भारत की अरुणाचल सीमा पर अंतिम चौकियों में एक तवांग क्षेत्र पिछले कुछ हफ्तों से चीन के पीएलए सैनिकों के साथ बढ़ते तनाव के कारण खबरों में है. हालांकि, भारतीय सेना ने लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल (एलएसी) को पार करने की चीनी फौज की कोशिश को नाकाम कर दिया है, लेकिन इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता है कि सीमा को सुरक्षित करने के लिए हमें वहां बुनियादी ढांचे को मजबूत करने की ज़रूरत है, ताकि वहां यथास्थिति बदलने के दुश्मन के प्रयास को असफल किया जा सके.
यह याद करना मुनासिब है कि 1947 में ल्हासा में दलाई लामा की सरकार ने स्वतंत्र भारत की कानूनी हैसियत को मान्यता दी थी और उसे ब्रिटेन और तिब्बत के बीच सभी संधियों का स्वाभाविक उत्तराधिकारी स्वीकार किया था. द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान नॉर्थ इस्टर्न फ्रंटियर एरिया (नेफा, तब अरुणाचल प्रदेश को इसी नाम से जाना जाता था) के लोहित और सुबनसिरी डिवीजनों में सड़क निर्माण शुरू हो गया था, ताकि 1914 की शिमला संधि में दावा की गई सीमा तक के क्षेत्रों में राजकाज बढ़ाया जा सके.
जहां तक तवांग और पूरे कामेंग डिवीजन के संबंध हैं, ब्रिटिश भारतीय सेना ने 1938 में तवांग में जो चौकी बनाई थी, उस पर 1942 में एक्सिस फौज ने झंडा गाड़ दिया था, लेकिन जापानी फौज के पीछे हटने के फौरन बाद तिब्बती सेना चुपचाप वहां से हट गई थी. यानी उस समय एक-दूसरे पर धावा बोलने जैसे हालात थे.
सैन्य इतिहासकार शिव कुणाल वर्मा ने अपनी किताब 1962: द वॉर दैट वास नॉट में लिखा है कि विश्व युद्ध के बाद तिब्बत की गवर्निंग काउंसिल कशग ने आधिकारिक तौर पर अक्टूबर 1944 में भारत सरकार को लिखा था कि वह ‘नहीं चाहती कि मैकमोहन रेखा की वैधता पर विवाद हो’, लेकिन अनुरोध किया गया कि तवांग तक ब्रिटिश प्रशासन के विस्तार को रोक दिया जाए.
इस बीच, जब चांग काई-शेक के नेतृत्व में नेशनलिस्ट माओ त्से तुंग की अगुआई वाले कम्युनिस्टों से हार गए, तो कम्युनिस्टों ने तिब्बत पर दावा ठोक दिया. अक्टूबर 1950 से, चीनी सैनिक पांच स्थानों पर सीमा पार करके पूर्वी तिब्बत में घुसे और खाम प्रांत के चाम्डो में तिब्बती सेना के मुख्यालय पर कब्जा कर लिया. पीएलए का मकसद ल्हासा की सरकार का मनोबल तोड़ना और वार्ताकारों को बीजिंग भेजने के लिए दबाव डालना था, ताकि वे तिब्बत को सौंपने की शर्तों पर हस्ताक्षर करें.
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तवांग में राजकाज की स्थापना
भारतीय राजनीतिक अधिकारी 1951 की शुरुआत में नेफा के विभिन्न हिस्सों में चीन की गतिविधियों में बढ़ोतरी की सूचना दे रहे थे. असम राइफल्स की अधिकांश चौकियां मैकमोहन रेखा पर थीं, जहां न के बराबर प्रशासनिक नियंत्रण वाले लोग कम्युनिकेशन साधने की कोशिश रहे थे. वालेंग और हायुलियांग में एक अधिकारी की कमान के तहत एक प्लाटून की स्थापना की गई, जबकि सियांग घाटी के ऊपरी इलाकों में दो चौकियां बनाई गई थीं. हालांकि, असम के गवर्नर जयरामदास दौलतराम तवांग के अगले हिस्से को लेकर चिंतित थे, जहां तिब्बती जोंगपेन (स्थानीय अधिकारी) और उनके कारिंदों का अभी भी नियंत्रण था. गवर्नर के ही अधीन असम राइफल्स कार्यरत था. पासीघाट में सहायक राजनीतिक अधिकारी मेजर बॉब खथिंग को शिलांग बुलाया गया और तवांग तक प्रशासन के विस्तार के लिए असम राइफल्स की एक टुकड़ी ले जाने का निर्देश दिया गया. उन्हें कैप्टन एच.बी. लिम्बु की कमान में 5 असम राइफल्स की तीन प्लाटून दी गई. उनकी ट्रेन में छह सौ कुली भी थे.
खथिंग 1 फरवरी 1951 को तवांग पहुंचे, जहां त्सोना दजोंग जोंगपेन के एक प्रतिनिधि ने उनका स्वागत किया और इस बात पर रजामंदी बनी कि ‘लौह-बलों वाले वर्ष के तीसरे दिन यानी 9 फरवरी 1951 से तवांग और उसके मठ के प्रशासन की जिम्मेदारी भारत सरकार की होगी’ और यह कि त्सोना जोंगपेन या तिब्बती सरकार के किसी अन्य अधिकारी का अब बुम-ला के दक्षिण में मैकमोहन रेखा पर स्थित गांवों पर अधिकार नहीं रहेगा.
जोंगपेन ने इसकी खबर ल्हासा को भेज दी, लेकिन तब तक, दलाई लामा का प्रशासन उखड़ता जा रहा था. तिब्बत के मामलों के आधिकारिक विद्वान क्लॉड अरपी के मुताबिक, तवांग में बॉब खथिंग की सैन्य टुकड़ी सरदार पटेल का देश को आखिरी तोहफा था क्योंकि उन्होंने ही जयरामदास दौलतराम को तवांग पर तिरंगा फहराने का निर्देश दिया था.
हालांकि, तिब्बतियों ने आखिरली कोशिश के तहत सभी ग्राम प्रधानों को तवांग में इकट्ठा होने का आदेश दिया. तब तक, बॉब खथिंग और असम राइफल्स ने मोनपा लोगों को अपने अनुकूल करने की कोशिशें शुरू कर दी थीं, जिन्होंने पाया कि भारतीय उनसे कोई टैक्स वसूलने के इच्छुक नहीं थे. तिब्बती अधिकारियों को खेंजेमाने में भारतीय सीमा चौकी तक ले जाया गया. इस प्रकार चीन ने 24 अक्टूबर 1951 को दलाई लामा को 17-सूत्रीय समझौते पर मजबूर कर दिया, उससे सात महीने पहले भारत का वहां नियंत्रण कायम हो चुका था.
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नाराज़ पंडित नेहरू
जब तक नेहरू को तवांग मामले की भनक लगी, खथिंग हालात पर पूरा नियंत्रण कायम कर चुके थे. हालांकि कुछ हफ्तों बाद (अप्रैल 1951) गवर्नर और मेजर दोनों को नेहरू से खरी-खोटी सुननी पड़ी, लेकिन हालात बदलना अब असंभव था. हालांकि, नेहरू का गुस्सा देर तक नहीं रहा, क्योंकि दौलतराम ने 1956 तक असम के राज्यपाल के रूप में अपना पांच साल का कार्यकाल पूरा किया और खथिंग नगालैंड में मोकोकचुंग के जिला मजिस्ट्रेट बने, जहां 1956 और 1957 में दो नगा सम्मेलन आयोजित किए गए थे, जिसमें हिंसा की निंदा की और भारत संघ के भीतर स्वायत्त राज्य के लिए सहमति ज़ाहिर की गई. खथिंग नगालैंड के मुख्य सचिव बने और बाद में बर्मा में हमारे राजदूत बने, जिसे अब म्यांमार कहा जाता है.
तवांग के इसी मठ में दलाई लामा ने 31 मार्च 1959 को कठिन यात्रा के बाद शरण ली थी. इस कहानी को रीता सिंह ने अपनी किताब ‘एन ऑफिसर ऐंड हिज होलीनेस’ में कैद किया है. पचास साल बाद, चीन के कड़े विरोध के बावजूद, 8 नवंबर 2009 को दलाई लामा की तवांग मठ की यात्रा क्षेत्र के लोगों के लिए एक यादगार घटना थी और मठ के महंत ने बहुत धूमधाम से उनका स्वागत किया.
यह बात भी सच है कि 1962 की लड़ाई में पीएलए ने तवांग और उसके प्रसिद्ध मठ पर नियंत्रण कर लिया था, लेकिन उसे कोई नुकसान नहीं हुआ और कुछ हफ्तों के बाद चीनी सैनिक चुपचाप पीछे हट गए थे. ज़मीनी हालात से तमाम संकेत यही मिल रहे हैं कि हमें देश के सबसे प्यारे और एकाकी फ्रंटियर के साथ कनेक्टिविटी को मजबूत करने के लिए पुख्ता इन्फ्रास्ट्रक्चर में विस्तार की ज़रूरत है, क्योंकि भारत के रणनीतिक हितों और क्षेत्रीय अखंडता के लिए यह अत्यंत जरूरी हैं.
संजीव चोपड़ा पूर्व आइएएस अधिकारी और वैली ऑफ वड्र्स के फेस्टीवल डायरेक्टर हैं. हाल तक वे लाल बहादुर शास्त्री नेशनल अकेडमी ऑफ एडमिनिस्ट्रेशन के डारेक्टर थे. उनका ट्विटर हैंडल @ChopraSanjeev है. व्यक्त विचार निजी हैं.
(अनुवादः हरिमोहन मिश्रा | संपादनः फाल्गुनी शर्मा)
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