scorecardresearch
Monday, 6 May, 2024
होममत-विमतदेउबा के खिलाफ केपी ओली के तख्तापलट से नेपाल में कामरेड फिर सत्ता में, भारत के हाथ अभी भी कई इक्के

देउबा के खिलाफ केपी ओली के तख्तापलट से नेपाल में कामरेड फिर सत्ता में, भारत के हाथ अभी भी कई इक्के

केपी आली की अपने कम्युनिस्ट प्रतिद्वंद्वियों से हाथ मिला लेने से पड़ोस सदमे में, मगर पीएम मोदी उबरे और नेपाल के नए प्रधानमंत्री प्रचंड को बधाई देने वाले पहले अंतरराष्ट्रीय नेता बने.

Text Size:

रविवार को नेपाल में कभी कम्युनिस्ट कॉमरेड रहे, फिर कट्टर राजनीतिक शत्रु, अब फिर सहयोगी बन बैठे तो नई सरकार बन गई. माहिर सियासी सूत्रधार, पूर्व प्रधानमंत्री के.पी. शर्मा ओली माओवादी नेता पुष्प कमल दहल को हिमालयी गणराज्य का प्रधानमंत्री पद सौंपने के लिए समर्थन करने पर राजी हो गए.

ओली के इस कदम से नेपाल के साथ-साथ पड़ोसी देश भी स्तब्ध हो गए, लेकिन भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी फौरन उबरे और दहल को बधाई देने वाले पहले अंतरराष्ट्रीय नेता बन गए, जो प्रचंड के नाम से चर्चित हैं. उसके बाद अमेरिका और पाकिस्तान ने भी बधाई दी.

नेपाल में हाल में हुए चुनावों में किसी भी राजनीतिक दल को बहुमत नहीं मिला, यही माना जा रही था कि शेर बहादुर देउबा के नेतृत्व में नेपाली कांग्रेस के चुनाव पूर्व गठजोड़ के हाथ सत्ता आएगी, जिसके प्रचंड प्रमुख सहयोगी थे.

लेकिन शायद ही कुछ ने ओली के बारे में सोचा. वे देउबा और नेपाली कांग्रेस के खिलाफ चुनाव लड़े थे. प्रचंड के साथ उनके मतभेद भी जगजाहिर हैं. 2021 में, प्रचंड ने ओली का साथ छोड़ दिया था क्योंकि ओली ने उन्हें वादे के मुताबिक उन्हें प्रधानमंत्री नहीं बनाया था.

खैर, अब लगता है कि ओली ही सत्ता के सूत्रधार बन गए. उन्होंने प्रचंड को पांच साल के कार्यकाल में ढ़ाई वर्ष के लिए प्रधानमंत्री पद और उनकी पार्टी को तीन में से एक डिप्टी पीएम पद देने का वादा किया. ओली की पार्टी यूनाइटेड माक्र्सिस्ट-लेनिनिस्ट (यूएमएल) को स्पीकर पद के साथ-साथ राष्ट्रपति पद मिलेगा. (रविवार को प्रचंड के पीएम बनने के दावे को स्वीकार करने वाली मौजूदा राष्ट्रपति बिद्या भंडारी भी ओली की पार्टी की सदस्य रही हैं).

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें

सत्ता के इस खेल में नई दिल्ली द्वारा समर्थित देउबा हार गए हैं. उन्होंने सोचा कि वे प्रचंड को अनदेखा कर सकते हैं, इसलिए पांच साल के कार्यकाल के पहले हिस्से के लिए प्रधानमंत्री बनाने के उनके अनुरोध को ठुकरा दिया और वादा किया कि उन्हें दूसरे हिस्से के ढ़ाई साल लिए प्रधानमंत्री बनाया जाएगा. जाहिर है, प्रचंड की महत्वाकांक्षाएं कहीं अधिक थीं. देउबा को हाथ मलते रह जाना पड़ा.

ओली जानते थे कि अगर देउबा-प्रचंड ने अगले पांच वर्षों के लिए सत्ता साझा किया तो वे पीएम नहीं बन पाएंगे, इसलिए उन्होंने देउबा को पटखनी देने का फैसला किया और उसमेें कामयाब भी हुए.

आखिर, देउबा अपने चुनाव-पूर्व साथी प्रचंड से क्यों दूर हो गए? प्रचंड को देउबा को छोडक़र अपने साथ हाथ मिलाने के लिए राजी करने में ओली कैसे सफल हुए?

अंत में, यह सब इस पर निर्भर था कि कौन प्रचंड को बेहतर तरीके से राजी कर सकता है और पीएम बनने की उनकी बढ़ती महत्वाकांक्षा का फायदा उठा सकता है.

कम ही लोग जानते हैं कि आखिरी वक्त तक देउबा भी कोशिश कर रहे थे कि ओली पीएम पद के लिए उनका समर्थन करें. लेकिन यह नहीं चल पाया क्योंकि ओली प्रचंड को पीएम बनाने की कोशिश कर रहे थे, ताकि वे किंग-मेकर बन सकें और प्रचंड की कुर्सी के पीछे से नेपाल पर शासन कर सकें.


यह भी पढ़ें: मोदी-जेलेंस्की की बातचीत के क्या हैं मायने- ‘रूसी तेल को लेकर आलोचना के बावजूद बढ़ रहा है भारत का कद’


चीन को बढ़त?

कुछ जानकार काठमांडू में सत्ता के इस खेल को भारत के नुकसान और चीन के फायदे के रूप में देख रहे हैं. ऐसे विश्लेषण में यकीनन दम है.

चीन को जब कम्युनिस्ट कामरेडों को एक साथ लाने की कोई उम्मीद दिखी होगी तो शर्तिया उसने कोई कोर कसर बाकी नहीं छोड़ी होगी, जैसा कि उसने 2018 में किया था. उस समय, ओली पीएम बन गए थे और उन्होंने प्रचंड से वादा किया था कि वे ढाई साल बाद उन्हें पीएम की कुर्सी सौंप देंगे.

लेकिन उन्होंने वैसा नहीं किया. इसलिए प्रचंड ने ओली का साथ छोड़ दिया और देउबा की पार्टी का समर्थन करने लगे.

माना जाता है कि इससे चीन काफी परेशान हुआ था. हालांकि, उसने कोशिश करना नहीं छोड़ा. चुनावों से कुछ दिन पहले चीन के संस्कृति उप मंत्री ली कुन की काठमांडू की यात्रा शायद कम्युनिस्टों के पुनर्मिलन के एक और कोशिश ही थी, जिसके बारे में देउबा ने आपत्ति उठाई थी.

कई कम्युनिस्ट पार्टियों का पुनर्मिलन तो आज तक नहीं हो पाया है, लेकिन अच्छी बात यह जरूर हुई है कि कम्युनिस्ट पार्टियों ने एक-दूसरे के साथ गठबंधन किया है, भले ही यह फिलहाल के लिए ही क्यों न हो.

तो, क्या इसका मतलब यह है कि चीन जीत गया और भारत नेपाल में हार गया है? बेशक, इतना सीधा-सादा मामला तो नहीं है. भारत-नेपाल संबंध बहुत गहरे हैं और चीन सहित कोई दूसरा उसे तोड़ नहीं सकता. नेपाल की सभी नदियां दक्षिण यानी भारत की ओर बहती हैं. दोनों के बीच खुली सीमा पूरे दक्षिण एशिया के लिए एक मॉडल है. नेपाल के तराई और भारत के पड़ोसी राज्य उत्तर प्रदेश और बिहार के लोगों के बीच ‘रोटी-बेटी का रिश्ता’ है.

प्रचंड के पास संसद में अपना विश्वास मत साबित करने में एक महीने का समय है. एक महीने में बहुत कुछ हो सकता है.

लेकिन इस चुनाव परिणाम का असली आश्चर्य यह नहीं है कि प्रचंड नए प्रधानमंत्री हैं या यह कि ओली ने देउबा का तख्तापलट कर दिया है या यह कि हिमालय के पार चीन मुस्कुराता लग रहा है, बल्कि यह है कि रबी लामिछाने की अगुआई वाली राष्ट्रीय स्वतंत्र पार्टी ओली-प्रचंड के नेतृत्व वाले गठबंधन में शामिल हो गई है, जो भारत की आम आदमी पार्टी जैसी ही है.

टीवी पत्रकार रहे लामिछाने तीन उप-प्रधानमंत्रियों में एक होंगे, जो इस बात का प्रमाण है कि नेपाल की नई पीढ़ी के नेता सत्ता-संघर्ष को अच्छी तरह समझते हैं. युवा तुर्कों से भरी उनकी पार्टी, नेपाल की राजनीतिक बिरादरी में कुछ स्थापित नामों को हराने में सक्षम हुई. जाहिर है, इससे व्यवस्था में बदलाव लाने के उनके दृढ़ संकल्प का पता चलता है.

उधर, प्रचंड को अब तीसरी बार प्रधानमंत्री की कुर्सी मिली है. ये ढाई साल शायद दिलचस्प हों, जिसके हर कदम पर भारत की नजरें गड़ी होंगी.

(लेखक कंसल्टिंग एडिटर हैं. उनका ट्विटर हैंडल @jomalhotra है. व्यक्त विचार निजी हैं.)

(अनुवादः हरिमोहन मिश्रा | संपादन: ऋषभ राज)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ें: जहर देकर मारा गया’ भोवाल का वो राजकुमार, जो चिता से उठकर संन्यासी बना और फिर अपनी रियासत हासिल की


 

share & View comments