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Friday, 17 May, 2024
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कमांडरों के सम्मेलन में मोदी का भाषण सुनकर क्यों सेना के आला अधिकारी सिर खुजला रहे हैं

1971 की लड़ाई के जब 50 वर्ष पूरे होने जा रहे थे तब अपेक्षा तो यही थी कि कमांडरों की बैठक वेलिंगटन के डिफेंस कॉलेज में होती, जहां फील्ड मार्शल सैम मानेक शॉ चिर-निद्रा में सो रहे हैं.

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गुजरात के केवडिया में ‘एकता की प्रतिमा’ की छाया में 4 से 6 मार्च के बीच कमांडरों का जो संयुक्त सम्मेलन हुआ उसे कई प्रथम उपलब्धियों का श्रेय भी दिया जा सकता है. पहली बार यह सम्मेलन किसी सैन्य स्थल से अलग स्थान पर किया गया. पहली बार इस सम्मेलन की अध्यक्षता चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ ने चीफ ऑफ स्टाफ कमिटी के स्थायी अध्यक्ष के रूप में की. पहली बार इस सम्मेलन में जूनियर और नॉन-कमीशंड अफसरों ने भी भाग लिया.

इन तीन प्रथम उपलब्धियों में से दो— स्थान का चयन और जेसीओ/एनसीओ की भागीदारी— को लेकर विवाद खड़ा हो गया. अपने ‘प्रतीकात्मक’ संबोधन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कुछ ऐसे मसले उठाए कि सेना के आला अफसरान और रक्षा मामलों के जानकार भी उनके निर्देशों को समझ पाने के लिए अपना सिर खुजलाते रह गए.


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कमांडरों के संयुक्त सम्मेलन का लक्ष्य क्या है?

यह सम्मेलन एक वार्षिक आयोजन है जिसमें चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ की अध्यक्षता में होने वाली बैठक में जनरल/एअर/फ्लीट अफसर्स कमांडिंग-इन-चीफ, थलसेना/वायुसेना/नौसेना के वाइस चीफ, अंडमान निकोबार कमान/स्ट्रेटेजिक फोर्सेज़ कमान के कमांडर, थलसेना/वायुसेना/नौसेना के चीफ शामिल होते हैं. रक्षा मंत्री भी एक सत्र की अध्यक्षता करते हैं और उसे संबोधित करते हैं, जिसमें रक्षा सचिव और रक्षा मंत्रालय के दूसरे सचिव भी भाग लेते हैं. सम्मेलन का समापन सभी की मौजूदगी में प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में और उनके संबोधन के साथ होता है.

सम्मेलन का उद्देश्य राष्ट्रीय सुरक्षा के मसलों— आंतरिक/बाहरी खतरों, सुरक्षा संबंधी तत्कालीन परिस्थिति, सेनाओं में सुधार, प्रतिरक्षा की तैयारी और रक्षा उत्पादन, आदि पर सभी सेनाओं और सेवाओं के बीच तालमेल बिठाना होता है. इसका स्तर रणनीतिक होता है. यहां यह बताना उचित होगा कि निर्णय और आदेशों/निर्देशों के पालन के लिए सरकार और सेनाओं के बीच विचार-विमर्श की एक विस्तृत आंतरिक व्यवस्था बनी हुई है. इसलिए इस सम्मेलन का उपयोग मुख्यतः व्यापक किस्म के मसलों पर खुली चर्चा के लिए किया जाता है.

राजनीतिक नेतृत्व भी इसका उपयोग आला कमांडरों को अपना नज़रिया और ध्यान देने वाले मसलों के बारे में बताने के लिए करता है, सीडीएस और सेनाओं के प्रमुखों के साथ संस्थागत स्तर पर संवाद करने के लिए तो करता ही है.

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स्थान का चुनाव

इस वर्ष इस सम्मेलन के लिए सरदार पटेल की प्रतिमा के करीब केवडिया नाम की जगह का चुनाव असामान्य किस्म का था. प्रशासनिक असुविधा से बचने के लिए यह सम्मेलन आज़ादी के बाद से 2014 तक दिल्ली में ही किया जाता रहा.

अक्टूबर 2014 में इस सम्मेलन में प्रधानमंत्री मोदी ने निर्देश दिया कि इसे ‘समुद्र या थलसेना अथवा वायुसेना के अग्रिम अड्डों पर किया जाना चाहिए’. यह तीनों सेनाओं के एकीकरण की दिशा में एक सुधारात्मक फैसला था. सो, यह सम्मेलन 2015, 2017, 2018 में क्रमशः समुद्र में युद्धपोत आईएनएस विक्रमादित्य पर इंडियन मिलिटरी अकादमी, देहरादून में और जोधपुर वायुसेना अड्डे पर किया गया.

अब जबकि पूर्वी लद्दाख में संकट पैदा हो गया तो इस तर्क से सम्मेलन के लिए सबसे उपयुक्त जगह तो उत्तरी कमान मुख्यालय या लेह ही होता, ताकि चीन और पाकिस्तान को भी संदेश दिया जाता. लेकिन फरवरी में सुलह के आसार के मद्देनजर चूंकि यह ठीक नहीं होता इसलिए तीनों सेनाओं में एकता की उनकी दृष्टि से यह सम्मेलन हमारे संयुक्त सेना संस्थानों— खड़गवासला (पुणे) के नेशनल डिफेंस अकादमी या वेलिंगटन (नीलगिरि) के डिफेंस सर्विसेज स्टाफ कॉलेज में किया जा सकता था. वेलिंगटन ज्यादा उपयुक्त होता क्योंकि 1971 की लड़ाई में विजय के 50 साल पूरे हो रहे हैं और उसके नायक फील्ड मार्शल सैम मानेक शॉ वेलिंगटन में ही चिरनिद्रा में हैं. इधर हमारा ज़ोर हिंद-प्रशांत क्षेत्र पर है, तो अंडमान निकोबार कमान भी उपयुक्त होता. वह हमारी तीनों सेनाओं का एकमात्र फील्ड कमान भी है.

इन बातों के मद्देनज़र सम्मेलन स्थल के चुनाव से राजनीतिक रुझान का रंग खुल कर सामने आता है क्योंकि सरदार वल्लभभाई पटेल राष्ट्रीय ‘आइकन’ तो हैं ही, उन्हें भाजपा के ‘आइकन’ में भी तब्दील कर दिया गया है. जो भी हो, सवाल यह है कि क्या संयुक्त कमांडर सम्मेलन को किसी राष्ट्रीय ‘आइकन’ से जोड़ना उचित है? वैसे, राष्ट्रीय ‘आइकनों’ की कोई औपचारिक सूची तो नहीं है, यह केवल राजनीतिक धारणा और प्रचार का मामला है.

भाजपा 2014 से पहले के राष्ट्रीय ‘आइकनों’ की आलोचना करती है, उन्हें भारत की सभी बुराइयों के लिए दोषी ठहराती है और राजनीति में चूंकि कुछ भी स्थायी नहीं होता, तो भावी सरकारें भी इस परंपरा को आगे बढ़ाते हुए इस सम्मेलन को इन ‘आइकनों’ के साथ जोड़ने की कोशिश करेंगी. सीडीएस और सेनाओं के प्रमुखों ने सेना के राजनीतिक इस्तेमाल को कबूल कर लिया है.


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जेसीओ/एनसीओ की भागीदारी

इस सम्मेलन से पहले मीडिया ने सूत्रों के हवाले (सरकारी/सैन्य अधिकारियों द्वारा अनौपचारिक ब्रीफिंग इन दिनों प्रचलन में है) से खबर दी कि अब ‘सेना के जवान भी विचार-विमर्श में भाग लेंगे और सेनाओं के कामकाज तथा ऑपरेशनों से जुड़े विषयों पर अपने मूल्यवान सुझाव देंगे.’

आला सरकारी सूत्रों ने ‘इंडिया टुडे’ को बताया कि ‘सम्मेलन में जवानों को शामिल करने का सुझाव खुद प्रधानमंत्री की ओर से आया’. टाइम्स ऑफ इंडिया ने सूत्रों के हवाले से खबर दी कि 6 मार्च को सम्मेलन में ‘मॉरल ऐंड मोटिवेशन’ (मनोबल और प्रेरणा) विषय पर आयोजित सत्र में जेसीओ/एनसीओ तथा दूसरे रैंकों के अधिकारी भी भाग लेंगे. इसमें प्रधानमंत्री भी उनसे संवाद करेंगे.

इस सम्मेलन का स्तर रणनीतिक मसलों पर विचार करने वाली बैठक वाला है. इसमें जीसीओ और एनसीओ तो क्या, कोर कमांडर स्तर के नीचे के अधिकारी भी कुछ योगदान नहीं दे सकते. जहां तक जूनियर अधिकारियों द्वारा बिल्कुल नायाब या नया विचार देने का सवाल है, सेना में नये सुझावों पर विभिन्न स्तरों पर संवाद-विचार करने और उन्हें अपनाने की व्यवस्था पहले से मौजूद है. सैनिकों का मनोबल बढ़ाने और उन्हें प्रेरित करने की ज़िम्मेदारी कमान के विभिन्न स्तरों पर नेतृत्व की होती है और यह 24 घंटे निभाई जाती है.

रणनीतिक मामलों पर सम्मेलन में इस तरह की भागीदारी से कोई उपयोगी मकसद नहीं पूरा हो सकता है, बल्कि यह सेना में कमान की पवित्र कड़ी को नुकसान ही पहुंचा सकती है. जब कोई गड़बड़ी होती है तब सबसे पहले कमांडिंग अफसर बलि चढ़ता है. प्रधानमंत्री, रक्षा मंत्री और सेनाओं तथा रक्षा मंत्रालय के आला अधिकारियों की मौजूदगी में संवाद सत्र एक अच्छा-खासा तमाशा से ज्यादा कुछ नहीं हो सकता.

मेरे ख्याल से, जेसीओ/एनसीओ की भागीदारी उन्हें आगे बढ़ाने या उनके ज्ञान का लाभ लेने के लिए नहीं बल्कि राजनीतिक नेतृत्व और आम सैनिकों के बीच सीधे औपचारिक संपर्क का दिखावा करना के लिए की गई. पारंपरिक तौर पर यह संपर्क अग्रिम मोर्चों पर नेताओं के दौरे, सैनिक सम्मेलनों और उनके साथ चाय या भोज के दौरान उनका हौसला बढ़ाने के लिए ही होता रहा है.

दक्षिणपंथी राजनीतिक विचारधारा वाले सेना की कमान की कड़ी की अनदेखी कर के आम सैनिकों से सीधे संपर्क के प्रयास कर चुके हैं और इसके भयानक नतीजे मिले हैं. यह प्रथा राजनीतिक नेतृत्व की ओर से असहमति/दबाव को बेअसर करने वाले असुविधाजनक सैन्य महकमे को दरकिनार करती है.


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प्रधानमंत्री का संबोधन

प्रधानमंत्री संयुक्त कमांडर सम्मेलन को प्रतीकात्माक रूप से संबोधित करते हैं, अपना नज़रिया रखते हैं, रक्षा नीति और जरूरी मसलों को प्रस्तुत करने के साथ ही सेना का हौसला बढ़ाने के लिए उसकी प्रशंसा करते हैं. उनके भाषण के लिए मसाला सेना ही जुटाती है. मसौदा सीडीएस तैयार करते हैं. रक्षा सचिव इसे जांच लेते हैं तब अंतिम रूप देने के लिए पीएमओ को भेजा जाता है. 2014 से, प्रधानमंत्री मोदी इन भाषणों में अपना निजी रंग भरते रहे हैं. 2014 और 2015 के उनके इन भाषणों के काफी विस्तृत अंश सार्वजनिक किए गए. लेकिन इसके बाद से आधे-अधूरे अंश ही उपलब्ध कराए गए.

इस साल प्रधानमंत्री ने असामान्य किस्म का अस्पष्ट निर्देश दिया, जिसकी कोई सीधी व्याख्या नहीं है. मेरा ख्याल है, उनका या राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार का कार्यालय समय पर जरूरी निर्देश जारी करेगा. सरकारी उद्धरण कहता है- ‘प्रधानमंत्री ने राष्ट्रीय सुरक्षा व्यवस्था में देसी तत्व को बढ़ाने के महत्व पर ज़ोर दिया, न केवल साजोसामान और हथियारों के मामले में बल्कि सेनाओं में अपनाए जा रहे सिद्धांतों, प्रक्रियाओं और प्रथाओं में भी.’ उनके निर्देशों का पहला हिस्सा तो समझ में आता है लेकिन ‘सिद्धांतों, प्रक्रियाओं और प्रथाओं’ के देसीकरण की बात में अस्पष्टता है.

सैन्य सिद्धांत सदियों से निरंतर विकसित होता रहा है और तकनीक परिवर्तन और सुधार को बढ़ावा देती रही है. सभी आधुनिक सेनाएं इसमें पारंगत हैं और हमारी सेना समेत सभी सेनाएं खास जरूरतों और परिस्थितियों के अनुरूप इसे अपनाती रही हैं. भारत 1000 साल तक आक्रमणकारियों से इसलिए हारता रहा क्योंकि हम आधुनिक सैन्य रणनीति, चालों, और तकनीक को अपनाने में विफल रहे. प्रधानमंत्री शायद सेना को महाभारत और रामायण से सीख लेने की हिदायत दे रहे थे. इसे ‘दिप्रिंट’ की 50 शब्दों की संपादकीय में बेहद सटीक तरीके से प्रस्तुत किया गया है.

पीएमओ को यह भी स्पष्ट करना पड़ेगा कि प्रथाओं के देसीकरण से उनका क्या आशय है. वास्तव में, भारतीय सेना में खांटी अंग्रेज़ माने गए फील्ड मार्शल के.एम. करियप्पा ने कमांडर-इन-चीफ/सीओएएस के रूप में सेनाओं के ‘भारतीयकरण’ की मुहिम का नेतृत्व किया था. ऐसी कोई प्रथा नहीं है जिसका सेनाएं पालन करती हैं और भारत सरकार और राजनीतिक महकमा अपने औपचारिक कामकाज में पालन नहीं करता.

नव-राष्ट्रवादियों ने जब ‘जय हिंद’ और ‘भारत माता की जय’ नारों को सेना में चलाया, उससे भी पहले से ये सेना में अपना लिये गए थे. उपनिवेश काल से ही कई रेजीमेंटों में ‘राम राम’ कहके अभिवादन करने की प्रथा चल रही है. इसके बाद इस तरह के निर्देश विचारधारात्मक आग्रह को ही दर्शाते हैं. सेवा की प्रथा और सहायक, बैंड, मेस, सर्विस कैंटीन, सफाई कर्मचारी, धोबी के रूप में मानव शक्ति के अधिकृत इस्तेमाल में अंतर है. मानव शक्ति के दुरुपयोग को रोकने और समता को बढ़ावा देने के लिए इसमें सुधार की जरूरत है.

अब यही उम्मीद की जाती है कि ‘सिद्धांतों, प्रक्रियाओं और प्रथाओं’ के देसीकरण की बात पीएमओ में किसी अज्ञानी भाषण लेखक की कल्पना की उड़ान ही थी, प्रधानमंत्री के अपने विचार नहीं थे.

(ले.जन. एचएस पनाग, पीवीएसएम, एवीएसएम (रिटायर्ड) ने 40 वर्ष भारतीय सेना की सेवा की है. वो जीओसी-इन-सी नॉर्दर्न कमांड और सेंट्रल कमांड रहे हैं. रिटायर होने के बाद वो आर्म्ड फोर्सेज ट्रिब्यूनल के सदस्य रहे. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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