नई दिल्ली: मोदी सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल के दौरान पिछले करीब साढ़े तीन सालों में नियम 193 के तहत राष्ट्रीय महत्व के मामलों पर केवल छह अल्पकालिक चर्चाओं की अनुमति दी है जबकि पहले कार्यकाल यानी 2014 से 2019 के दौरान ऐसी 33 चर्चाओं की अनुमति दी गई थी. यह बात गैर-लाभकारी संगठन पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च के एक विश्लेषण में सामने आई है.
इससे पूर्व, मनमोहन सिंह सरकार ने 2004 से 2009 के बीच अपने पहले कार्यकाल के दौरान 55 अल्पकालिक चर्चाओं और दूसरे कार्यकाल में (2009-2014) ऐसी 41 चर्चाओं की अनुमति दी थी. वहीं, 1999-2004 के दौरान अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने नियमानुसार 59 अल्पकालिक चर्चाओं की अनुमति दी थी.
नियम 193 सदन में कोई औपचारिक प्रस्ताव पेश किए बिना चर्चा की अनुमति देता है. इसलिए इस नियम के तहत चर्चा के बाद कोई मतदान नहीं हो सकता.
संसद के हाल में संपन्न शीतकालीन सत्र (7 से 23 दिसंबर) के दौरान निचले सदन में तीन बार बहस हुई, जिनमें दो भारत में खेलों को बढ़ावा देने के मुद्दे से जुड़ी थीं और एक अल्पकालिक चर्चा मादक द्रव्यों की समस्या (नियम 193 के तहत) पर हुई.
पीआरएस का विश्लेषण बताता है, ‘संसद में होने वाली अल्पकालिक चर्चाओं (नियम 193 के तहत) की संख्या पिछली कुछ लोकसभाओं में घटी ही है…13वीं लोकसभा (वाजपेयी सरकार के समय) में ऐसी 59 चर्चाएं हुईं, जो उसके बाद तीन लोकसभाओं में घटकर क्रमश: 55, 41 (मनमोहन सिंह के कार्यकाल के दौरान 2004 से 2009 और 2009-2014) और 33 (2014-19) रह गईं और मौजूदा लोकसभा (17वीं) की साढ़े तीन साल की अवधि में यह आंकड़ा महज छह पर ही पहुंचा है.’
संसद में बहस के मौके घटने की ओर इशारा करते हुए विपक्षी नेताओं ने आरोप लगाया है कि केंद्र देश के सामने महंगाई और बेरोजगारी जैसे प्रमुख मुद्दों पर चर्चा से बच रहा है और दोनों सदनों का उपयोग केवल विधेयकों को पारित कराने के लिए कर रहा है.
ऐसे ही एक नेता ने दिप्रिंट से बातचीत में कहा, ‘प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में संसद में कम से कम बहस का ट्रेंड बन गया है.’
केरल से कांग्रेस के लोकसभा सदस्य हिबी एडेन ने दिप्रिंट से कहा, ‘सरकार के पास इस शीतकालीन सत्र में कोई उचित एजेंडा नहीं था, इसलिए इसकी अवधि को ही कम कर दिया गया.’ गौरतलब है कि संसद का यह सत्र चार दिन पहले स्थगित हो गया था और इसकी बैठक केवल 13 दिनों तक चली.
कई लोगों ने इस माह की शुरू में अरुणाचल प्रदेश में भारत-चीन के बीच सैन्य झड़प के बाद सीमा विवाद पर चर्चा कराने को लेकर सरकार की अनिच्छा को रेखांकित किया और कहा कि विपक्षी दलों की मांग के बावजूद ऐसा नहीं किया गया.
टीएमसी के राज्य सभा सांसद डेरेक ओ ब्रायन ने अपने एक ट्वीट में कहा, ‘विपक्ष की तरफ से राज्य सभा में एक जरूरी राष्ट्रीय मुद्दे (नियम 267 के तहत) पर चर्चा के लिए दिया गया हर नोटिस पिछले छह वर्षों में सिरे से खारिज कर दिया गया है.’
राज्य सभा का नियम 267 किसी सदस्य की तरफ से किसी महत्वपूर्ण मुद्दे पर चर्चा का सुझाव दिए जाने पर दिन का कामकाज स्थगित करने की अनुमति देता है.
इस शीतकालीन सत्र में राज्य सभा ने ग्लोबल वार्मिंग के विषय पर चर्चा की लेकिन विपक्षी दलों के वॉकआउट के बावजूद दोनों सदनों में सीमा विवाद पर चर्चा नहीं कराई गई.
भारतीय-चीनी सैनिकों के बीच झड़प पर संसद में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के 13 दिसंबर के बयान के बाद विपक्ष ने इस विषय पर स्पष्टीकरण मांगा था लेकिन राज्य सभा के उपसभापति हरिवंश सिंह ने यह कहते हुए उनकी मांग खारिज कर दी कि यह एक संवेदनशील मुद्दा है.
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‘लोकतंत्र कमजोर हो रहा’
नियम 267 के तहत चर्चा के लिए राज्य सभा का कामकाज आखिरी बार 2016 में स्थगित किया गया था, जब नोटबंदी का मामला उठाया गया था.
माकपा के ही एक अन्य नेता नेता जॉन ब्रिटास ने दिप्रिंट से बातचीत में कहा, ‘सरकार ने नियम 267 को ठंडे बस्ते में डाल दिया है क्योंकि वो यह संदेश देना चाहती है कि सब कुछ ठीक है और बेरोजगारी, महंगाई और सीमा पर विवाद जैसी कोई समस्या है ही नहीं.’
माकपा नेता ने कहा, ‘सरकार संसद में मामलों पर चर्चा में दिलचस्पी नहीं रखती है क्योंकि इससे उसकी कमियां उजागर होंगी. यह उस नैरेटिव के खिलाफ होगा जो वह कायम करना चाहती है.’
राज्य सभा के प्रकाशन, राज्य सभा एट वर्क में बताया गया है कि उच्च सदन के अध्यक्ष के तौर पर शंकर दयाल शर्मा ने 1990 और 1992 के बीच नियम 267 के तहत चार बार चर्चा की अनुमति दी थी, वहीं, भैरों सिंह शेखावत ने 2004 में एक वर्ष में तीन बार इस नियम के तहत चर्चा कराई और 2013 से 2016 के बीच हामिद अंसारी ने नियम 267 के तहत चार बार चर्चा की अनुमति दी थी.
एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स के संस्थापक सदस्य और ट्रस्टी प्रो. जगदीप छोकर कहते हैं, ‘यह नई सामान्य व्यवस्था बन गई है क्योंकि सरकार विधेयकों की संसदीय जांच से बचना चाहती है. यहां तक (सदन की) बैठकों की संख्या, जो पहले 100 दिन होती थी, भी अब घटकर 60 दिन रह गई है. एक ही सत्र में विधेयकों को बिना जांच के पारित कर दिया जाता है, इससे अच्छे कानून बनाने की प्रक्रिया प्रभावित होती है और लोकतंत्र दिन-ब-दिन कमजोर होता जा रहा है.’
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विधेयकों पर कम ही होती है नुक्ताचीनी
पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च विश्लेषण ने एक और तथ्य उजागर किया है कि अब कम ही विधेयक ऐसे होते हैं जिन्हें उनकी खूबियों-खामियों की समीक्षा के लिए समितियों के पास भेजा जाता हो.
मौजूदा लोकसभा में पेश विधेयकों में से केवल 23 प्रतिशत को समीक्षा के लिए समितियों के पास भेजा गया, जो कि पिछली तीन लोकसभाओं की तुलना में कम है. इसमें बताया गया है कि 14वीं लोकसभा में 60 प्रतिशत बिल स्थायी समितियों को भेजे गए थे, जबकि यह आंकड़ा 15वीं लोकसभा में 71 प्रतिशत और 16वीं लोकसभा में 27 प्रतिशत रहा.
इसमें आगे बताया गया है कि 17वीं लोकसभा में पारित 130 विधेयकों में से 94 को संसद के एक ही सत्र में पेश और पारित किया गया.
विश्लेषण के मुताबिक, पिछले कुछ दशकों में संसद की कुल बैठकों के दिनों की संख्या भी घटी है, जबकि विधेयकों को बिना जांच पारित किए जाने की संख्या बढ़ी है.
विश्लेषण के मुताबिक, ‘पिछले आठ लगातार सत्रों के दौरान संसद समय से पहले स्थगित कर दी गई. समय-पूर्व स्थगन के कारण लोकसभा के लिए 36 निर्धारित बैठकें बर्बाद हो गईं.’
कांग्रेस सांसद ईडन ने कहा, ‘यह (संसदीय) बैठकों की संख्या कम करना एक ट्रेंड बन गया. केंद्र बहस से बच रहा है ताकि लोगों को अहम मुद्दों का पता ही न चल सके.’
(अनुवाद: रावी द्विवेदी | संपादन: कृष्ण मुरारी)
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