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Friday, 3 May, 2024
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BRS, TMC और BJD तक ने की महिला आरक्षण की वकालत, लेकिन चुनावी मैदान में उतारने में रहीं हैं पीछे

अधिकांश क्षेत्रीय दलों ने संसद में महिला आरक्षण विधेयक का समर्थन किया, लेकिन पिछले 2 विधानसभा चुनावों में टिकट देने का उनका ट्रैक रिकॉर्ड एक अलग कहानी बताता है.

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नई दिल्ली: लिंग असंतुलन उस समय और साफ हो गया जब मिजोरम के सत्तारूढ़ मिजो नेशनल फ्रंट (एमएनएफ) ने इस हफ्ते आगामी विधानसभा चुनावों के लिए अपने उम्मीदवारों की लिस्ट जारी की — जिसमें 40 उम्मीदवारों में महज़ दो महिलाएं हैं. हालांकि, यह 2018 के चुनावों से एक कदम आगे है जब एक भी महिला ने एमएनएफ के टिकट पर चुनाव नहीं लड़ा था.

दक्षिण में तेलंगाना में भी, जहां इस साल चुनाव होने हैं, ऐसी ही कहानी है. भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस), जिसने इस साल की शुरुआत में महिला आरक्षण बिल के लिए दिल्ली में विरोध प्रदर्शन किया था, ने अपनी 115 उम्मीदवारों की लिस्ट में केवल छह महिला उम्मीदवारों को मैदान में उतारा था, जो कि मात्र 5.2 प्रतिशत प्रतिनिधित्व था.

लेकिन यह सिर्फ एमएनएफ और बीआरएस नहीं है. पिछले दो राज्य चुनावों में प्रमुख क्षेत्रीय दलों द्वारा टिकट वितरण के विश्लेषण से महिला उम्मीदवारों को मैदान में उतारने की अनिच्छा का पता चलता है.

दिप्रिंट द्वारा विश्लेषण किए गए 14 क्षेत्रीय दलों में से तेरह ने अपने पिछले दो विधानसभा चुनावों में एक का छठवां हिस्सा (1/6) यानी 16.66 प्रतिशत, महिला उम्मीदवारों को मैदान में उतारा.

इसमें वे पार्टियां शामिल हैं जिन्होंने महिला आरक्षण बिल का मुखर समर्थन किया था, तमिलनाडु में द्रविड़ मुनेत्र कषगम (डीएमके) से जहां 2021 में केवल 5.8 प्रतिशत उम्मीदवार महिलाएं थीं, 2019 में 13.01 प्रतिशत के साथ ओडिशा में बीजू जनता दल (BJD) तक.

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एकमात्र अपवाद जनता दल-यूनाइटेड या जेडी (यू) था, जिसने बिहार के 2020 विधानसभा चुनावों में 19.13 प्रतिशत महिला उम्मीदवारों को मैदान में उतारा. दूसरे नंबर पर तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) रही, जिसने 2022 में 16.55 प्रतिशत महिला उम्मीदवारों को मैदान में उतारा, जो कि छठवें हिस्से से थोड़ा ही कम है.

Infographic: Ramandeep Kaur | ThePrint
इन्फ्रोग्राफिक : रमनदीप कौर/दिप्रिंट

राजनीतिक विश्लेषक बद्री नारायण ने दिप्रिंट को बताया कि कई पार्टियां महिलाओं को टिकट देने से झिझकती हैं क्योंकि उनका मानना है कि महिलाओं में आवश्यक “क्षमता” और “ताकत” की कमी है.

उन्होंने कहा, “यहां तक कि अगर महिलाएं टिकट मांगने के लिए आगे आती हैं, तो भी उन्हें टिकट नहीं दिया जाता है. उन्हें जीतने योग्य उम्मीदवार नहीं माना जाता है. एक बार महिलाओं के लिए आरक्षण का कानून प्रभावी हो जाएगा तो बदलाव आएगा.”

लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के लिए एक तिहाई आरक्षण का प्रस्ताव करने वाले महिला कोटा विधेयक को 29 सितंबर को राष्ट्रपति की मंजूरी मिल गई — इसे पहली बार संसद में पेश किए जाने के लगभग तीन दशक बाद.

हालांकि, यह विधेयक, जो अब एक अधिनियम है, इसके कार्यान्वयन के लिए स्पष्ट समय-सीमा का अभाव है. इसके अगली जनगणना और उसके बाद निर्वाचन क्षेत्र परिसीमन के बाद ही लागू होने की उम्मीद है, जिसका अर्थ है कि यह 2029 के लोकसभा चुनाव तक लागू नहीं होगा.

नारायण ने कहा, “एक बार विधेयक लागू हो जाने के बाद पार्टियों को महिलाओं को टिकट देना होगा.”, “लेकिन हां, इसमें समय लगेगा.”

अपनी ही पार्टियों में प्रतिनिधित्व की कमी से जूझ रही कई महिला नेताओं ने दिप्रिंट को बताया कि वे उम्मीद लगाए बैठी हैं.

डीएमके सांसद कनिमोझी करुणानिधि ने कहा, “हर पार्टी के लिए यह एक संघर्ष है. यह नेतृत्व के लिए भी एक बड़ा संघर्ष है और निचले स्तर पर यह बहुत कठिन है.” बावजूद इसके कि उनकी अपनी पार्टी में चुनावों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व कम है, कनिमोझी महिला आरक्षण की मुखर समर्थक रहीं है.

उन्होंने कहा, “जो विधेयक लागू किया जाएगा, उससे निश्चित तौर पर फर्क पड़ेगा.” हालांकि, उन्होंने इस बात पर संदेह व्यक्त किया कि क्या ऐसा होगा.


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सबसे अच्छा, खराब और बेहतर

दिप्रिंट ने पिछले दो राज्य चुनावों में 14 प्रमुख क्षेत्रीय राजनीतिक दलों के बीच टिकट बांटे जाने का विश्लेषण किया, जिनमें से प्रत्येक की संबंधित विधानसभाओं में न्यूनतम 40 विधायक थे.

इस विश्लेषण में आम आदमी पार्टी (आप) भी शामिल थी, जो पंजाब में जीत हासिल करने से पहले तक दिल्ली स्थित पार्टी थी और उसने गुजरात और गोवा में भी बढ़त हासिल की थी. इसके अतिरिक्त, एक महिला के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय पार्टी, बहुजन समाज पार्टी (बसपा) को भी अध्ययन में शामिल किया गया था.

अन्य थे पश्चिम बंगाल में टीएमसी, ओडिशा में बीजेडी, बिहार में जेडी (यू) और राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी), केरल में वामपंथी दल, तेलंगाना में बीआरएस (पूर्व में टीआरएस), तमिलनाडु में डीएमके और एआईएडीएमके, आंध्र प्रदेश में युवजन श्रमिक रायथू कांग्रेस पार्टी (वाईएसआरसीपी), महाराष्ट्र में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी), अब विभाजित हो चुकी शिवसेना और उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी (एसपी) शामिल थे.

Infographic: Ramandeep Kaur | ThePrint
इन्फोग्राफिक : रमनदीप कौर/दिप्रिंट

इन 14 पार्टियों द्वारा लड़े गए कुल 28 राज्यों के चुनावों में जद (यू) के उल्लेखनीय अपवाद को छोड़कर, महिलाएं सभी उम्मीदवारों में से (1/6) हिस्से से भी कम थीं.

यह उन लोगों के लिए हैरानी की बात हो सकती है जो वर्षों से महिला आरक्षण विधेयक पर पार्टी के रुख का अनुसरण कर रहे हैं.

1997 में दिवंगत शरद यादव ने इस विधेयक का विरोध करते हुए सवाल उठाया था कि क्या इसका उद्देश्य केवल “परकटी” महिलाओं को लाना है, जो छोटे बालों वाली शिक्षित महिलाओं के लिए अपमानजनक शब्द है. 2009 में उन्होंने ओबीसी उप-कोटा के बिना विधेयक पारित होने पर ज़हर खाने की धमकी भी दी थी.

2010 में इस मुद्दे पर यादव और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के बीच मतभेद के कारण पार्टी के भीतर विभाजन की अटकलें भी लगाई गईं. हालांकि, यादव ने 2017 में जद (यू) छोड़ दिया और अगले चुनाव में पार्टी में एक महत्वपूर्ण बदलाव दिखा. जदयू द्वारा महिलाओं को टिकटों का आवंटन 2020 के राज्य चुनावों में दोगुना होकर 19.13 प्रतिशत हो गया, जो 2015 में 9.9 प्रतिशत था.

एक और पार्टी जिसने उल्लेखनीय सुधार दिखाया वह थी आप, विशेषकर दिल्ली में. पार्टी ने 2015 में 8.57 प्रतिशत महिला उम्मीदवारों को नामांकित किया था, जो 2020 में बढ़कर 12.86 प्रतिशत हो गई. पंजाब चुनाव में महिला उम्मीदवारों को पार्टी के 10.2 प्रतिशत टिकट मिले, जो 2017 में 8 प्रतिशत थे.

पिछले दो चुनावों में सभी 14 पार्टियों में से शिवसेना में महिला उम्मीदवारों का प्रतिशत सबसे कम था. दोनों चुनावों में औसतन केवल 5.15 प्रतिशत उम्मीदवार महिलाएं थीं. 2019 में उन्होंने 6.3 प्रतिशत महिला उम्मीदवारों को मैदान में उतारा, जो 2014 से लगभग 2 प्रतिशत अंक की वृद्धि है.


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बातें ज़्यादा, कार्रवाई कम?

ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) को छोड़कर अधिकांश क्षेत्रीय दलों ने संसद में महिला आरक्षण विधेयक का समर्थन किया, लेकिन टिकट बांटने का उनका ट्रैक रिकॉर्ड कुछ और ही कहानी कहता है.

बीआरएस इसका उदाहरण है. इसने इस साल की शुरुआत में महिला आरक्षण बिल के लिए सक्रिय रूप से अभियान चलाया, बीआरएस एमएलसी और तेलंगाना के मुख्यमंत्री केसीआर की बेटी के कविता ने नई दिल्ली में जंतर-मंतर पर भूख हड़ताल भी की.

उन्होंने उस समय एक्स पर पोस्ट किया, “विधायी चर्चा में महिलाओं को सशक्त बनाने की मांग नहीं की जा सकती है, इसकी गारंटी विशेष रूप से सरकार द्वारा दी जानी चाहिए.”

हालांकि, 2018 के राज्य चुनाव में पार्टी ने महिला उम्मीदवारों को केवल 3.3 प्रतिशत टिकट आवंटित किए – 2014 से पांच प्रतिशत अंक की गिरावट.

2023 के लिए महिलाओं को आवंटित 5.2 प्रतिशत टिकट थोड़ा बेहतर है, लेकिन महिला आरक्षण कानून द्वारा परिकल्पित 33 प्रतिशत से काफी कम है.

Bharat Rashtra Samithi (BRS) leader K. Kavitha on a day-long hunger strike at New Delhi's Jantar Mantar Friday to press the central government to pass the Women's Reservation Bill. | Manisha Mondal | ThePrint
महिला आरक्षण विधेयक पारित करने के लिए केंद्र सरकार पर दबाव बनाने के लिए भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) की नेता के. कविता (हरी साड़ी में) नई दिल्ली के जंतर मंतर पर एक दिन की भूख हड़ताल पर हैं। | मनीषा मंडल/दिप्रिंट

महिला सशक्तिकरण का दावा करने वाली एक और पार्टी नवीन पटनायक की बीजेडी है. 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले पटनायक ने 33 प्रतिशत महिलाओं को संसद में भेजने के अपने इरादे की घोषणा की थी. इसके बाद, पार्टी ने 21 में से सात (33 प्रतिशत) लोकसभा टिकट महिलाओं को दिए, जिनमें से पांच ने जीत हासिल की.

हालांकि, उस वर्ष एक साथ हुए राज्य चुनावों में बीजद ने केवल 13 प्रतिशत महिला उम्मीदवारों को मैदान में उतारा था.

फिर, डीएमके है. 2017 में इसने महिला आरक्षण विधेयक को जल्द से जल्द पारित करने की मांग करते हुए एक बड़ी रैली का आयोजन किया, जिसमें देश भर के राजनेता और कार्यकर्ता शामिल हुए. उस समय, डीएमके सांसद कनिमोझी करुणानिधि ने कहा था कि अब भाजपा सरकार को वादों के लिए जवाबदेह बनाने का समय आ गया है. उन्होंने घोषणा की थी, “हम डीएमके महिला विंग से संसद और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण की मांग करते हैं.”

हालांकि, डीएमके स्वयं इस मानक को पूरा करने से बहुत दूर है. पार्टी ने 2016 के चुनाव में 10.11 प्रतिशत महिला उम्मीदवारों को मैदान में उतारा था, जो 2021 में लगभग आधा होकर 5.85 प्रतिशत हो गया.

इसी तरह, एनसीपी, जिसकी नेता सुप्रिया सुले महिला आरक्षण की मांग में सबसे आगे थीं, में महिला उम्मीदवारों का प्रतिनिधित्व कम था. 2019 में इसने 7.44 प्रतिशत महिला उम्मीदवारों को मैदान में उतारा और 2014 में यह 7.19 प्रतिशत थी.

महिला नेतृत्व वाली पार्टियों की राय?

क्या महिलाओं के नेतृत्व वाली पार्टियां अधिक न्यायसंगत तरीके से टिकट वितरित करने की संभावना रखती हैं? इस सवाल का जवाब देने के लिए दिप्रिंट ने टीएमसी और बीएसपी के टिकट वितरण का विश्लेषण किया.

ममता बनर्जी के नेतृत्व में तृणमूल महिला कोटा के लिए अपने समर्थन के बारे में मुखर रही है. तृणमूल सांसद महुआ मोइत्रा ने तो यहां तक कह दिया कि उन्होंने ममता को “महिला कोटा बिल की जननी” तक घोषित कर दिया.

पिछले महीने संसद में बोलते हुए, मोइत्रा ने भाजपा सरकार के कार्यों की तुलना ममता सरकार के कार्यों से की.

TMC MP Mahua Moitra at the Parliament House complex during a special session, in New Delhi, Wednesday | PTI photo
संसद भवन परिसर में टीएमसी सांसद महुआ मोइत्रा | पीटीआई

मोइत्रा ने घोषणा की, “उन्होंने (बनर्जी ने) मूल विचार को जन्म दिया है क्योंकि उन्होंने बिना शर्त 37 प्रतिशत महिला सांसदों को संसद में भेजा है. यह सरकार आज जो लेकर आई है वह महिला आरक्षण विधेयक नहीं है बल्कि महिला आरक्षण पुनर्निर्धारण विधेयक है और इसका नाम बदला जाना चाहिए.”

लेकिन जबकि टीएमसी ने 2019 के लोकसभा चुनावों के दौरान एक तिहाई से अधिक महिला उम्मीदवारों को मैदान में उतारा, जिसके परिणामस्वरूप निचले सदन में एक तिहाई से अधिक टीएमसी सांसद महिलाएं थीं, वही प्रतिबद्धता विधानसभा चुनावों में स्पष्ट नहीं थी.

2021 के राज्य चुनावों के दौरान, टीएमसी टिकट पाने वाली महिला उम्मीदवारों का प्रतिशत केवल 16.55 प्रतिशत था. फिर भी, यह आंकड़ा अभी भी अधिकांश क्षेत्रीय दलों से बेहतर है.

हालांकि, यह बात मायावती के नेतृत्व वाली बसपा के लिए नहीं कही जा सकती. पिछले दो यूपी चुनावों 2017 और 2022 में मायावती की पार्टी ने क्रमशः केवल 5.26 प्रतिशत और 9.16 प्रतिशत महिला उम्मीदवारों को नामांकित किया.

‘जगह पाना बहुत मुश्किल’

सेंटर फॉर सोशल रिसर्च की निदेशक और Women in Politics: Forums and Processes, सहित कई किताबों की लेखिका रंजना कुमारी ने बताया कि पुरुष-प्रधान पार्टियां शायद ही कभी महिलाओं की भागीदारी को प्रोत्साहित करती हैं, भले ही वे महिलाओं के वोटों पर निर्भर हों.

उन्होंने भारतीय राजनीतिक दलों को लोकतांत्रिक व्यवस्था के भीतर पितृसत्तात्मक, पुरुष-प्रधान संस्थाओं के रूप में चित्रित किया. उन्होंने कहा, “महिला नेता रैंकों और फाइलों में सक्रिय हैं, लेकिन राजनीतिक दल में उनकी भूमिका बहुत मामूली है. पुरुष सोचते हैं कि यह उनका डोमेन है.”

इन चिंताओं के अलावा, कुमारी ने कहा कि महिलाओं को “चरित्र हनन” की अतिरिक्त चुनौती का सामना करना पड़ता है.

उन्होंने कहा, “चूंकि राजनीति में बहुत कम महिलाएं हैं, इसलिए लोग उनकी नेतृत्व क्षमताओं के बजाय उनके शारीरिक गुणों के बारे में बात करते हैं. इसने कई महिलाओं को राजनीति में प्रवेश करने से हतोत्साहित किया है.”

कुमारी ने यह भी बताया कि राष्ट्रीय पार्टियों की तुलना में क्षेत्रीय पार्टियां महिला उम्मीदवारों को मैदान में उतारने में अधिक झिझक रही हैं. उन्होंने कहा, “यही कारण है कि राज्य विधानसभाओं में महिलाओं का प्रतिशत राष्ट्रीय संसद की तुलना में बहुत कम है.”

दिप्रिंट से बात करने वाली महिला नेताओं ने इस बात पर सहमति जताई कि राजनीति में पुरुषों का वर्चस्व है, यहां तक कि उनकी अपनी पार्टियों में भी.

डीएमके की कनिमोझी करुणानिधि ने कहा, “यह शक्ति का स्थान है. यह एक ऐसा स्थान है जिसे महिलाओं के साथ साझा नहीं किया गया है. यह एक बड़ा संघर्ष है क्योंकि वे (पुरुष) उन महिलाओं को नहीं देखना चाहते जो बोल सकती हैं, जो महिलाएं स्वतंत्र हैं, जो महिलाएं अपनी राय रखती हैं. वहां जगह ढूंढना बहुत मुश्किल है.”

women leaders
(बाएं से दाएं) एक कार्यक्रम में सांसद मुथुवेल करुणानिधि कनिमोझी, स्मृति ईरानी, सुप्रिया सुले, अनुप्रिया पटेल और हरसिमरत कौर बादल | प्रवीण जैन/दिप्रिंट

समाजवादी पार्टी की प्रवक्ता और इसकी महिला विंग की प्रमुख जूही सिंह ने दिप्रिंट को बताया कि हालांकि, चीज़ें ‘सुधर’ रही हैं, लेकिन अभी भी बहुत कुछ करना बाकी है.

उन्होंने कहा, “राजनीतिक परिदृश्य महिलाओं के अनुकूल नहीं रहा है. यह बहुत पितृसत्तात्मक है.”

उनके अनुसार, स्थापित महिला नेताओं को भी पार्टी में अन्य महिलाओं का समर्थन करने के लिए और अधिक प्रयास करना चाहिए. उन्होंने कहा, “यहां तक कि जो महिलाएं सक्रिय राजनीति के क्षेत्र में सफल रही हैं, उनके लिए भी विभिन्न वर्गों की महिलाओं की कुछ सहायता या मार्गदर्शन की कमी रही है.”

सिंह को महिला आरक्षण कानून पर संदेह है, लेकिन उन्हें लगता है कि यह अभी भी बदलाव के लिए मजबूर कर सकता है.

उन्होंने कहा, “ऐसा कोई तरीका नहीं है कि यह विधेयक इसे लागू करने के इरादे से लाया गया हो, लेकिन कम से कम हर पार्टी को आने वाले चुनावों में एक निश्चित संख्या में महिलाओं को टिकट देने की बात पर अमल करना होगा.”

समाजवादी पार्टी ने 2022 में 12.1 प्रतिशत और 2017 में 11 प्रतिशत महिला उम्मीदवारों को मैदान में उतारा.

पूर्व सांसद और तृणमूल प्रवक्ता कीर्ति आज़ाद ने दिप्रिंट से कहा कि क्षेत्रीय पार्टियों को उनकी पार्टी से सीख लेने और महिलाओं को आगे लाने की ज़रूरत है.

तृणमूल की विधानसभा उम्मीदवारों की सूची में महिलाओं की कम उपस्थिति पर उन्होंने कहा, “यह बहुत संभव है कि उस समय हमारे पास उम्मीदवार नहीं थे. अगर हमारे पास उम्मीदवार होते, तो उन्हें खड़ा कर दिया गया होता.”

रंजना कुमारी ने कहा कि महिलाओं के शीर्ष पर होने से भी अधिक प्रतिनिधित्व की गारंटी नहीं है. उन्होंने बताया कि ममता बनर्जी और सुषमा स्वराज जैसे अपवादों को छोड़कर ऐसे कई नेता केवल एक शक्तिशाली पुरुष के समर्थन से शीर्ष पर पहुंचने में सक्षम थे.

कुमारी ने कहा, “मायावती को कांशीराम का समर्थन था. इस तरह वह कामयाब रही. जयललिता और सोनिया गांधी की कहानियां एक जैसी हैं. उन्हें समर्थन आधार पर निर्भर रहना पड़ा और पार्टियां आमतौर पर पुरुष नेतृत्व द्वारा नियंत्रित होती हैं.”

उन्होंने कहा, “महिला नेताओं के लिए भी पार्टी में समान पितृसत्तात्मक मानदंडों को बढ़ावा देना राजनीति की एक तरह की मजबूरी थी.”

अब, वह मजबूरी बदल जाएगी, भले ही ऐसा कुछ वर्षों बाद हो.

(संपादन: फाल्गुनी शर्मा)

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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