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Friday, 29 March, 2024
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राहुल गांधी को बहन प्रियंका के साथ अपने पेशेवराना रिश्ते सुलझा लेना चाहिए

अब ये परिवार का वैसे मसला नहीं रह गया, जो सोनिया गांधी और उनके दो बच्चों तक सीमित हो. कार्यकर्ताओं को पता होना चाहिए कि प्रियंका के पास कितने अधिकार हैं.

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ये तो तय है कि राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस पांच सालों तक लंबे समय लिए विपक्ष में बैठने वाली है. ये भी किसी से नहीं छुपा की हर तरह का कांग्रेस नेता कभी भी किसी गांधी को अपने नेता के तौर पर प्राथमिकता देगा. वो किसी शशि
थरूर या सचिन पायलट को अपना नेता नहीं मानेगा.

ऐसी विकट और यथास्थिति वाले मामले में राहुल गांधी के पास लगातार हिसाब-किताब बिठाने का काम है. उन्हें अपने पार्टी के नेताओं और देश भर को मनाना हैं. इन सबको उन्हें इस बात के लिए मनाना है कि वो अभी भी नरेंद्र मोदी और भाजपा का एक भरोसेमंद विकल्प देने की कोशिश कर रहे हैं. 2019 की दुर्गति के लिए ज़िम्मेदारी इकलौती चीज़ नहीं है. पार्टी के हर स्तर पर उन्हें ज़िम्मेदारी तय करनी पड़ेगी. इसमें जिन लोगों के जिम्मे पार्टी की बातचीत आगे बढ़ाने का ज़िम्मा था, यानी पार्टी का संचार विभाग उसकी तो ख़ास तरीके से ज़िम्मेदार तय होनी चाहिए. इसने सोशल मीडिया से लेकर, टीवी न्यूज़ चैनल और प्रिंट मीडिया तक में बेहद निराशाजनक प्रदर्शन किया है. ख़ुद राहुल तक को इसका दोष दिया जाना चाहिए कि उनके पास हर दिन 24 घंटे तक उन्हें सलाह देने वाला कोई मीडिया सलाहकार नहीं था और ना ही कोई ऐसा माध्यम था जिसके तहत तुरंत प्रतिक्रिया दी जा सके.


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कांग्रेस अध्यक्ष राहुल को उनकी बहन प्रियंका गांधी के साथ भी अपने पेशेवराना रिश्तों को ठीक करना चाहिए. अब ये परिवार का वैसे मसला नहीं रह गया जो सोनिया गांधी और उनके दो बच्चों तक सीमित हो. कांग्रेस कार्यकर्ताओं को पता होना चाहिए कि प्रियंका गांधी के पास कितने अधिकार हैं और वो अपनी राजनीतिक समझ से फैसले लेने के लिए कितनी स्वतंत्र हैं. राहुल के लिए ये अच्छा रहेगा कि वो प्रियंका को संगठन को वापस खड़ा करने का ज़िम्मा सौंप दें और ख़ुद संसदीय विंग का ज़िम्मा संभाले. वो प्रियंका को 2022 में होने वाले उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव या महाराष्ट्र और हरियाणा जैसे राज्यों के लिए विधानसभा चुनाव में पार्टी के नेतृत्व की भी ज़िम्मेदारी दे सकते हैं.

राहुल को बिगुल फूंककर उन तमाम समुह को वापस लौटने के लिए आवाज़ देनी चाहिए जो पार्टी से अलग हुए थे. इनमें एनसीपी, वाईएसआर कांग्रेस, तेलंगाना राष्ट्र समिति और यहां तक की तृणमूल कांग्रेस तक का नाम शामिल है और उन्हें वर्तमान संस्था से जोड़ना चाहिए. नेकी का पता भी तब चलेगा जब पार्टी के सारे बड़े पदे इन्हें दे दिए जाएं और बलिदान के लिए तैयार रहा जाए. ऐसा करने से तुरंत किसी का हृदय परिवर्तन नहीं हो जाएगा. लेकिन इससे राहुल के बारे में ये पता लगेगा कि वो सच में इसकी और कीमत चुकाने के लिए तैयार हैं.

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कांग्रेस न्याय योजना के बारे में लोगों को बताने में असफल रही. कांग्रेस पहली बार के वोटरों के पास भी नहीं पहुंच पाई. कृषि संकट से जूझ रहे किसानों से भी संपर्क नहीं साध पाई. यही हाल बेरोज़गार युवाओं और महिला वोटरों के मामले में भी रहा. ‘अवसरों की चूंक’ के इन मामलों को एक जगह समेटे तो एक ग्रंथ तैयार हो जाएगा. हालांकि, अभी भी बहुत देर नहीं हुआ और कांग्रेस अध्यक्ष इन पर तुरंत गौर कर सकते हैं. आने वाले दिनों में महाराष्ट्र और हरियाणा में जो विधानसभा चुनाव होंगे उनमें ये मुद्दे बेहद अहम होंगे.

राहुल को फैसले लेने से जुड़ी किसी भी चीज़ को बदल देना चाहिए. उनके सलाहकार में काफी विविधता होना चाहिए और इनमें युवाओं से लेकर बुज़ुर्ग तक शामिल होने चाहिए. ये सार्वजनिक जीवन में राजीव गांधी के शुरुआती दिनों की तरह हो सकता है. उन्हें राजनीतिक रूप से अनुभव के सांचे ढले लोगों के एक समूह की दरकार है जिसमें पीवी नरसिम्हा राव, एनडी तिवारी और उमा शंकर दीक्षित जैसे लोग शामिल हों जो राजीव गांधी को शांत और ज़रूरी सलाह दिया करते थे. राजीव के पास नए लोगों का भी एक बड़ा समूह था जिसमें कमल नाथ, पी चिदंबरम, अशोक गहलोत, गुलाम नबी आज़ाद और राजेश पायलट जैसे नेता शामिल थे जिनके पास बेहद ज़मीनी स्तर की समझ थी.

किस्मत से राहुल के पास कमलनाथ, चिदंबरम, आज़ाद और गहलोत जैसे वरिष्ठ लोगों के साथ कैप्टन अमरिंदर सिंह, अहमद पटेल जैसे नेता मौजूद हैं. राजीव के पास टेक्नोक्रेट्स का भी एक समूह था जिसमें सैम पित्रोदा, अरुण नेहरू और अरुण सिंह जैसे लोग थे जिनकी वजह से वो बाकियों से आगे होते थे. लेकिन राजीव ने महसूस किया कि ये लोग राजनीतिक क्षेत्र में दखलंदाजी कर रहे हैं तो दोनों अरुणों को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया. राहुल और सोनिया की कांग्रेस में कभी भी किसी को ना तो हटाया गया और ना ही बाहर का रास्ता दिखाया गया.


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अंतरिक कानूनी टीम एक विपत्ति थी. सुप्रीम कोर्ट ने जब राहुल गांधी को ‘चौकीदार चोर है’ वाले बयान के ऊपर अवमानना का नोटिस जारी किया तो कानूनी टीम ने उन्हें हर कदम पर हस्यास्पद स्थिति का सामना करवाया. पहली ही सुनवाई में बिना किसी शर्त के माफी के साथ मामले को सुलझाया जाना चाहिए था. लेकिन उनकी अयोग्य कानूनी टीम ‘खेद’ और ‘माफी’ का खेल खेलती रही और पहले पांच चरणों तक राहुल को बेवकूफ बनाया.

प्रतिभावान और वकीलों की ख़ासी तदाद रखने के बावजूद राहुल के नेतृत्व में कांग्रेस को संस्थागत तंत्र की दरकार है. ताकि चीज़े चलती रहें. एआईसीसी के संविधान के हर दूसरे पैराग्राफ में पार्टी की पार्लियामेंट्री बोर्ड का ज़िक्र होता है, 1991 से इसका गठन नहीं किया गया है! जनवरी से मई 2019 के बीच कांग्रेस वर्किंग कमिटी की मुलाकातें घटती चली गईं और जब इसे सेंट्रल इलेक्शन कमिटी (सीईसी) काम काम करना था, तब राहुल ने उम्मीदवारों के चयन की पूरी प्रक्रिया एक व्यक्ति पर छोड़ दी. ये काम केसी वेणुगोपाल को राज्यों के मुख्यमंत्रियों या वहां के कांग्रेस प्रमुखों संग सलाह लेकर करना था. ये ‘शार्ट कट’ महंगा साबित हुआ. क्योंकि इसकी वजह से पार्टी को कई महत्वपूर्ण और अहम जानकारियां नहीं मिल पाईं. चुनाव से पहले और बाद के गठबंधनों का जिम्मा राहुल पर छोड़ दिया गया. जिनके पास पहले से बहुत काम था. अगर इसके लिए कारगर मध्यस्थों का छोटा पैनल बेहतर नतीजे दे सकता था.


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भविष्य के गठबंधनों को लेकर अगर थोड़ा पता हो तो इससे कांग्रेस को बहुत फायदा होगा. व्यवहारिक तौर पर पार्टी के प्रमुख के तौर पर सीटों का बंटवारा तय करना हमेशा ही मुश्किल भरा होता है. क्योंकि एआईसीसी प्रमुख का पहला और सबसे अहम काम पार्टी के हितों की रक्षा करना है. जबकि, आज़ाद, गहलोत, कमलनाथ, अहमद, चिदमबंरम जैसों की एक टीम ने इस मामले में बेहतर नतीजे दिए होते.

सबसे अहम ये है कि राहुल को संवाद करने की ज़्यादा ज़रूरत है. बल्कि उन्हें ज़मीनी स्तर के विचार को सुनना चाहिए. एआईसीसी के सत्र का साल में दो बार आयोजन होना चाहिए और ये अच्छा रहेगा कि ये दिल्ली से बाहर हो. राहुल और प्रियंका को सप्ताह के अंत में अन्य राज्यों और ज़िलों के पार्टी ऑफिसों में समय बिताना चाहिए. 1955 में अवधि सत्र के दौरान ऑल इंडिया कांग्रेस कमिटी के अध्यक्ष यूएन धेबर ने जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी और अन्य लोगों की मौजूदगी में एक कवि के लहज़ में धाराप्रवाह बोल और मौजूद लोगों ने अपना सिर सहमति में हिलाया. धेबर ने कहा, ‘कांग्रेस क्या है? ये वो आंसू है, जो कष्ट और पीड़ा से जूझती दासता में फंसी मानवता के हृदय से गिरा है और जीवित हो उठा है.’

2006 के हैदराबाद सम्मेलन में कांग्रेस पार्टी के एक पेपर में लिखा था, ‘हर राजनीतिक काल को एक नेता और भविष्य देखने वाले की दरकार होती है. जो समाज के पारम्परिक आदर्शों को बदल देता है ताकि वर्तमान चुनौतियों का सामना किया जा सके.’ क्या राहुल गांधी में ये बातें हैं?

राशिद किदवई ओआरएफ के संबंध एक फेलो, लेखक और पत्रकार हैं. ये उनका निजी नज़रिया है.

इस लेख को पहले ओआरएफ ने पब्लिश किया था.

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(अंग्रेज़ी में इस लेख को पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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