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Friday, 29 March, 2024
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सेना का मानवाधिकार विभाग स्वायत्त होना चाहिए, नहीं तो इसके प्रमुख की कोई उपयोगिता नहीं रह जाएगी

भारतीय सेना में मानवाधिकार प्रकोष्ठ की स्थापना मात्र से निगरानी और नियंत्रण व्यवस्था के संस्थागत पतन की स्थिति ठीक नहीं हो जाएगी, जो कि अनुशासनहीनता और मानवाधिकारों के घोर उल्लंघन का कारण है.

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31 दिसंबर 2020 को भारतीय सेना ने मेजर जनरल गौतम चौहान को अपने नवगठित अतिरिक्त महानिदेशालय (मानवाधिकार) का पहला प्रमुख नियुक्त किया. चौहान सेना के उपप्रमुख के अधीन अतिरिक्त महानिदेशक के रूप में कार्य करेंगे. मानवाधिकारों की रक्षा का सेना का शानदार रिकॉर्ड है और इस नियुक्ति के साथ उसने मानवाधिकार उल्लंघन के मामलों की जांच में पारदर्शिता लाने और अधिक स्पष्ट दृष्टिकोण अपनाने की प्रतिबद्धता को रेखांकित किया है.

भारतीय पुलिस सेवा (आईपीएस) के एसएसपी/एसपी रैंक के एक अधिकारी को भी अतिरिक्त महानिदेशालय में प्रतिनियुक्ति पर तैनात किया जाएगा.

इसी से संबंधित एक घटनाक्रम में 1 जनवरी 2021 को सेना ने अपनी 15वीं कोर के तहत कश्मीर घाटी में फीडबैक और शिकायत के लिए एक हेल्पलाइन नंबर9484101010 — स्थापित किया है. माना जाता है कि इस पर लोग मानवाधिकार उल्लंघन के मामलों की रिपोर्ट भी कर सकेंगे.

अतिरिक्त महानिदेशालय (मानवाधिकार) के अधिकार क्षेत्र, संगठन और कार्यों का विस्तृत विवरण अभी तक नहीं दिया गया है. यह एक वास्तविक चुनौती होगी क्योंकि मानवाधिकार उल्लंघन के मामलों की जांच और अनुशासनात्मक कार्रवाई की मौजूदा व्यवस्था में गंभीर खामियां हैं जिसके कारण इसकी विश्वसनीयता पर सवालिया निशान लगा हुआ है.


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मौजूदा व्यवस्था

उग्रवाद विरोधी अभियानों में मानवाधिकार उल्लंघनों को लेकर अधिक छूट लेने वाली कोई भी सेना जानते-समझते हुए ये जोखिम उठाती है और हमेशा ही उसे इसका नुकसान सहना पड़ता है. वियतनाम और पूर्वी पाकिस्तान में क्रमश: अमेरिका और पाकिस्तान के सेनाओं की हार इसके अच्छे उदाहरण हैं.

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भारतीय सेना सैद्धांतिक रूप से तथा पूर्वोत्तर, पंजाब एवं जम्मू कश्मीर में उग्रवादियों से लड़ने के अपने 65 वर्षों के अनुभव के आधार पर, मानवाधिकारों को कायम रखने और आतंकवादियों के खिलाफ जनानुकूल अभियान संचालित करने के लिए प्रतिबद्ध है. यहां तक कि आतंकवादियों के खिलाफ अभियानों का संचालन करते हुए भी वह देश के कानून और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्य परंपराओं का पालन करती है. सेना को पता है कि उग्रवाद के केंद्र में आम जनता होती है. उनको अलग-थलग करने में मानवाधिकार उल्लंघनों से बड़ा कोई कारक नहीं हो सकता, जो कि उनकी नज़र में सेना को आतंकवादियों के स्तर तक नीचे ला सकता है. तो फिर समस्या क्या है? मानवाधिकारों की रक्षा को लेकर थल सेना की शानदार प्रतिष्ठा पर सवालिया निशान क्यों है.

मानवाधिकार उल्लंघन के मामलों से निपटने के लिए सेना ने विस्तृत कायदे-कानून और दिशानिर्देश बना रखे हैं. लेकिन इनके कार्यान्वयन में अपेक्षाकृत नाकामी तथा निगरानी एवं नियंत्रण की व्यवस्था के चरमराने के परिणामस्वरूप अनुशासनहीनता और मानवाधिकारों के घोर उल्लंघन के मामले सामने आते हैं.

इसमें 2014 के बाद से हावी राष्ट्रवाद के विकृत भाव, सम्मान/प्रतिष्ठा की रक्षा या सफलताओं/पुरस्कारों के माध्यम से इनकी प्राप्ति और ‘सैनिकों के मनोबल’ की चिंता का योगदान रहा है.

यूनिट/रेजिमेंट/बटालियन/व्यक्तिगत प्रतिष्ठा की रक्षा की इच्छा मानवाधिकार उल्लंघन के मामलों के लीपापोती/स्वीकृति की वजह बनती है. इसके विपरीत, सफलताओं और सम्मानों के माध्यम से प्रतिष्ठा हासिल करने का उत्साह गलत कार्यों का कारण बनता है.

जहां तक जम्मू कश्मीर की बात है, तो धार्मिक कारक के चलते नवराष्ट्रवाद वहां आतंकवादियों और प्रदर्शनकारियों के बीच कोई अंतर नहीं करता है. ऐसा लगता है कि सेना में भी यह सोच दाखिल हो चुकी है. गलत कार्यों की प्रशंसा और संबंधित लोगों को पुरस्कृत किए जाने के मामले देखे गए हैं. इस पैटर्न के पीछे वजहें स्पष्ट हैं— इनकार, लीपापोती, विलंब, जांच में अस्पष्टता और सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम (अफस्पा) का सहारा. आंतरिक सुधारात्मक तंत्र को अक्षमता की हद तक ढीला छोड़ दिया गया है.

शोपियां में 18 जुलाई को 62 राष्ट्रीय राइफल्स (आरआर) के कैप्टन भूपिंदर सिंह द्वारा तीन निर्दोष मजदूरों की हत्या किए जाने के मामले से इसे समझा जा सकता है. यह सरासर अवैध कार्रवाई थी, जिसे भांपने में उसके उच्चाधिकारी विफल रहे— यकीन नहीं होता. ऐसी हरेक ऑपरेशन का उच्चतर मुख्यालयों से लेकर उत्तरी कमान मुख्यालय तक में विस्तृत विश्लेषण होता है. अपने व्यापक अनुभवों के मद्देनज़र कमान अधिकारी किसी गलत कार्रवाई का आसानी से आकलन कर सकते हैं. इस निष्कर्ष के भयावह निहितार्थ हैं— इसमें ऊपर तक के अधिकारियों की मिलीभगत या उनकी अक्षमता की भूमिका है. फिर भी केवल कैप्टन भूपेंद्र सिंह को, दो सिविलियनों के साथ, आरोपी बनाया गया है. मेरे विचार से, यहां 62 आरआर के कमान अधिकारी, 12 सेक्टर आरआर के कमांडर और विक्टर फोर्स के जनरल ऑफिसर कमांडर के खिलाफ अनुशासनात्मक/प्रशासनिक कार्रवाई का मामला बनता है.

यहां ये उल्लेखनीय है कि मानवाधिकार उल्लंघन के कथित मामलों में कभी-कभार ही सेना स्वत: जांच का एकतरफा आदेश देती है. अधिकतर मामले मीडिया द्वारा या पुलिस जांच के माध्यम से उजागर हुए हैं. यहां तक कि ऐसे मामलों में भी फोर्स मुख्यालय के आदेश पर या कोर मुख्यालय के स्तर पर अक्सर मात्र ‘आंतरिक’ जांच की जाती है.

और इसलिए, जांच की विश्वसनीयता संदिग्ध होती है. इसके अलावा, जज एडवोकेट जनरल की कोर शाखा की अक्षमता और ‘साथी अधिकारियों’ वाली अदालत की सहानुभूति के कारण कोर्ट मार्शल का संचालन दोषपूर्ण तरीके से किया जाता है. हाईप्रोफाइल मामलों में भी कोर्ट मार्शल के निर्णय सशस्त्र बल न्यायाधिकरण और सुप्रीम कोर्ट के सामने टिक नहीं पाते हैं. यहां तक कि दंगारी फर्जी मुठभेड़ मामले में आरोपियों के कोर्ट मार्शल के आदेश के संबंध में सुप्रीम कोर्ट तक को गलत जानकारी दी गई थी (सेना अधिनियम 1950 के तहत समयसीमा निकल चुकी थी) ताकि भविष्य में उन्हें बरी किया जा सके.


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अतिरिक्त महानिदेशक (मानवाधिकार) को स्वायत्त बनाया जाए

मानवाधिकार उल्लंघन के मामलों में जांच और अभियोजन की मौजूदा प्रणाली की जटिल खामियों के मद्देनज़र अतिरिक्त महानिदेशक (मानवाधिकार) के संगठन को स्वायत्तता प्राप्त होनी चाहिए, जिसमें कोर और फोर्स स्तर तक समान रूप से सशक्त प्रतिनिधि हों. यदि ऐसा नहीं होता है, तो नया पद मौजूदा प्रणाली का एक हिस्सा बनकर रह जाएगा, जिस पर तैनात अधिकारी की कोई वास्तविक उपयोगिता नहीं रह जाएगी.

मेजर जनरल गौतम चौहान के अधीन तैनात जांचकर्ताओं में कानूनी कसौटी पर खरा उतरने लायक जांच और अभियोजन प्रक्रिया संचालित करने की काबिलियत होनी चाहिए. मेजर जनरल चौहान के पास स्वतंत्र जांच का आदेश देने की शक्तियां होनी चाहिए. सशस्त्र बलों को जज एडवोकेट जनरल के विभाग में भी अपेक्षित फेरबदल करने की आवश्यकता है, जो इन दिनों सैन्य कानून के प्रवर्तन के बजाए आंतरिक कलह में अपनी विशेषज्ञता का अधिक उपयोग करता है.

और आखिर में, ये भी महत्वपूर्ण है कि सेना अपने नेतृत्व को लेकर आत्मनिरीक्षण और सुधार की प्रक्रिया अपनाए. कमांडरों में नियम-प्रावधानों के अनुपालन और कार्यान्वयन के लिए ज़रूरी नैतिक साहस की कमी दिखना चिंता की बात होगी. मानवाधिकारों के लिए अतिरिक्त महानिदेशालय के गठन की ज़रूरत अपने-आप में सेना में नेतृत्व के प्रचलित मानदंडों पर सवालिया निशान लगाती है.

(ले.जन. एचएस पनाग, पीवीएसएम, एवीएसएम (रिटा.) ने 40 वर्ष भारतीय सेना की सेवा की है. वो जीओसी-इन-सी नॉर्दर्न कमांड और सेंट्रल कमांड थे. रिटायर होने के बाद वो आर्म्ड फोर्सेज़ ट्रिब्युनल के सदस्य थे. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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2 टिप्पणी

  1. sena ke human right kha chle jate hai. Jb tum unko terrist ke aginst opertaion hota hai. Mc. Jb pulmawa aatack hua. Nagrota attck. Mar jate ho kiya us time tum kuto.

  2. Sainik ka manvadhikar nhi hota kya yahi log jab seniko ko pather marte the to seniko ka manavadhikar kahan tha
    Aise me un logo par karywahi karne wale se nikal ko ho aropi bana kar jel me daal dete ho ye kesa insaaf h
    Aise me senik logo se darr darr k duty karta h
    Khud ki sefti nhi kar sakta to desh ki kya raksha kre

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