राजनीतिक रूप से बेहद संवेदनशील अयोध्या में राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद भूमि विवाद पर उच्चतम न्यायालय में सुनवाई की रफ्तार से उम्मीद बंधी है कि 134 साल पुराने भूमि विवाद पर जल्द ही फैसला आ जायेगा. इस विवाद की सुनवाई के दौरान वेद पुराणों से लेकर बाबरनामा और आईने अकबरी और जहांगीरनामा जैसे ग्रंथों और प्राचीन काल में भारत आए कारोबारियों के यात्रा संस्मरणों का हवाला दिया गया है.
लेकिन अनायास ही यह सवाल परेशान करता है कि क्या इस फैसले को लागू कराया जा सकेगा या इसका भी हश्र वाराणसी के दोशीपुरा कब्रिस्तान के मामले में शीर्ष अदालत के फैसले जैसा ही होगा जिसे करीब 30 साल तक लागू ही नहीं किया जा सका क्योंकि प्रशासन ने कानून व्यवस्था का हवाला देते हुये इस पर अमल करने में असमर्थता व्यक्त कर दी थी.
इस बीच, एक बार फिर इस संवेदनशील और राष्ट्रीय दृष्टि से महत्वपूर्ण इस मुकदमे की कार्यवाही के सीधे प्रसारण अथवा इसकी ऑडियो-रिकॉर्डिंग का मसला फिर चर्चा में है. आरएसएस के पूर्व विचारक के एन गोविन्दाचार्य की याचिका पर सोमवार को प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई, न्यायमूर्ति अशोक भूषण और न्यायमूर्ति एस अब्दुल नजीर की पीठ विचार करेगी.
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गोविन्दाचार्य चाहते हैं कि शीर्ष अदालत के सितंबर, 2018 के फैसले के अनुरूप इस प्रकरण की कार्यवाही का सीधा प्रसारण किया जाये और यदि ऐसा संभव नहीं हो तो इसकी ऑडियो रिकार्डिंग की जाये. देखते हैं कि सोमवार को इस संबंध में न्यायालय क्या रुख अपनाता है.
यह भी संभव है कि दोशीपुरा कब्रिस्तान विवाद में शीर्ष अदालत के फैसले पर अमल में आयी दिक्कतों को ध्यान में रखते हुये संविधान पीठ राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद भूमि विवाद पर अपना निर्णय सुनाते वक्त इस पर अमल सुनिश्चित करने के लिये कोई नया विकल्प तलाश ले. फिलहाल तो यह देखना होगा कि इस प्रकरण के मालिकाना हक का निपटारा न्यायालय किस तरह करता है.
वाराणसी का बहुचर्चित दोशीपुरा कब्रिस्तान विवाद शिया-सुन्नी समुदाय के बीच था जबकि राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद हिन्दू और मुस्लिम समुदाय के बीच चल रहा है. दोशीपुरा कब्रिस्तान प्रकरण में हमेशा ही शिया और सुन्नी समुदाय के बीच टकराव की स्थिति बनी रहती थी, राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद तो हिन्दू और मुस्लिम समाज के बीच नाक का सवाल बना हुआ है.
दोशीपुरा विवाद शिया समुदाय के कब्रिस्तान में सुन्नी समुदाय के भूखंड और वहां बनी दो मज़ारों से संबंधित हैं. सुन्नी और शिया समुदायों के बीच 1878 से चल रहे इस विवाद में तीन नवंबर, 1981 में उच्चतम न्यायालय को शिया समुदाय के पक्ष में फैसला सुनाया था लेकिन इसके बावजूद विवाद अभी तक पूरी तरह सुलझ नहीं सका.
न्यायालय के 1981 के निर्णय के बाद उठे प्रकरण पर शीर्ष अदालत 23 सितंबर, 1983 को एक और फैसला सुनाया था. इस मामले में करीब 36 साल बाद भी फैसले पर पूरी तरह अमल नहीं हो सका. वाराणसी के ज़िला प्रशासन ने इस फैसले पर अमल करने की स्थिति में कानून व्यवस्था की गंभीर स्थिति उत्पन्न होने की आशंका व्यक्त की थी. न्यायालय ने सारे प्रकरण को संवेदनशील बताते हुये अपने फैसले पर अमल विलंबित कर दिया था. न्यायालय चाहता था कि दोनों पक्ष बातचीत से यह विवाद सुलझा लें.
शीर्ष अदालत ने अयोध्या प्रकरण में भी इसी तरह के प्रयास किये. न्यायालय को उम्मीद थी कि राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद का मध्यस्थता के माध्यम से समाधान निकल सकता है लेकिन ऐसा नहीं हुआ. इस वजह से अब न्यायालय की संविधान पीठ 30 सितंबर, 2010 के इलाहाबाद उच्च न्यायालय के बहुमत के फैसले के खिलाफ दायर अपीलों पर रोज़ाना सुनवाई कर रही है. उच्च न्यायालय ने 2.77 एकड़ विवादित भूमि को तीनों पक्षकारों- सुन्नी वक्फ बोर्ड, निर्मोही अखाड़ा और राम लला विराजमान में बराबर बराबर बांटने का आदेश दिया था.
यह अलग बात है कि शीर्ष अदालत ने मई 2011 में उच्च न्यायालय के निर्णय पर रोक लगाने और यथास्थिति बनाये रखने का आदेश देते हुये विवादित भूमि का बंटवारा करने के निर्देश पर आश्चर्य व्यक्त किया था. संभवतः शीर्ष अदालत ने यह महसूस किया था कि इस निर्देश पर अमल करना मुश्किल होगा. यही नहीं, अयोध्या मे विवादित स्थल और उसके पास की अधिग्रहीत भूमि पर जनवरी, 1993 की स्थिति के अनुसार यथास्थिति बरकरार है.
इस प्रकरण के दूसरे दौर के मुकदमे के दौरान न्यायालय ने पाया कि पहले वाले वाद में सुन्नी समुदाय को वर्तमान भूखण्ड पर बनी मौलाना हाकम बदरुद्दीन की मज़ार पर फातिहा पढ़ने की छूट दी गयी थी. लेकिन इस बीच वहां दो अन्य कब्र बन गयी थीं. अंततः न्यायालय ने दोनों समुदायों के बीच लगातार होने वाले टकराव का स्थाई हल खोजने के इरादे से एक समिति गठित की. समिति को इस सवाल पर गौर करना था कि क्या विवाद का केन्द्र बने भूखण्ड पर अब मौजूद दो कब्रों को किसी अन्य सुविधाजनक जगह पर स्थानांतरित किया जा सकता है?
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समिति के अध्यक्ष की राय थी कि भूखण्ड के उत्तरी दिशा में स्थित इन कब्रों को मौलाना हाकिम बदरुद्दीन की मजार के दक्षिण में स्थानांतरित किया जा सकता है. शिया समुदाय ने इस पर अमल के लिये निर्देश देने का अनुरोध करते हुये यह याचिका दायर की थी. इस पर न्यायालय ने अपने फैसले में कहा था कि इन दो कब्रों को स्थानांतरित करने को गैर धार्मिक या सुन्नी समुदाय के किसी भी मौलिक अधिकार का हनन करने वाला नहीं माना जा सकता है.
न्यायालय ने सारे प्रकरण को संवेदनशील बताते हुये फैसले पर अमल विलंबित कर दिया था. न्यायालय चाहता था कि दोनों पक्ष बातचीत से यह विवाद सुलझा लें. यह विवाद सुन्नी समुदाय के कब्रिस्तान में शिया समुदाय के भूखण्डों से संबंधित हैं, हालांकि उत्तर प्रदेश प्रशासन ने अब इन भूखण्ड के इर्द गिर्द ऊंची दीवार का निर्माण करा दिया है ताकि मुहर्रम के दौरान किसी प्रकार की अप्रिय घटना न हो.
दिलचस्प तथ्य यह भी है कि 1983 के फैसले के अमल को लेकर लगातार न्यायालय में आवेदन दायर होते रहे. न्यायालय ने अगस्त 2014 को अर्थात फैसले के 31 साल बाद एक बार फिर एक आवेदन का निस्तारण किया और अपने आदेश में कहा कि उत्तर प्रदेश सरकार ने बताया है कि लाल मोहम्म्द और सकीना की कब्रों को स्थाई दीवारों से घेर दिया गया है.
अतः इस तथ्य के मद्देनजर 1996 में दायर आवेदन पर अब किसी और आदेश की आवश्यकता नहीं है. न्यायालय ने इन आवेदकों को अपनी अन्य शिकायतों के लिये अलग से आवेदन दायर करने की छूट दी थी.
साथ ही न्यायालय ने उत्तर प्रदेश के पुलिस महानिदेशक को निर्देश दिया कि मुहर्रम के दौरान इस स्थान पर हर तरह से कानून व्यवस्था सुनिश्चित करें ताकि वहां किसी भी प्रकार की गड़बड़ी नहीं हो. इसके बाद भी इस मामले में फरवरी 2015 तक कई आवेदन दायर हुये जिनका निपटारा किया जा चुका है.
इसी तरह, जहां तक सवाल अयोध्या में राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद का है तो यह प्रकरण तो 134 साल से भी अधिक पुराना है. इसमें पहला वाद जनवरी, 1885 में अयोध्या में महंत जन्म स्थान, महंत रघुबर दास ने दायर किया था. इस मामले में पहला फैसला फैज़ाबाद की अदालत ने 24 दिसंबर, 1885 को आया था.
इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले में इसका विस्तार से उल्लेख है. इसमें कहा गया है कि फैज़ाबाद की अदालत ने अमीन की रिपोर्ट पर मोहम्मद असगर की कुछ आपत्तियों का ज़िक्र करते हुये यह पाया कि चबूतरे पर चरण उकेरे हुये थे और ठाकुरजी की मूर्ति विराजमान थी जिनकी पूजा होती थी. अमीन के नक्शे के अवलोकन से एक बात और साफ थी कि मस्जिद और चबूतरे के बीच एक पक्की दीवार थी जिसमें ग्रिल लगी थी जो दोनों के बीच विभाजन की कड़ी थी.
फैसले में कहा गया कि सरकारी गजट से भी इसकी पुष्टि होती है. इसमें यह भी स्पष्ट था कि पहले हिन्दू और मुसलमान दोनों ही उस स्थान पर पूजा करते थे और नमाज़ पढ़ते थे. इस विवाद को लेकर 1855 में हिन्दू और मुसलमानों के बीच झगड़ा हुआ और कहते हैं कि इसके बाद ही इस स्थल का बंटवारा करने के लिये वहां ग्रिल की दीवार बनायी गयी थी ताकि मुसलमान दीवार के भीतरी हिस्से में और हिन्दू दीवार के बाहरी हिस्से में पूजा करें.
फैसले में यह भी कहा गया था कि चबूतरे पर हिन्दुओं का कब्ज़ा और उनका स्वामित्व था. इसी चबूतरे के पास मस्जिद की दीवार थी जिस पर ‘अल्लाह’ खुदा हुआ था. इसलिए उस पर मंदिर के निर्माण की अनुमति देना जनहित में नहीं था क्योंकि उसमें घंटे-घड़ियाल और शंख बजते थे तथा उसी रास्ते से मुसलमान जाते तो इससे दोनों समुदायों में बडे़ पैमाने पर झड़प हो सकती थी.
अंततः अदालत इस निष्कर्ष पर पहुंची कि इस जगह मंदिर के निर्माण की अनुमति देने का मतलब दोनों समुदायों के बीच दंगों की नींव डालना होगा और इसलिए इसकी अनुमति नहीं देना ही न्याय के हित में होगा. इस फैसले और डिक्री के खिलाफ अपील का फैजाबाद के जिला न्यायाधीश ने 18 मार्च 1886 को निपटारा कर दिया. इस फैसले के अनुसार न्यायाधीश ने सभी पक्षों की मौजूदगी में 17 मार्च 1886 को विवादित स्थल का दौरा किया और पाया कि अयोध्या शहर की सीमा पर बाबर द्वारा निर्मित मस्जिद मौजूद थी.
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न्यायाधीश ने लिखा, ‘यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है कि हिन्दुओं द्वारा विशेष रूप से पवित्र मानी जाने वाली इस भूमि पर मस्जिद का निर्माण किया गया परंतु यह घटना 356 साल पहले हुयी है, इसलिए इसे लेकर शिकायत के समाधान के लिये बहुत अधिक देर हो चुकी है. इसमें सिर्फ यही हो सकता है कि संबंधित पक्ष यथास्थिति बनाये रखें.’
ज़िला न्यायाधीश ने आगे लिखा, ‘हिन्दुओं के कब्जे वाले चबूतरे के बायीं ओर इस घेरे के प्रवेश द्वार पर ‘अल्लाह’ लिखा हुआ है. यहीं पर तंबू की शक्ल में लकड़ी के छोटे-छोटे 20 खोखे हैं. इस चबूतरे के बारे में कहा जाता है कि यह राम चन्द्र के जन्म स्थल का सूचक है. इस द्वार से ही मस्जिद के लिये प्रवेश किया जाता है. इनके बीच से एक दीवार बनी है जो मस्जिद के प्लेटफार्म और चबूतरे को विभाजित करती है.’
उच्च न्यायालय के फैसले में इस तरह के तथ्यों का उल्लेख होने की वजह से शीर्ष अदालत के लिये भी इसके मालिकाना हक के विवाद का कोई सर्वमान्य समाधान निकालना बहुत बड़ी चुनौती है. उम्मीद की जानी चाहिए कि इस बार शीर्ष अदालत अपने निर्णण में कोई न कोई ऐसा रास्ता ज़रूर निकालेगा जिससे उसके फैसले पर सही तरीके से अमल करके इस विवाद को हमेशा के लिये खत्म किया जा सके.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं .जो तीन दशकों से शीर्ष अदालत की कार्यवाही का संकलन कर रहे हैं. इस लेख में उनके निजी विचार हैं)