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Thursday, 25 April, 2024
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राहुल गांधी नरेंद्र मोदी को कैसे हरा सकते थे

मोदी अजेय नहीं हैं. चालक राहुल गांधी उन्हें हरा सकते थे.

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राजनीति में कोई निश्चितता नहीं होती है. नरेंद्र मोदी और अमित शाह 2015 में दिल्ली और बिहार में हार गए थे. 2018 में सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद कर्नाटक में भी सत्ता पर काबिज़ नहीं हो सके थे. वे शर्मनाक तरीके से कई उप-चुनाव हार गए. जिन्हें उन्हें आसानी से जीतना चाहिए था. यही नहीं लोकसभा चुनावों से कुछ महीने पहले उन्होंने हिंदी भाषी क्षेत्र के कुछ प्रमुख राज्यों को खो दिया.

वे 2019 का लोकसभा चुनाव भी हार सकते थे, यदि उनके सामने केवल एक चालाक प्रतिद्वंद्वी होता तो. यह स्पष्ट है कि राहुल गांधी पर बोझ था. क्योंकि मोदी ने चुनाव को निर्दयतापूर्वक राष्ट्रपतीय चुनाव कर दिया(यानि पूरे चुनाव के केंद्र में मोदी रहे). यदि लोग राहुल गांधी को प्रधानमंत्री के रूप में चाहते थे. तो यह यूपीए-3 की संभावना के साथ क्षेत्रीय दलों के भाग्य को भी बदल सकता था.

राहुल गांधी की चार प्रमुख गलतियां जो उन्होंने की-

पहला- सकारात्मक अभियान

राहुल गांधी के अभियान की बड़ी तस्वीर नकारात्मक थी. हमें सबसे ज्यादा सुनाई देने वाला नारा ‘चौकीदार चोर है‘ था. 2013-14 में विपक्षी नेता के रूप में मोदी के अभियान से इसकी तुलना करें तो वह अच्छे दिन का वादा करने, चीजों को आसान बनाने, समस्याओं को सुलझाने, लोगों को बड़े सपने दिखाने के बारे में था.

मतदाता विपक्षी नेताओं से जानना चाहते हैं कि वे आएंगे तो क्या करेंगे, इसे कैसे करेंगे और वे लोगों की समस्याओं को हल करने में कैसे बेहतर होंगे.

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मोदी को घेरने के लिए पर्याप्त समस्याएं थीं: नोटबंदी की विफलता, जीएसटी के बाद आर्थिक विकास में मंदी, कम रिटर्न के कारण किसानों की पीड़ा और बढ़ती बेरोजगारी. लेकिन राहुल गांधी इन समस्याओं का जवाब देने में विफल रहे. सबसे अच्छे रूप में उन्होंने समस्याओं पर प्रकाश डाला और यहां तक ​​कि यह इतने खराब तरीके से किया गया कि लोगों को वोट में बदल नहीं पाया.

यदि राहुल गांधी ने मोदी की नीतियों के आलोचक के बजाय समस्या समाधान के रूप में सामने आए होते कि आने वाले पांच साल कैसे होंगे तो लोग यह नहीं पूछ रहे होते कि विकल्प कौन है.

दूसरा – भरोसा बनाना

इस चुनाव में यात्रा करते हुए मैंने लोगों से पूछा कि वे प्रति परिवार 72,000 रुपये के वादे के बावजूद कांग्रेस के लिए मतदान क्यों नहीं कर रहे हैं. जवाब में निश्चित रूप से विश्वास की कमी थी. उन्हें विश्वास नहीं था कि यह संभव है. कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने मुझे बताया कि वे न्याय स्कीम के बारे में लोगों को बताते हैं. उनसे पूछा जाता है कि पैसा कहां से आएगा और उन्हें खुद इसका जवाब नहीं पता था.

यदि इसे लागू किया जाता है, तो न्याय स्कीम भारत में गरीबी को पूरी तरह से समाप्त कर देगा. कांग्रेस ने अनुमान लगाया था कि इस योजना से 25 करोड़ लोग प्रभावित होंगे. यह योजना अर्थनीति की बात करती है या नहीं, लेकिन इस योजना को रातों-रात गरीबों को कांग्रेस के पास ला देना चाहिए था.

पहले चरण के मतदान से कुछ दिन पहले ही इस योजना की घोषणा असल में बहुत देरे से की गई थी. कांग्रेस संसाधनों में कमजोर है और आमतौर पर जनता के साथ संवाद करने में तो बहुत ही कमजोर है. कांग्रेस को इस योजना की घोषणा बहुत पहले करनी चाहिए थी. यह सच है कि शायद ही किसी ने ‘अब होगा न्याय’ के नारे के बारे में सुना हो, लेकिन बहुत से लोगो ने 72,000 रु. देने पर राहुल गांधी पर भरोसा नहीं किया.

2014 में मोदी ने इतने बड़े वादे किए कि कांग्रेस ने उन्हें ‘फेकू’ करार दिया. हालांकि, लोगों ने 2014 में मोदी के वादों के लिए मतदान किया था क्योंकि उन्होंने लोगों को ‘विश्वास बेचा’ उन्होंने कहा मैंने इसे गुजरात में किया था. उन्होंने कहा कि इस मॉडल को वह पूरे देश में लागू करेंगे.

लोगों ने बढ़ती बेरोजगारी के बावजूद मोदी को वोट दिया. क्योंकि उन्होंने सोचा कि राहुल गांधी की तुलना में मोदी रोजगार पैदा करने में सक्षम होने की अधिक संभावना है. एक संवाददाता को बताया बिहार में बेरोजगार युवाओं ने भाजपा को वोट दिया.

राहुल गांधी को पंजाब जैसे कांग्रेस शासित राज्यों में नए विचारों में योगदान देकर (या सार्वजनिक रूप से योगदान) अपने नेतृत्व में जनता में विश्वास बना सकते थे. वह ‘कैसे’ समस्याओं को हल करेंगे इसकी योजना बनाकर विश्वास बेच सकते थे. इससे मोदी की छवि की विश्वसनीयता को कम कर सकते थे. वे अपने 2014 के वादों के परिणाम को बताते हुए संघर्ष करते दिखते.

तीसरा -जनता के मूड का जवाब

लोकतंत्र में विपक्ष की भूमिका लोगों की आवाज होती है. राजनेता जनता के मूड को भांपने के बाद अपने चुनाव अभियानों को डिजाइन करते हैं.

लोकपाल आंदोलन 2011 में बेतहाशा सफल रहा क्योंकि जनता का मूड भ्रष्टाचार के खिलाफ था. इसने लोकपाल बिल को लागू करने के लिए यूपीए -2 को मजबूर किया. पांच साल तक पीएम नरेंद्र मोदी ने लोकपाल की नियुक्ति नहीं करने का बहाना बनाया और किसी ने परवाह नहीं की क्योंकि लोगों ने भ्रष्टाचार को अब प्रमुख मुद्दा नहीं मानते हैं. जब महंगाई बढ़ती है तो लोग भ्रष्टाचार के बारे में अधिक चिंता करते हैं.


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अरविंद केजरीवाल लोकपाल आंदोलन के कारण ही एनजीओ कार्यकर्ता से लेकर दिल्ली के मुख्यमंत्री तक का सफर तय किया. दिल्ली में भाजपा और कांग्रेस दोनों को हराने और विजयी होने के लिए, आम आदमी पार्टी के नेताओं ने मुझे बताया, पार्टी ने दिल्ली के लोगों के लिए सबसे बड़ा मुद्दा समझने के लिए एक सर्वेक्षण किया. बिजली की बढ़ती कीमतें मुद्दा थी. उन्होंने बिजली को अपना प्रमुख हथियार बनाया और शानदार जीत हासिल की. इसी तरह, 2014 में मोदी के अभियान ने उन सभी प्रमुख मुद्दों के लिए अलग-अलग नारों के साथ ध्यान केंद्रित किया. जिनके बारे में लोग चिंतित थे, जैसे कि महंगाई, काला धन और महिला सुरक्षा.

2019 के लोकसभा चुनाव से ये मुद्दे गायब थे. क्योंकि प्रमुख चिंता नौकरियों की थी. सी-वोटर के यशवंत देशमुख ने मुझे बताया कि उनके ट्रैकर सर्वेक्षणों में नोटबंदी से पहले रोजगार 2015 के मध्य में बढ़ती चिंता के रूप में दिखाना शुरू हो गया था. नौकरियों को अपना केंद्रीय अभियान बनाने के बजाय, राहुल गांधी भ्रष्टाचार के मुद्दे पर चले गए. ऐसा करके उन्होंने मोदी को उनकी सबसे मजबूत छवि (भ्रष्टाचार-मुक्त छवि) पर हमला कर रहे थे. जिससे उनकी कमजोर कड़ी (बेरोजगारी) पर उन्हें छूट मिल गयी.

राहुल गांधी के लिए लोगों को यह बताना आसान था कि नोटबंदी और जीएसटी नौकरी के नुकसान के पीछे के प्रमुख कारण थे- जैसा कि सीपीआई (एम) ने कोयंबटूर में किया था और वहां भाजपा को हराया था. इसके बजाय राहुल गांधी ने राफेल को केंद्रीय मुद्दा बनाया था.

चौथा – स्थायी अभियान

जब राहुल गांधी ने पिछले साल संसद में नरेंद्र मोदी को गले लगाया, तो उन्होंने उस दिन सबका दिल जीत लिया था.राहुल पिछले कुछ समय से प्यार और नफ़रत की भावनात्मक बाइनरी का निर्माण कर रहे थे. इसको दर्शाने के लिए राहुल ने आखिरकार इस बिंदु को व्यक्त करने में कामयाबी हासिल की है. यह अविश्वास प्रस्ताव के दौरान था जब विपक्ष हार रहा था. इस गिमिक के साथ राहुल गांधी ने हार को जीत में बदल दिया. उन्हें गांधीगिरी अभियान शुरू करना चाहिए था, जिसमें कांग्रेस नेताओं से गले मिलने या देश भर में भाजपा-आरएसएस के नेताओं को फूल भेजने के लिए कहा जाना चाहिए था. खासकर तब जब वे सांप्रदायिक या विवादास्पद टिप्पणी करें.

राहुल गांधी के समर्थकों ने ठीक ही शिकायत की है कि मीडिया ज्यादातर मोदी का प्रचारक बन गया है. लेकिन मोदी समर्थक मीडिया भी राहुल के गले लगाने के प्रकरण को नज़रअंदाज़ नहीं कर पा रहा था.

उन्हें और भी बहुत कुछ करने की ज़रूरत थी जिससे मोदी समर्थक मीडिया भी उनकी अनदेखी नहीं कर सकता था. उन्हें नरेन्द्र मोदी की छवि कमजोर करने की आवश्यकता थी उनको अपने विचारों का संचार करने की आवश्यकता थी. इसके अलावा, जब वह मानसरोवर यात्रा के लिए गए तो उन्होंने हिंदू तीर्थयात्री के बजाय एक खुशहाल पर्यटक की तरह दिखने की छवि बनाईं. वह अक्सर विदेशी छुट्टियां भी लेते हैं और जब वह भारत में होते हैं. तब भी वह मीडिया के लाइमलाइट से ‘गायब’ हो जाते है. इसके विपरीत मोदी यह सुनिश्चित करते हैं कि आप उन्हें हर दिन अपनी स्थायी अभियान रणनीति के तहत कुछ न कुछ करते हुए दिखते हैं.

लोगों को प्रभावित करने के लिए कि उन्हें बेरोजगारी और किसानों के संकट और छोटे व्यवसायों के गिरते राजस्व के बारे में चिंतित होना चाहिए. राहुल गांधी को प्रतीकों और मीडिया गिमिक के माध्यम से संवाद करने के तरीकों के साथ आना चाहिए. जिन्हें आसानी से नजरअंदाज नहीं किया जा सके.

(लेखक के विचार व्यक्तिगत हैं)

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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