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Thursday, 28 March, 2024
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न्यायपालिका को बीमारी से बचाना है तो रिटायर्मेंट के बाद मीलॉर्ड्स को नौकरी का झुनझुना न दें

क्या न्यायमूर्ति गौड़ की पीएमएलए न्यायाधिकरण के अध्यक्ष पद पर नियुक्ति न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर सवाल उठाती है.

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उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की सेवानिवृत्त होते ही न्यायाधिकरणों और आयोगों में नियुक्ति न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर एक धब्बा है और इस विचार से उच्चतम न्यायालय भी सहमत नजर आता है. सवाल उठता है कि अगर इस तरह की नियुक्तियां न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर धब्बा हैं तो फिर ऐसा क्यों हो रहा है? इस तरह की नियुक्तियां सामान्यतया प्रधान न्यायाधीश से सलाह मशविरे के बाद ही की जाती है. क्यों नहीं सेवानिवृत्त होने वाले न्यायाधीशों को कम से कम दो साल तक किसी न्यायाधिकरण या आयोग मे नियुक्ति से अलग रखा जाता है?

उच्चतम न्यायालय द्वारा कुछ महीने पहले न्यायाधिकरणों में पूर्व न्यायाधीशों की नियुक्तियों के बारे में बेहद तल्ख टिप्पणी की थी. न्यायालय इस दृष्टिकोण से सहमत था कि न्यायाधिकरणों में सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की नियुक्ति न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर एक धब्बा है. लेकिन इसके बावजूद दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायाधीश सुनील गौड़ के सेवानिवृत्त होते ही धन शोधन रोकथाम अपीलीय न्यायाधिकरण के अध्यक्ष पद पर नियुक्ति से सवाल उठता है कि सरकार ने उन्हें किन कामो के लिये उपकृत किया है?

जहन में सबसे पहले यही जवाब मिलता है कि न्यायमूर्ति गौड़ को पूर्व गृह मंत्री पी चिदंबरम की अग्रिम जमानत रद्द करने और नेशनल हेराल्ड मामले में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी, उनके सांसद पुत्र राहुल गांघी और पार्टी के अन्य नेताओं पर मुकदमा चलाने की अनुमति देने के फैसलों के लिये ही उपकृत किया गया है.

विभिन्न न्यायाधिकरणों और आयोगों में आने वाले विवादों को न्यायिक और तार्किक ढंग से निबटाने के लिए न्यायिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्तियों की आवश्यकता होती है. इस तरह की नियुक्तियां प्रधान न्यायाधीश से परामश के बाद ही की जाती हैं. लेकिन सवाल उठता है कि इन नियुक्तियों के लिये हाल ही में सेवानिवृत्त हुये न्यायाधीशों का ही चयन क्यों जबकि देश में पूर्व न्यायाधीशों की कमी नहीं है.

यह भी सच है कि ऐसा पहली बार नहीं हुआ है. न्यायाधीशों के सेवानिवृत्त होते ही किसी न्यायाधिकरण अथवा दूसरे पदों पर उनकी नियुक्ति हमेशा ही विवादों के घेरे में रही है. परंतु न्यायमूर्ति सुनील गौड़ की नियुक्ति को लेकर राजनीतिक दलों और दूसरे प्रगतिशील वर्ग ने ऐसे आसमान सिर पर उठा लिया कि मानो इससे पहले कार्यपालिका ने ऐसा पहले कभी किया ही नहीं.

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यह परंपरा कोई नयी नहीं है. उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों के कई न्यायाधीशों को सेवानिवृत्त होते ही नयी नियुक्तियां मिली हैं. न्यायमूर्ति स्वतंत्र कुमार की राष्ट्रीय हरित अधिकरण के अध्यक्ष पद नियुक्ति की घोषणा तो उनके न्यायाधीश रहते हुये ही सरकार ने कर दी थी.

सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की नियुक्ति का मुद्दा लंबे समय से विवाद का विषय रहा है. उच्चतम न्यायालय ने अपने एक फैसले में ही इस प्रवृत्ति पर चिंता व्यक्त की थी जबकि 2012 में संप्रग सरकार के कार्यकाल के दौरान भारतीय जनता पार्टी ने उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों के सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की विभिन्न पदों पर होने वाली नियुक्तियों के मामले में सेवानिवृत्त नौकरशाहों की तरह ही इस श्रेणी में आने वाले न्यायाधीशों को कम से कम दो साल तक कोई नयी जिम्मेदारी नहीं देने का सुझाव दिया था. लेकिन अब जब भाजपा सत्ता में आयी तो उसने भी कांग्रेस की नीति पर चलना उचित समझा है, आखिर क्यूं?


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प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ ने हालांकि सेवानिवृत्ति के बाद न्यायाधीशों की नियुक्ति के संबंध में अर्द्धन्यायिक न्यायाधिकरणों को शासित करने वाले कानूनों की वैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान यह टिप्पणी की थी, लेकिन यह बेहद महत्वपूर्ण है जिस पर गंभीरता से विचार की आवश्यकता थी.

न्यायाधिकरणों में पूर्व न्यायाधीशों की नियुक्ति के संदर्भ में शीर्ष अदालत की इन टिप्पणियों को अगर सही मान लिया जाये तो सवाल यह है कि न्यायाधिकरणों के अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्ति कैसे हो? क्या न्यायाधीशों को सेवानिवृत्त होने के बाद कम से कम दो साल तक कोई नयी जिम्मेदारी नहीं दी जानी चाहिए? न्यायाधिकरणों और आयोगों में न्यायाधीशों के अवकाश ग्रहण करते ही उनकी नियुक्ति को लेकर होने वाले विवादों को देखते हुये उम्मीद थी कि सरकार इस पर गंभीरता से विचार करेगी लेकन न्यायमूर्ति गौड़ की नियुक्ति ने सरकार की मंशा स्पष्ट कर दी है.

यह सवाल लंबे समय से उठ रहा है कि किसी भी न्यायाधीश को सेवानिवृत्त होने पर एक निश्चित अवधि तक कोई ऐसा काम स्वीकार नहीं करना चाहिए जिसमे सरकार से वेतन और सुविधाएं मिलती हों.

देश के कम से कम तीन पूर्व प्रधान न्यायाधीशों एस एच कपाड़िया, न्यायमूर्ति आर एस लोढा और न्यायमूर्ति तीरथ सिंह ठाकुर की राय यही रही है कि उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों को सेवानिवृत्ति के तुरंत बाद शासकीय या अर्द्ध न्यायिक नियुक्ति का प्रस्ताव स्वीकार नहीं करना चाहिए. न्यायमूर्ति लोढा ने तो इस समस्या के समाधान के लिये ठोस सुझाव भी दिये थे लेकिन यह परवान नहीं चढ़ पाये.

ये भी हैं विकल्प

पूर्व न्यायाधीशों को नयी जिम्मेदारियों के प्रलोभन से बचाने के इरादे से न्यायमूर्ति लोढा ने ऐसी व्यवस्था बनाने का सुझाव दिया था जिसके अंतर्गत ऐसे न्यायाधीशों के अवकाश ग्रहण करने से तीन महीने पहले ही उन्हें अन्य भत्तों के बगैर ही दस साल के लिये पूरा वेतन प्राप्त करने अथवा कानून के अनुसार पेंशन प्राप्त करने का विकल्प दिया जाना चाहिए.

न्यायमूर्ति लोढा का सुझाव था कि पूर्ण वेतन का विकल्प चुनने वाले न्यायाधीशों को ही उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीशों के लिये पदों के चयन हेतु सूची में शामिल किया जाना चाहिए. परंतु, इस विकल्प का चयन करने वाले न्यायाधीशों को पंचाट सहित कोई भी अन्य निजी काम अपने हाथ में लेने की इजाजत नहीं होनी चाहिए.

संप्रग सरकार के कार्यकाल में उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों के अवकाश ग्रहण करने से पहले ही किसी न किसी आयोग या किसी अन्य पद पर उनकी नियुक्ति की घोषणा करने की परंपरा थी. इस संबंध में न्यायमूर्ति स्वतंत्रत कुमार और न्यायमूर्ति मार्कण्डेय काटजू का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है.


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इसी तरह, मोदी सरकार ने इसी परपंरा को आगे बढ़ाते हुये पहले देश के प्रधान न्यायाधीश पद से न्यायमूर्ति पी के सदाशिवम के सेवानिवृत्त होते ही उन्हें केरल का राज्यपाल बनाया और इसके बाद उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति आदर्श कुमार गोयल को अवकाश ग्रहण करते ही राष्ट्री हरित अधिकरण की बागडोर सौंपी. इसी तरह, न्यायमूर्ति आर के अग्रवाल को अवकाश ग्रहण करते ही राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निबटान आयोग की कमान सौंपी गयी.

यह सही है कि न्यायाधीशों के सेवानिवृत्त होते ही उन्हें किसी आयोग या न्यायाधिकरण की कमान सौंपे जाने पर तरह तरह के विवाद जन्म लेते हैं और कई बार तो इन न्यायाधीशों के हालिया फैसलों को इसी संदर्भ में उठाया जाता है, भले ही इनका ऐसी नियुक्तियों से कोई लेना देना ही नहीं हो.

न्यायाधीशों के सेवानिवृत्त होते ही न्यायाधीशों की किसी आयोग या न्यायाधिकरण मे नियुक्ति के विवाद से बचने के लिये सरकार को पूर्व प्रधान न्यायाधीश आर एस लोढा के सुझावों पर गंभीरता से विचार करना चाहिए और सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की विभिन्न पदों पर नियुक्ति के बारे में एक विस्तृत नीति तैयार की जानी चाहिए.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं .जो तीन दशकों से शीर्ष अदालत की कार्यवाही का संकलन कर रहे हैं.यह आलेख उनके निजी विचार हैं)

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