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Saturday, 4 May, 2024
होममत-विमतभाजपा की असफल राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति ही है जिसके कारण चीन-पाकिस्तान शांति वार्ता के लिए तैयार हैं

भाजपा की असफल राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति ही है जिसके कारण चीन-पाकिस्तान शांति वार्ता के लिए तैयार हैं

भारत, चीन, पाकिस्तान, तीनों समझते हैं कि नक्शे दोबारा नहीं बनाए जा सकते और ताकत के सीधे इस्तेमाल की या छद्म युद्ध की अपनी सीमाएं हैं और उनके फायदे आगे घटते ही जाते हैं.

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दो उग्र पड़ोसियों- चीन और पाकिस्तान के मामले में भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति और विदेश नीति ने महज एक पखवाड़े के अंदर बिल्कुल उलटी दिशा पकड़ ली है. 10 फरवरी को चीनी सीमा पर सैनिकों की वापसी के साथ पूर्वी लद्दाख में 11 महीने से जारी तनातनी कम हुई है, तो 25 फरवरी को भारत और पाकिस्तान की सेनाओं के संयुक्त बयान ने जम्मू-कश्मीर और पश्चिमी लद्दाख क्षेत्र में नियंत्रण रेखा (एलओसी) पर 2003 से चले आ रहे ‘अनौपचारिक’ युद्धविराम में नयी जान डाल दी है. ये दोनों मानक फैसले उस प्रक्रिया के पहले कदम हैं जिनसे भारतीय कूटनीति की परीक्षा तो होगी ही, रणनीतिक तथा सैन्य मामलों की उसकी समझ का भी इम्तहान होगा.

पाकिस्तान और चीन शांति बहाली की प्रक्रिया में शामिल होने के लिए किस तरह मजबूर हुए हैं, इस बारे में तो खूब लिखा जा रहा है मगर भारत ने किस तरह पलटी मारी है इस पर शायद ही कुछ लिखा गया है. आखिर क्या वजहें हैं कि नरेंद्र मोदी सरकार ने राष्ट्रीय सुरक्षा के मामले में विचारधारा प्रेरित अपना रवैया बदल दिया? और अब आगे वह किस रास्ते पर चलने वाली है?


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विफल राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति

भाजपा सरकार ने 2014 में जब बागडोर संभाली थी तब उसे नियंत्रण रेखा (एलओसी) और वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर अपेक्षाकृत शांत स्थिति मिली थी. भारतीय सेना के सतत प्रयासों, 12 साल से निर्वाचित सरकारों और पाकिस्तान के साथ अपेक्षाकृत शांति के चलते अलगाववाद काबू में था और आतंकवादियों की संख्या घटकर दहाई अंकों में रह गई थी. युद्धविराम के उल्लंघन होते थे, सैनिकों के सिर काटे जाने या अंग भंग किए जाने के कुछ वारदात हुए, लेकिन एलओसी पर हिंसा काबू में रही.

2008 में मुंबई में आतंकवादी हमले के बावजूद भारत सरकार ने खुद को काबू में रखा था. एलएसी पर 2013 में देप्सांग में हुई घटना को छोड़कर कुल मिलाकर शांति रही और 1993 के बाद से हुए कई समझौतों का लगभग पालन किया जाता रहा.

आरएसएस के ‘अखंड भारत’ के लक्ष्य को भाजपा सरकार की नीति में भले न शामिल किया गया हो, भारत की भौगोलिक अखंडता और पाकिस्तान तथा चीन द्वारा कब्जाए गए क्षेत्रों को वापस हासिल करना तो भाजपा की मूल विचारधारा का हिस्सा है ही. बाहरी और भीतरी दुश्मनों के खिलाफ आक्रामक नीति भाजपा की चुनावी रणनीति का एक जरूरी मुद्दा रहा है, जिसने उसे भारी फायदा पहुंचाया. भाजपा सरकार ने मजबूत स्थिति में होने का दावा करते हुए शांति की शुरुआती कोशिशें की, प्रधानमंत्री मोदी दिसंबर 2015 में अचानक लाहौर भी चले गए लेकिन पाकिस्तानी फौज और आतंकवादियों ने इन कोशिशों को जब बेमानी कर दिया तो भारत सरकार ने पाकिस्तान के लिए दरवाजा बंद कर दिया. ‘आतंकवाद और बातचीत’, दोनों एक साथ नहीं चल सकते, यही टेक बन गई.

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यहां तक कि घर में भी, जम्मू-कश्मीर में भाजपा सरकार ने ‘पीडीपी’ के साथ गठजोड़ करके सरकार बनाने के बावजूद, कश्मीरियों का दिल-दिमाग जीतने की जगह बिना किसी स्पष्ट राजनीतिक रणनीति के सख्त नीति अपना ली. जम्मू-कश्मीर में अलगाववाद ने फिर सिर उठा लिया और मोदी सरकार ने उरी (2016) और पुलवामा (2019) में भारी आतंकवादी हमलों के जवाब में सीमा पार सर्जिकल स्ट्राइक किए और अंतरराष्ट्रीय सीमा का उल्लंघन करके हवाई हमले किए. इन हमलों ने पाकिस्तान को डराना तो दूर, सैन्य शक्ति में स्पष्ट बढ़त न होने के बावजूद ताकत के इस्तेमाल की सीमाओं को उजागर कर दिया.

चीन के मामले में भाजपा ने आर्थिक सहयोग के जरिए शांति को आगे बढ़ाने की नीति अपनाई. ज्यादा समय मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच निजी समीकरण को मजबूत बनाने पर खर्च किया गया. इस बीच दोनों के बीच दो बार अनौपचारिक शिखर वार्ताएं हुईं. इस सबके साथ-साथ मोदी सरकार ने सीमा पर इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास पर ज़ोर दिया और अक्साई चीन को वापस हासिल करने की अपनी रणनीतिक महत्वाकांक्षा को खुल कर जाहिर करने से परहेज नहीं किया. भूटान में चीनी अतिक्रमणों का आक्रामक जवाब दिया गया, जिसका नतीजा यह हुआ कि डोकलम में दोनों देश युद्ध के कगार पर पहुंच गए. चीन की कथित और प्रचारित सेना वापसी से गलत संकेत ग्रहण किए गए. एलएसी पर रुख यह अपनाया गया कि ‘चीन से आंख मिलाकर उसे नीचा दिखाओ!’. इसके चलते पूर्वी लद्दाख में संकट बढ़ गया और हमारी दोषपूर्ण राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति की पोल खुल गई.


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सुरक्षा रणनीति की बुनियादों का उल्लंघन

भारत की अपनी कोई औपचारिक राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति नहीं है. राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए), जिन्हें सभी रणनीतिक और सामरिक कार्रवाई के पीछे का दिमाग माना जाता है, 2018 से प्रतिरक्षा योजना कमिटी के प्रमुख हैं लेकिन अभी तक औपचारिक राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति नहीं तैयार कर पाए हैं. रणनीति की कोई समीक्षा नहीं की गई है और सेनाओं के सुधार तथा आधुनिकीकरण के लिए कुछ खास नहीं किया गया है.

अर्थव्यवस्था में गिरावट ने समस्या को और गंभीर बना दिया है. इसलिए, पर्याप्त सैन्य क्षमता के बिना चीन (तुलनात्मक रूप से ज्यादा ताकतवर) और पाकिस्तान (कमजोर ताकत मगर जिच पैदा कर देने वाली सैन्य क्षमता वाला) के खिलाफ क्रियात्मक एवं रणनीति विफल होनी ही थी.

निम्नलिखित बुनियादी बातों का उल्लंघन किया गया:

+ व्यापक राष्ट्रीय शक्ति, खासकर आर्थिक तथा सैनिक ताकत राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति को आधार प्रदान करती है. व्यापक राष्ट्रीय शक्ति के मामले में चीन और भारत के बीच जो चौड़ी खाई है उसकी मांग थी कि जब तक हम उसका मुकाबला करने के बराबर न हो जाएं तब तक कूटनीति का सहारा लिया जाए. भारत के मामले में पाकिस्तान के सामने भी ऐसी ही मजबूरी है.

+ परमाणु शक्ति से लैस देश कोई निर्णायक युद्ध नहीं लड़ सकते और नक्शों को तो नहीं ही बदल सकते हैं. अकेले यही बात चीन से हमारी सुरक्षा और हमसे पाकिस्तान की सुरक्षा सुनिश्चित करती है, बशर्ते सुरक्षा में कोई चूक न हो और पहले कार्रवाई करने का बहाना मिल जाए. इसलिए, गृह मंत्री अमित शाह और भाजपा के दूसरे नेता चाहे जितना गरजे हों कि अपनी खोयी जमीन वापस लेकर रहेंगे, वह सब खोखली धमकी के सिवा कुछ नहीं था.

+ परमाणु हथियार वाली चौखट पर पहुंचने से पहले दबाव डालने की कार्रवाई के लिए या सीमित युद्ध के लिए सैन्य क्षमता में स्पष्ट तकनीकी बढ़त चाहिए. चीन को हमसे यह बढ़त हासिल है लेकिन पाकिस्तान से हमें यह बढ़त नहीं हासिल है. निर्णायक बढ़त के बावजूद, झटका खाने की आशंका टकराव को एक सीमा से आगे बढ़ाने से रोकती है, खासकर तब जबकि कमजोर देश के पास जिच पैदा करने की पर्याप्त सैन्य शक्ति हो. चीन को यह सबक पूर्वी लद्दाख में मिला और भारत को सर्जिकल स्ट्राइकों और बालाकोट हवाई हमले में मिला.

+ वर्तमान अंतरराष्ट्रीय माहौल में, पाकिस्तान के सरकार प्रायोजित छद्म युद्ध का समय पूरा हो चुका है. वह फाइनांशियल ऐक्सन टास्क फोर्स (एफएटीएफ) के प्रतिबंधों और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोश (आईएमएफ) की सख्त शर्तों को लेकर परेशान है. इसलिए भारत के लिए बेहतर यही होगा कि वह पाकिस्तान से बदला लेने, जिससे अब लाभ घटते ही जाएंगे, की जगह कश्मीर में अपना हिसाब-किताब ठीक करे.

+ जम्मू-कश्मीर और लद्दाख का भूगोल, चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (सीपीईसी) का पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर/गिलगिट-बाल्टिस्तान से गुजरना और चीन-पाकिस्तान गठबंधन, ये सब मिलकर सीमा विवाद को त्रिपक्षीय बना देते हैं जिससे भारत के लिए दो सीमाओं पर टकराव की स्थिति बनी है. यह जीत दिलाने वाली स्थिति नहीं होती. इसलिए बेहतर है कि जो कमजोर प्रतिद्वंदी है, जैसे पाकिस्तान, उससे शांति बनाकर रखी जाए. भारत के मामले में चीन भी ऐसी ही स्थिति से मुकाबिल है, क्योंकि उसका मुख्य ध्यान ताइवान और साउथ चाइना सी पर है.

+ अपनी सैन्य क्षमता का व्यावहारिक आकलन किए बिना आक्रामक राष्ट्रीय सुरक्षा नीति चलाना मोदी सरकार की सबसे बड़ी विफलता है. राजनीतिक नारों से जोश में आकर और प्रधानमंत्री मोदी के व्यक्तित्व के दबाव में आकर सेना का आला तबका सही सलाह देने में नाकाम रहा. सीधी-सी बात है कि सरकार के आक्रामक लक्ष्यों को हासिल करने की सैन्य क्षमता भारत में नहीं है.

+ घरेलू सियासत और राष्ट्रवादी भावनाओं को उभारने के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा नीति का उग्र इस्तेमाल प्रतिद्वंदियों के साथ आपके संबंधों को बिगाड़ देता है और टकराव की स्थिति पैदा कर देता है. यह राष्ट्रीय सुरक्षा नीति को भी उग्र राष्ट्रवाद से जोड़ देता है और निर्णय प्रक्रिया में गंभीर अड़चनें पैदा कर देता है.


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आगे का रास्ता

इसमें कोई संदेह नहीं रह जाना चाहिए कि पिछले सात साल से जो दोषपूर्ण राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति चलाई जा रही है उसमें सुधार जरूरी हैं. लगता है कि मोदी सरकार ने ऐसा ही करने का विवेकपूर्ण फैसला कर लिया है. इसकी पुष्टि सबसे ज्यादा इस बात से ही हो जाती है कि पाकिस्तान/चीन विरोधी सियासी लफ्फाजियां, हां में हां मिलाने वाले मीडिया का ढोल पीटना और सोशल मीडिया पर सियासी किस्म की मुहिम बंद हो गई हैं. सुकून देने वाली बात यह है कि प्रधानमंत्री मोदी की छवि विचारधारा प्रेरित उग्र राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति लागू करने वाले ताकतवर नेता से स्थायी शांति की तलाश करने वाले राजनेता में बदल गई है. भारत को ऐसे ही अवतार की जरूरत है ताकि वह अपनी व्यापक राष्ट्रीय शक्ति को और बढ़ाकर एक महाशक्ति के रूप में उभर सके.

दोनों प्रतिद्वंदियों के मामले में भरोसे की कमी का शोर मचाते रहने का कोई मतलब नहीं है. उनके मीडिया पर नज़र डालने से जाहिर हो जाएगा कि वे भी हम पर भरोसा नहीं करते. एलओसी और एलएसी पर अमन बहाली का पहला कदम उठा लिया गया है. अब आगे इसकी गति को बनाए रखने की जरूरत है, बावजूद इसके कि बेकाबू हरकतें (खासकर आतंकवादियों की) खेल खराब कर सकती हैं. इसके बाद दीर्घकालिक समाधान के लिए निरंतर कूटनीतिक प्रयास जारी रखे जा सकते हैं.

भारत, चीन, पाकिस्तान, तीनों समझते हैं कि नक्शे दोबारा नहीं बनाए जा सकते और ताकत के सीधे इस्तेमाल की या छद्म युद्ध की अपनी सीमाएं हैं और उनके फायदे आगे घटते ही जाते हैं. मेरे विचार में, तीनों बातचीत करके वर्तमान सीमारेखाओं को स्थायी सरहदों में बदलने के लिए तैयार हैं.

पाकिस्तान के मामले में हमने मुशर्रफ-वाजपेयी/मनमोहन के चार सूत्री फॉर्मूले को खारिज कर दिया, हालांकि वह मौजूद है और उसे संप्रभुता संबंधी मसलों के लिहाज से संशोधित किया जा सकता है. चीन ने अपनी 1959 वाली दावा रेखा को बेशक कुछ बफर ज़ोन के साथ सुरक्षित कर लिया है लेकिन उसे अंतिम समाधान और दूसरे सेक्टरों पर अपने दावों को छोड़ने के लिए राजी किया जा सकता है.

प्रधानमंत्री मोदी को जनादेश हासिल है, वे लोकप्रिय हैं और राजनीतिक कौशल रखते हैं, तो वे पाकिस्तान और चीन के साथ स्थायी शांति भी कायम कर सकते हैं. भारत को अपनी अर्थव्यवस्था को मजबूत करने और अपनी सेना को आधुनिक बनाकर एक महाशक्ति बनने के लिए शांति और समय की दरकार है. मोदी यह विरासत सौंप सकते हैं और यही तो एक नेता को महान बनाता है.

(ले.जन. एचएस पनाग, पीवीएसएम, एवीएसएम (रिटायर्ड) ने 40 वर्ष भारतीय सेना की सेवा की है. वो जीओसी-इन-सी नॉर्दर्न कमांड और सेंट्रल कमांड रहे हैं. रिटायर होने के बाद वो आर्म्ड फोर्सेज ट्रिब्यूनल के सदस्य रहे. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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