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Friday, 29 March, 2024
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भारतीय सेना द्वारा 1971 में ढाका में दिखाए गए शानदार अभियान में छिपा है मौजूदा लद्दाख संकट के लिए सबक

ढाका में 30,000 सैनिक 3000 भारतीय सैनिकों का मुक़ाबला करने के लिए तैयार थे लेकिन भारी दबाव के आगे जनरल नियाज़ी को हथियार डालना पड़ा

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हम भारतीय सेना की सबसे बड़ी जीत का जश्न मनाने के लिए ‘विजय दिवस’ मनाते हैं. इसके साथ ही हमें पीछे मुड़कर यह भी देखना चाहिए कि उस जीत ने हमें क्या-क्या सबक सिखाया और उनकी आज कितनी प्रासंगिकता है.

पहली बात यह कि 1962 की भारी पराजय के बाद सेना का सुधार और आधुनिकीकरण किया गया और फिर 1965 के युद्ध से सीखे गए सबक को अमल में लाया गया. दूसरे, 1962 से 1971 तक जो रक्षा बजट जीडीपी के 3-4 प्रतिशत के बराबर बना रहा था, वह 1980 और 1990 के बीच उसके बराबर पहुंच गया और सेना में आखिरी बार बड़े सुधार तभी किए गए. तीसरे, राजनीतिक लक्ष्य स्पष्ट कर दिया गया था— पूर्वी पाकिस्तान को आज़ाद कराना है और बांग्लादेश बनाना है. चौथे, राजनीतिक महकमे और सेना के बीच बहुत बढ़िया संवाद था और सेना की सलाहों को महत्व दिया जाता था. अंत में, तीनों सेनाओं ने राजनीतिक लक्ष्य को हासिल करने के लिए सबसे शानदार सैन्य ऑपरेशनल लेवल कैंपेन किया. मैं यहां युद्ध में विजय के अंतिम कारक, सैन्य ऑपरेशनल लेवल के बारे में विशेष चर्चा करूंगा.

युद्ध का सैन्य ऑपरेशनल स्तर क्या है?

सैनिक सिद्धान्त के मुताबिक युद्ध के तीन स्तर होते हैं— रणनीति, सैन्य ऑपरेशनल और सामरिक कार्रवाई. रणनीति का संबंध राजनीतिक तथा सैन्य लक्ष्यों से होता है, और इसमें बड़े स्तर की राजनीतिक तथा सैनिक योजनाओं को ड्राइंग बोर्ड पर तैयार किया जाता है. सामरिक कार्रवाई में वास्तविक युद्ध वाला पहलू जुड़ा होता है, जो आम तौर पर सेना के डिवीजन या कोर के स्तर तक सीमित रहता है. सैन्य ऑपरेशनल लेवल में सैन्य लक्ष्यों को हासिल करने की योजना पर ज़ोर दिया जाता है और इसे युद्ध क्षेत्र में थिएटर कमान स्तर पर लागू किया जाता है. लेकिन बड़े युद्ध क्षेत्र में अभियान की योजना कोर स्तर पर भी बनाई जा सकती है. यह रणनीतिक और सामरिक स्तरों के बीच की अहम कड़ी होती है, जहां दुश्मन फौज के ‘सेंटर ऑफ ग्रेविटी’ यानी उसके गुरुत्वाकर्षण केंद्र या अहम कमजोरी वाले क्षेत्र को निशाना बनाया जाता है ताकि उसे मनोवैज्ञानिक स्तर पर पस्त किया जा सके और उसकी हार हो जाए.

युद्ध का ‘ऑपरेशनल लेवेल’, जिसे ‘ऑपरेशनल आर्ट’ भी कहा जाता है, का औपचारिक विकास जर्मनों और रूसियों ने प्रथम विश्वयुद्ध के बाद किया और दूसरे विश्वयुद्ध में इसका प्रयोग किया. पश्चिम की सेनाओं ने इसे 1980 के दशक में अपनाया और खाड़ी युद्ध (2 अगस्त 1990 से 28 फरवरी 1991 तक) में इसका भारी सफलता से इस्तेमाल किया. सैन्य सिद्धान्त के मामले में अकुशल सेनाएं सामरिक लड़ाई के प्रति ही आकर्षित रहती हैं इसलिए वे रणनीतिक लक्ष्यों को हासिल करने के लिए कई सामरिक लड़ाइयों को जोड़कर एकजुट अभियान में तब्दील नहीं कर पाते. भारतीय सेना इसी श्रेणी में है.


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भारतीय अनुभव

मैं अपनी बात का खंडन नहीं कर रहा हूं क्योंकि 1971 में लड़ाई में मुख्यतः दबाव बनाए रखने की जो योजना बनाई गई थी उसे लागू करने का जिम्मा कुशल कमांडरों और स्टाफ अफसरों को सौंप दिया गया था. इन कमांडरों और स्टाफ अफसरों ने शुरुआती सफलता के बाद ढाका की तरफ बढ़ने के मौके का तुरंत फायदा उठाया. अफसोस की बात है कि सैन्य सिद्धान्त पर हमने कभी ज़ोर नहीं दिया, 49 साल बाद भी हमारा ध्यान युद्ध की सामरिक स्तर की लड़ाई पर ही केन्द्रित है.

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जनता और मीडिया का ध्यान भी लड़ाइयों पर ही ज्यादा लगा रहता है. अलगाववाद विरोधी अभियानों में हमारा ध्यान इसी पर रहता है कि मुठभेड़ में कितने आतंकवादी मारे गए. इन अभियानों में कभी राजनीतिक/सैन्य लक्ष्यों या रणनीति पर या ऑपरेशनल लेवल को लेकर शायद ही चर्चा होती है. पूर्वी लद्दाख में हमारा ध्यान गलवान में 15/16 जून की रात हुई घटना पर और विभिन जगहों पर चीनी घुसपैठों पर ही लगा रहा. हम चीनी सेना पीएलए की ऑपरेशनल स्तर की शानदार योजना पर गौर नहीं कर पाए, जिसके तहत उसने तालमेल से किए गए कई सामरिक अभियानों के बूते अपना रणनीतिक लक्ष्य हासिल किया.

चीन ने हमारी राजनीतिक/सैन्य प्रतिष्ठा को धूमिल किया, 1959 वाली सीमारेखा के अपने दावे को मजबूत किया, हमारी प्रतिरक्षा रणनीति को नाकाम किया, सीमा पर अहम इलाकों में इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास की कोशिशों को रोक दिया, और हमारे बड़े इलाके को इस स्थिति में पहुंचा दिया कि तनाव बढ़ने पर वह फायदा उठा सके. सबसे बड़ी बात यह कि यह सब करते हुए उसने एक गोली तक नहीं चलाई. भारत और चीन के तरीके में फर्क का उदाहरण देना हो तो कहा जा सकता है कि हम सीमा की बाद पर खड़े उस आदमी की तरह हैं जो 500 मीटर दूर तक देख सकता है, जबकि वह आसमान में उड़ते उस चील की तरह है, जिसकी नज़र में कहीं ज्यादा व्यापक क्षेत्र है.

1971 की कहानी

ढाका पूर्वी पाकिस्तान का गुरुत्वाकर्षण केंद्र था. वह राजनीतिक राजधानी थी, जहां से संचार और संपर्क तमाम बड़े सूत्र निकलते थे. जाहीर है, वह हमारा अंतिम और प्रधान लक्ष्य होना चाहिए था, क्योंकि वह पूर्वी पाकिस्तान का भू-राजनीतिक और भू-रणनीतिक केंद्र था. लेकिन उसे कभी रणनीतिक लक्ष्य नहीं घोहित किया गया था. सैन्य मुख्यालय का ऑपरेशनल निर्देश ताकत का खिलाफ ताकत के इस्तेमाल की संस्कृति पर पूरी तरह निर्भर था और उसका ज़ोर खुलना तथा चटगांव बन्दरगाहों के अलावा ढाका को छोड़ दूसरे सभी शहरों पर कब्जा करने पर था.

डायरेक्टर ऑफ मिलिटरी ऑपरेशन्स ले.जनरल इंदर गिल ने वर्षों बाद खुलासा किया था कि ‘पूर्वी कमान को ऑपरेशन्स के जो निर्देश दिए गए थे उनमें कहा गया था कि मुख्य नदी के किनारे तक के क्षेत्रों पर कब्जा किया जाए. ढाका को लक्ष्य में शामिल नहीं किया गया था. इसकी वजह यह थी कि उस समय योजना बनाते हुए यह सोचा गया कि पूर्वी कमान में पूरे पूर्वी पाकिस्तान पर कब्जा करने की क्षमता नहीं होगी. लेकिन भारतीय सैन्य नेतृत्व को इस बात का महान श्रेय देना होगा कि जब पाकिस्तानी फौज लड़खड़ाने लगी तो उसने तुरंत खुद को तैयार किया और सेना पूरे आन-बान से ढाका की ओर बढ़ गई.’

सार यह कि तेजतर्रार फील्ड कमांडरों और स्टाफ अफसरों ने शुरुआती सामरिक सफलताओं के बाद दबाव बढ़ाने की योजना को शानदार जीत में बदल दिया. इन फील्ड कमांडरों और स्टाफ अफसरों में ये शामिल थे—चीफ ऑफ स्टाफ ईस्टर्न कमान मेजर जनरल जे.एफ.आर. जेकब, डायरेक्टर जनरल ऑफ मिलिटरी ओपरेशन्स मेजर जनरल इंदरजीत सिंह गिल, जीओसी 4कोर, ले.जनरल सगट सिंह, और 95 माउंटेन ब्रिगेड के कमांडर ब्रिगेडियर एच.एस. कलेर, जो 101 कम्युनिकेशन ज़ोन के तहत कार्रवाई कर रहे थे. बड़े शहरों में तैनात पाकिस्तानी सेना कुल मिलाकर एकजुट थी. ढाका को बचाने के लिए तैनात 30,000 की सेना का सामना मात्र 3,000 भारतीय सैनिकों से था, जो बाहरी इलाके में जमी हुई थी. लेकिन गुरुत्वाकर्षण केंद्र पर दबाव इतना भारी था कि जनरल आमिर अब्दुल्लाह खान नियाज़ी ने हथियार डालने का फैसला कर लिया. इसके बाद जो हुआ वह एक इतिहास बन गया.

विजय दिवस पर पारंपरिक रस्मों के अलावा सेना को युद्ध के सिद्धान्त को अपने माहौल के अनुरूप अपनाने का संकल्प भी लेना चाहिए. प्रोफेशनल मिलिटरी एडुकेशन के कार्यक्रम की भी समीक्षा करने की जरूरत है. लेकिन हमें बांग्लादेश युद्ध में ऑपरेशन के स्तर पर पूर्ण विजय के इतिहास का भी अध्ययन करना चाहिए और इसके बहाने यह समझने की कोशिश करनी चाहिए कि हम 1947-48 में अधूरी जीत क्यों हासिल कर पाए, 1962 में हार क्यों गए, 1965 में गतिरोध में क्यों फंस गए, करगिल युद्ध में यथास्थिति बनाए रखने में भारी संघर्ष क्यों करना पड़ा, और अब पूर्वी लद्दाख में हम अंधेरे में क्यों भटक रहे हैं.

(ले.जन. एचएस पनाग, पीवीएसएम, एवीएसएम (रिटा.) ने 40 वर्ष भारतीय सेना की सेवा की है. वो जीओसी-इन-सी नॉर्दर्न कमांड और सेंट्रल कमांड थे. रिटायर होने के बाद वो आर्म्ड फोर्सेज़ ट्रिब्युनल के सदस्य थे. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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