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Thursday, 25 April, 2024
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भारतीय सेना में अपने आप सुधार नहीं होंगे, संसदीय भूमिका का कमज़ोर होना चिंता का बड़ा कारण

विकसित देशों में डिफेंस कमिटी ही राष्ट्रीय सुरक्षा सुधारों को आगे बढ़ाने में प्रमुख भूमिका निभाती है लेकिन भारत में मोदी सरकार ने इस मामले में संसद की भूमिका को बिल्कुल कमजोर कर दिया है. 

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प्रतिरक्षा मामले की स्थायी संसदीय कमिटी की जो बैठक 16 दिसंबर 2020 को हुई वह कांग्रेस नेता राहुल गांधी और उनके दो पार्टी सहयोगियों के वॉकआउट के कारण विवादों में घिर गई. राहुल का आरोप था कि बैठक में उन्हें पूर्वी लद्दाख में सीमा पर हालात को लेकर ‘राष्ट्रीय सुरक्षा की गंभीर स्थिति’ के बारे में बोलने नहीं दिया गया, हालांकि उन्होंने इसके लिए पहले ही नोटिस दे दी थी.

लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला को भेजे पत्र में राहुल ने लिखा— ‘आपको पता ही होगा कि इन दिनों हम अपनी सीमाओं पर राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए गंभीर चुनौतियों का सामना कर रहे हैं और चीन ने हमारी जमीन पर जबरन कब्जा कर लिया है तथा वहां हमारे 20 सैनिकों को शहादत देनी पड़ी है. ऐसे समय में हमें कई महत्वपूर्ण मसलों पर चर्चा करने की जरूरत है. लेकिन मैं यह देखकर बहुत परेशान हुआ कि कमिटी के अध्यक्ष ने चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ और थलसेना, नौसेना और वायुसेना के आला अधिकारियों को, जिन्हें कई महत्वपूर्ण मसलों को देखना होता है, पूरा समय यह बताने में जाया कर दिया कि हमारे सेना के विभिन्न रैंकों के लिए किस रंग की वर्दी और तमगे वगैरह होने चाहिए.’

भाजपा और मीडिया के एक हलके ने इसके लिए राहुल गांधी का मखौल उड़ाया, कुछ आलोचकों ने उनके वॉकआउट को वाहवाही लूटने के लिए उनका ‘दिखावा’ तक कहा. राहुल को याद दिलाया गया कि 17वीं लोकसभा की इस कमिटी के गठन के बाद से इसकी पिछली सभी 11 बैठकों से वो किस तरह गायब रहे. इन 11 बैठकों की कार्यवाही के ब्योरों पर नज़र डालने से पता चलता है कि इन बैठकों में इसके बमुश्किल 50 फीसदी सदस्यों ने ही भाग लिया. ये ब्योरे 2020-21 के लिए रक्षा मंत्रालय की मांगों पर कमिटी की छठी रिपोर्ट में दर्ज किए गए हैं.

16 दिसंबर 2020 की बैठक के एजेंडा के दो विषयों में से एक विषय— ‘सेनाओं में रैंकों के ढांचे और उनकी वर्दियों, स्टारों, और बैजों के बारे में परिचय’— का चुनाव और राष्ट्रीय सुरक्षा के एक अहम मसले पर एक सदस्य (चाहे बैठकों में शामिल होने का उसका रिकॉर्ड जैस भी रहा हो) के सवालों पर लांछनयुक्त प्रतिक्रिया यही उजागर करती है की भारतीय संसद की एक सबसे महत्वपूर्ण कमिटी किस हाल में है.


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पेनेल का चार्टर

प्रतिरक्षा मामले की स्थायी संसदीय कमिटी रक्षा मंत्रालय के कामकाज पर नज़र रखती है, ताकि राष्ट्रीय सुरक्षा के मामले पर कार्यपालिका विधायिका के प्रति जवाबदेह रहे. कमिटी को ये काम सौंपे गए हैं—

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इतने व्यापक चार्टर के साथ स्थायी कमिटी राष्ट्रीय सुरक्षा के किसी भी मसले की जांच कर सकती है. रक्षा मंत्रालय के विभिन्न विभागों द्वारा ब्रीफिंग किए जाने के अलावा कमिटी इस क्षेत्र के विशेषज्ञों से सलाह ले सकती है.


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स्थायी कमिटी बने सुधारों की सूत्रधार

अधिकतर विकसित देशों में संसद/सीनेट की रक्षा कमिटी ही राष्ट्रीय सुरक्षा में सुधारों के सूत्रधार की भूमिका निभाती है. अमेरिकी सीनेट की ‘आर्म्ड सर्विसेज कमिटी’ को सीनेट की सबसे ताकतवर कमिटियों में गिना जाता है. भारतीय संसद की स्थायी कमिटी की तरह हासिल व्यापक अधिकार का उपयोग करते हुए यह सबसे व्यापक और क्रांतिकारी सुधारों को आगे बढ़ाती रही है, जिनमें 1947 का नेशनल सिक्यूरिटी एक्ट और 1986 का गोल्डवाटर-निकोल्स डिपार्टमेन्ट ऑफ डिफेंस एक्ट भी शामिल हैं. इतने वर्षों में इस कमिटी के कई सदस्य अमेरिकी फौज को सेवा दे चुके हैं.

सीनेटर जॉन मकेन, जो एक ‘वार हीरो’ रह चुके हैं और 2008 में राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार थे, 2015 से 2018 तक इस कमिटी के अध्यक्ष थे. पेंटागन के पहरुए के रूप में उन्होंने अमिट छाप छोड़ी.

भारत में कार्यपालिका ने राष्ट्रीय सुरक्षा के मामले में संसद की भूमिका को पूरी तरह कमजोर बना दिया है. प्रतिरक्षा तंत्र के ऊंचे महकमे में एक सबसे महत्वपूर्ण परिवर्तन- चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस) और डिपार्टमेन्ट ऑफ मिलिटरी अफेयर्स (डीएमए) का गठन बिना किसी संसदीय बहस या निगरानी के सीधे कार्यपालिका के आदेश पर कर दिया गया.

प्रक्रियाओं के चलते और सांसदों के ज्ञान या उनकी दिलचस्पी की कमी के कारण राष्ट्रीय सुरक्षा के मामलों पर शायद ही कोई चर्चा होती है. पूर्वी लद्दाख में सीमा पर हालात, जहां हमारी जमीन और हमारा राष्ट्रीय सम्मान दांव पर लगा है, के बारे में विचार-विमर्श रक्षा मंत्री के एक बयान में सिमटकर रह गया, जिस पर कोई बहस नहीं हुई.

स्थायी कमिटी के सदस्य लोकसभा अध्यक्ष द्वारा मनमाने तरीके से नामजद किए जाते हैं, जिनमें से अधिकतर को इस क्षेत्र की शायद ही कोई जानकारी होती है. प्रायः यह व्यवस्था केवल पच्चीकारी जैसी होती है. एक दुर्लभ दौर (1 सितंबर 2014 से 31 अगस्त 2018) तब आया था जब मेजर जनरल बी.सी. खंडूरी इस कमिटी के अध्यक्ष थे. इसकी रिपोर्टों में सुधारों की आहट थी, सिकुड़ते रक्षा बजट और सेना के आधुनिकीकरण की बदहाली को उजागर किया गया था. पूरी संभावना है कि इन रिपोर्टों के कारण उन्हें कमिटी से हटा दिया गया.

वर्तमान कमिटी में सेना की पृष्ठभूमि वाले केवल एक सदस्य हैं- ले. जनरल डी.पी. वत्स, जो सेना में डॉक्टर थे. विडंबना यह है कि उन्होंने बैठक के एजेंडा के इस विषय- ‘सेनाओं में रैंकों के ढांचे और उनकी वर्दियों, स्टारों और बैजों के बारे में परिचय’- के पक्ष में विचित्र-सा तर्क पेश किया.

उनका कहना था कि इसका मकसद सदस्यों को रैंकों और सैनिक सम्मानों के बारे में शिक्षित करना था. लेकिन यह तो किसी पर्चे के जरिए भी किया जा सकता था, इसके लिए किसी मेजर जनरल को प्रेजेंटेशन देने की जरूरत नहीं थी और ऐसी बैठक में सीडीएस बिपिन रावत, रक्षा सचिव अजय कुमार और वाइस चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ ले. जनरल सतिंदर कुमार सैनी को मौजूद रहने की तो कतई जरूरत नहीं थी.


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उपाय क्या है

सेनाएं स्वभावतः यथास्थितिवादी होती हैं, वे खुद को शायद ही सुधारने की कोशिश करती हैं. किसी भी देश की संसद उसकी राष्ट्रीय सुरक्षा की पहरेदार होती है लेकिन भारतीय संसद यह कर्तव्य निभाने में विफल रही है. राष्ट्रीय सुरक्षा इतना गंभीर मसला है कि उसे केवल कार्यपालिका के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता. निर्वाचित प्रतिनिधि ज्यादा बड़ी भूमिका निभा सकें, इसके लिए जरूरी हो तो संवैधानिक/संसदीय प्रक्रियाओं में अवश्य संशोधन किया जाए.

प्रतिरक्षा की संसदीय स्थायी कमिटी के चार्टर और कामकाज की जरूर समीक्षा की जानी चाहिए और सर्वश्रेष्ठ सांसदों को इसमें शामिल किया जाना चाहिए. राष्ट्रीय हित का तकाजा यही है कि यह कमिटी भारत में सुरक्षा संबंधी सुधारों का मुख्य सूत्रधार बने और वह कार्यपालिका को अपने प्रति जवाबदेह बनाए.

(ले.जन. एचएस पनाग, पीवीएसएम, एवीएसएम (रिटा.) ने 40 वर्ष भारतीय सेना की सेवा की है. वो जीओसी-इन-सी नॉर्दर्न कमांड और सेंट्रल कमांड थे. रिटायर होने के बाद वो आर्म्ड फोर्सेज़ ट्रिब्युनल के सदस्य थे. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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