसलिए, एक नए दुश्मन की खोज करनी थी. सिखों से हिंदुत्व को कोई खतरा नहीं है. अकाली दल से अलगाव के बाद बीजेपी पंजाब में राजनीतिक रूप से अकेली पड़ गई है. किसान आंदोलन को मोदी की संपूर्ण राजनीतिक सत्ता के लिए खतरा माना गया इसलिए उसे राष्ट्र विरोधी भी बताया जाने लगा. हरियाणा, पश्चिम उत्तर प्रदेश और राजस्थान के जाटों के साथ पंजाब के जाटों के मेल को राजनीतिक चुनौती के रूप में देखा गया. इसने खालिस्तानी किसान के भूत को खड़ा करने का बहाना थमा दिया जो 26 जनवरी 2021 को कुछ उग्रपंथियों के कारण घटी दुर्भाग्यपूर्ण घटना के बाद और मजबूत हो गया. सोशल मीडिया और टीवी/प्रिंट मीडिया के कुछ हलक़ों ने तब तक यह मुहिम जारी रखी जब तक मोदी ने विवादास्पद कृषि कानूनों को वापस लेना का आश्चर्यजनक फैसला नहीं कर लिया. प्रधानमंत्री की सुरक्षा में चूक ने ऐसा मौका थमा दिया जिसे गंवाया नहीं जा सकता था. आगामी चुनावों के लिए नया राजनीतिक मुद्दा बना दिया गया— मजबूत प्रधानमंत्री को निशाना बनाने की खालिस्तानी साजिश का मुद्दा!
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अशुभ संकेत
पंजाब के सिखों ने अभी तक इसे हल्के में लिया है. प्रधानमंत्री की सुरक्षा में चूक की साफ निंदा की गई लेकिन प्रधानमंत्री को निशाना बनाने की साजिश के जिक्र को राजनीतिक खेल बताकर खारिज कर दिया गया. आज, पंजाब में अलगावाद तो छोड़िए, कट्टरपंथ का समर्थन करने को कोई तैयार नहीं है. खलिस्तान आंदोलन 1995 के बाद से अपने वजूद के लिए जद्दोजहद कर रहा है. पाकिस्तान, अमेरिका कनाडा, जर्मनी और ब्रिटेन में बैठे खालिस्तानी गुट और पाकिस्तान की आईएसआई तमाम कोशिशें करके भी इस आंदोलन में जान नहीं डाल पाए हैं.
करीब एक साल पहले मैंने इस स्तंभ में प्रकाशित एक लेख में जो लिखा था उसे यहां हवाला देना उपयुक्त होगा— ‘उग्रपंथ को बढ़ावा देने वाले सभी तत्व व्यापक रूप से मौजूद हैं— सीमावर्ती राज्य, अतीत के शान और त्याग पर गर्व करने वाला धार्मिक समुदाय, जमीन की घटती होल्डिंग, सिकुड़ती आमदनी, घटती खुशहाली, उद्योगीकरण की कमी, युवाओं में बेरोजगारी और अच्छी शिक्षा के अभाव समेत बढ़ती नशाखोरी. हर परिवार का एक सदस्य विदेश में है, जो वहां मौजूद खलिस्तान समर्थकों के बहकावे में आकर उग्रपंथ का रास्ता पकड़ सकता है.’ इसमें इस बात को भी जोड़ा सकता है कि राज्य की सालाना आमदनी सिर्फ 70,000 करोड़ रुपए है जबकि कर्ज का बोझ 2.82 लाख करोड़ रुपए हो गया है.
यहां इस बात का जिक्र भी किया जा सकता है कि 26 दिसंबर 1705 को गुरु गोविंद सिंह के दो पुत्रों की शहादत दिवस को ‘वीर बाल दिवस’ के रूप में मनाने की जो घोषणा प्रधानमंत्री की है वह सभी धर्मों के प्रति सम्मान और सहिष्णुता को प्रदर्शित करता है. पिछले एक साल से बीजेपी खालिस्तान का भूत खड़ा करने की जोरदार कोशिश कर रही है और नतीजतन सिख समुदाय में अलगाव की भावना पैदा कर रही है. 5 जनवरी को प्रधानमंत्री की सुरक्षा में चूक की सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में जांच अभी शुरू भी नहीं की है मगर साजिश की बातें उठाई जा रही हैं जिससे बीजेपी की इस कोशिश को नई ताकत मिली है. घरेलू राजनीति की यह दुर्भाग्यपूर्ण प्रवृत्ति आईएसआई, विदेश में बैठे खालिस्तानी उग्रपंथियों और पंजाब में उनके समर्थकों के लिए अनुकूल माहौल बना सकती है. यह इस तरह की राष्ट्रीय आपदा से बचने के लिए राजनीतिक आत्मनिरीक्षण करने और उदारता बरतने का समय है.
(ले. जनरल एच.एस. पनाग पीवीएसएम, एवीएसएम (से.नि.) ने भारतीय सेना की 40 साल तक सेवा की. वे उत्तरी कमान और सेंट्रल कमान के जीओसी-इन-सी रहे. सेवानिवृत्ति के बाद वे आर्म्ड फोर्सेज ट्रिब्यूनल के सदस्य रहे. ये उनके निजी विचार हैं)
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