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Thursday, 25 April, 2024
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वे चार वजहें, जिसके कारण हार गई कांग्रेस

कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र के माध्यम से सही चाल चली थी, लेकिन वह मसले चुनावी प्रचार में पीछे छूट गए. रोजगार की योजना, किसानों को राहत, ओबीसी के लिए कार्यक्रम आदि के बारे में कांग्रेस मतदाताओं को बता ही नहीं पाई.

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लोकसभा चुनाव 2019 के परिणाम आ चुके हैं. कांग्रेस लगातार दूसरी बार इतनी सीटें नहीं जुटा सका कि उसे लोकसभा में विपक्ष के नेता का दर्जा हासिल हो सके. राहुल गांधी (अमेठी से), ज्योतिरादित्य सिंधिया, मल्लिकार्जुन खडगे जैसे दिग्गज चुनाव हार चुके हैं.

इस बार की सीटों की संख्या देखें तो ऐसा लगता है कि कांग्रेस 2014 के 40 के मुकाबले 52 सीटें जीतकर थोड़ा मुनाफे में है. लेकिन अगर केरल में मतदाताओं ने सभी सीटें कांग्रेस की झोली में नहीं डाल दी होतीं और तमिलनाडु में डीएमके से समझौता नहीं होता, तो संभवतः कांग्रेस की हार 2014 से भी बुरी होती. कांग्रेस को गुजरात, राजस्थान, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश में एक भी सीट नहीं मिली. वहीं कर्नाटक, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, असम में बुरी तरह से हारी, जहां उसका भाजपा से सीधा मुकाबला था. आखिर कांग्रेस इस बार कहां चूक गई?

‘चौकीदार चोर है’ से कांग्रेस को क्या मिला?

कांग्रेस पूरे लोकसभा चुनाव में चौकीदार चोर है और राफेल घोटाले के नारे के साथ चली. पार्टी अध्यक्ष राहुल ने हर जनसभा में लोगों से चौकीदार चोर है, के नारे लगवाए. उच्चतम न्यायालय का हवाला देकर कह दिया कि कोर्ट ने भी मान लिया कि  ‘चौकीदार चोर है’, तब कोर्ट का हवाला देने के लिए उन्हें माफी मांगनी पड़ी. इससे जनता में संदेह गया कि राहुल गांधी ने ‘चौकीदार चोर है’ कहने पर ही माफी मांग ली है.


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कांग्रेस के रणनीतिकारों को ये नारा संभवतः उसी समय छोड़ देना चाहिए था, जब नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) की रिपोर्ट में यह कहा गया कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) का राफेल सौदा यूपीए गठबंधन सरकार के समय हो रहे सौदे की तुलना में सस्ता है. उस समय भी यह नारा छोड़ा जा सकता था, जब नरेंद्र मोदी समेत उनके मंत्रिमंडल सहयोगियों और समर्थकों ने अपने ट्विटर हैंडल में नाम के सामने चौकीदार जोड़ लिया. यह माना जा सकता है कि नरेंद्र मोदी ने अपने तंत्र से यह पता लगाया हो कि जनता अभी उनकी ईमानदारी पर संदेह करने को तैयार नहीं है और वे आक्रामक रूप से सामने आ गए.

किसान संकट का मसला छोड़ा

कांग्रेस को मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान में विधानसभा चुनाव में सफलता मिली, जहां अच्छे खासे बहुमत से भाजपा की सरकारें थीं. यह तीनों राज्य ऐसे हैं, जहां कृषि संकट खुलकर सामने था. मध्य प्रदेश के मंदसौर में किसान फसलों के उचित दाम और कर्जमाफी की मांग को लेकर प्रदर्शन कर रहे थे और पुलिस फायरिंग में 5 किसान मारे गए. कांग्रेस ने इसे विधानसभा चुनाव में मुद्दा बनाया, लेकिन लोकसभा चुनाव में इसे जोरशोर से नहीं उठाया. मंदसौर महाराष्ट्र से सटा है और मारे गए किसान मध्यवर्ती या मझौली जाति के पाटीदार थे, लेकिन महाराष्ट्र में भी इसे मुद्दा नहीं बनाया गया. महाराष्ट्र के नासिक इलाके के किसानों की आत्महत्या भी मुद्दा नहीं बन सकी. इसके अलावा उत्तर प्रदेश, बिहार समेत सभी राज्यों में आवारा पशुओं की समस्या चरम पर थी और लोग इससे तबाह थे.

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वहीं मोदी सरकार ने चुनाव के पहले गरीब किसानों के खाते में दो किस्तों में 4,000 रुपये डाल दिए. गेहूं कटाई का सीज़न होने के कारण आवारा पशुओं की समस्या समस्या भी नहीं थी. इसके अलावा उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में प्रशासन को इस कदर चुस्त दुरुस्त रखा गया था कि अगर कहीं किसी वजह से किसान की फसल जल जाती थी तो 10 दिन के भीतर उसके खाते में मुआवजा आ जाता था. राष्ट्रवाद, सैन्य पराक्रम और फौरी राहत से किसान अपने दुख दर्द भूल गए. जबकि तमाम रिपोर्ट्स में लगातार आ रहा था कि गांवों में एफएमसीजी की खपत कम हुई है, वहां लोगों के पास पैसे नहीं पहुंच रहे हैं. रूरल डिस्ट्रेस को लेकर न सिर्फ चुनाव के पहले खबरें आती रहती थीं, बल्कि चुनाव के बाद मोदी-2 सरकार को भी अर्थशास्त्री सलाह दे रहे हैं कि अर्थव्यवस्था को बचाने के लिए रूरल डिस्ट्रेस दूर करना ज़रूरी है.

पिछड़े वर्ग की समस्याएं नहीं बन सकीं चुनावी मुद्दा

कांग्रेस ने पिछड़े वर्ग यानी ओबीसी की नौकरियों से जुड़े मसलों को शुरुआत में उठाया. साथ ही अपने घोषणापत्र में भी ढेरों वादे किए. विश्वविद्यालय में रोस्टर से लेकर सरकारी नौकरियां बढ़ाने के ढेरों वादे किए गए. प्रमोशन में आरक्षण का भी वादा किया गया. कांग्रेस ने मध्य प्रदेश में ओबीसी को 27 प्रतिशत आरक्षण देने की कवायद भी की, लेकिन उसे भी आधे अधूरे मन से करके कमलनाथ और भूपेश बघेल सरकार को फंसा दिया. इन मसलों पर कभी कांग्रेस आक्रामक नहीं दिखी. आरक्षण विरोधी रहे मणिशंकर अय्यर और जनार्दन द्विवेदी जैसे नेताओं ने पार्टी से कन्नी काट ली और वे अब खुलकर कांग्रेस पर हमले कर रहे हैं. कांग्रेस इन मसलों को जनता तक पहुंचा ही नहीं सकी. संभवतः अब वे फिर इस कवायद में हैं कि कांग्रेस दलितों पिछड़ों के मसलों से दूर हो जाए और अपनी दिशा में आ जाए. केंद्र सरकार की रोजगार देने में विफलता भी मसला नहीं बन पाई, जबकि सरकार की रिपोर्ट में ही यह सामने आया कि बेरोजगारी 4 दशक में सबसे ज्यादा है.

भाजपा के मसलों के पीछे भागी कांग्रेस

कांग्रेस के रणनीतिकारों ने राहुल और प्रियंका गांधी दोनों को ही मंदिर-मंदिर घुमाया. संभवतः पार्टी रणनीतिकार दिखाना चाहते थे कि राहुल भी हिंदू हैं. भाजपा ने इसका इस्तेमाल कांग्रेस पर हमला करने में किया और ह्वाट्सऐप और फेसबुक जैसे माध्यमों में आक्रामक अभियान चल गया कि जो मुस्लिमपरस्त थे, वह भी मोदी के डर से मंदिरों में घूम रहे हैं. मुख्य मुद्दों से भटकी कांग्रेस यहां भी बुरी तरह फ्लॉप हुई है. अब जनादेश यह कह रहा है कि जनता ने ब्राह्मणवाद और मंदिर के असली समर्थक को चुन लिया है और राहुल गांधी को नकली ब्राह्मणवादी मान लिया!


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इन चार वजहों के अलावा न्याय योजना का प्रचार न हो पाना, जमीनी कार्यकर्ताओं की कमी, समाज के हर तबके को पार्टी में प्रतिनिधित्व न देना, वंशानुगत नेताओं के दल होने जैसे विपक्षी हमलों ने भी अहम भूमिका निभाई है. कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र के माध्यम से सही चाल चली थी, लेकिन वह मसले चुनावी प्रचार में पीछे छूट गए.

(लेखिका राजनीतिक विश्लेषक हैं.) 

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