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Friday, 19 April, 2024
होममत-विमत2017 के UP चुनावों जैसा नजारा—2022 में BJP की तरह ही सियासी चालें चल रहे अखिलेश यादव

2017 के UP चुनावों जैसा नजारा—2022 में BJP की तरह ही सियासी चालें चल रहे अखिलेश यादव

यूपी भाजपा के एक नेता ने आगाह करते हुए कहा है कि अगर इस्तीफे का मुद्दा जल्द नहीं सुलझा तो पार्टी को केवल ‘प्रभावशाली जाति’ के हितों का ख्याल रखने वाले दल के तौर पर ही देखा जाएगा.

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उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी के लिए पिछले कुछ दिन बहुत एक्शन भरे रहे हैं. विधानसभा चुनाव में एक महीने से भी कम समय बचा है, और ऐसे में योगी आदित्यनाथ मंत्रिमंडल में तीन शीर्ष मंत्रियों समेत कई नेताओं के इस्तीफे ने हताश भाजपा को डैमेज कंट्रोल की स्थिति में ला दिया है.

इस्तीफा देने वाले सभी नेताओं ने भाजपा पर दलितों, पिछड़े वर्ग, किसानों और बेरोजगार युवाओं की उपेक्षा करने का आरोप लगाया है.

भाजपा को अब न केवल इस निगेटिव पीआर और किसानों के आंदोलन के कारण पहुंचे नुकसान से उबरना है बल्कि चुनाव में अगड़ी और पिछड़ी जातियों के बीच द्वंद्व को लेकर जमीनी स्तर पर उभरी चिंताओं से भी निपटना है.

यह पूरा घटनाक्रम भाजपा के लिए अतीत याद दिलाने वाला जैसा है, क्योंकि समाजवादी पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव इस बार भाजपा को उसी की सियासी चालों से मात देने में जुटे है—पार्टी को मजबूत करने के लिए चुनाव से ऐन पहले दूसरे दलों के नेताओं को पार्टी में शामिल करना.

पिछले कुछ दिनों का घटनाक्रम किसी फिल्मी पटकथा से कम नहीं है: विधायकों की तरफ से लगभग एक जैसी भाषा में लिखे गए इस्तीफे महज कुछ घंटों के अंतराल के भीतर सोशल मीडिया पर नजर आने लगे, जिसके बाद अखिलेश यादव मंत्री/विधायक की तस्वीर के साथ उनके सपा में आने का स्वागत करते हुए ट्वीट किए. इसके साथ जंग के उद्घोष की तर्ज पर हैशटैग ‘मेलाहोब’ का इस्तेमाल किया गया. सबसे बड़ी बात ये सब ऐसे समय हो रहा था जबकि उसी दिन भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व विधानसभा चुनाव की रणनीति पर चर्चा करने और उम्मीदवारों के नामों को अंतिम रूप देने में व्यस्त था.

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ऑनलाइन इस्तीफों के बाद भाजपा ने अपने इन नेताओं से संपर्क साधने के प्रयास भी सोशल मीडिया पर किए. ये जिम्मेदारी उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य को दी गई कि नेताओं से अपने फैसले पर पुनर्विचार की अपील करें. इस सबने उत्तर प्रदेश की भाजपा इकाई को दिप्रिंट में न्यूजमेकर ऑफ द वीक बनाया.

…जब इस्तीफों की झड़ी लग गई

11 से 13 जनवरी के बीच 72 घंटों की अवधि में उत्तर प्रदेश में सहयोगी पार्टी अपना दल के दो विधायकों के अलावा भाजपा के दस विधायकों—जिसमें आदित्यनाथ कैबिनेट के तीन मंत्री शामिल हैं—ने पार्टी छोड़ दी.

भाजपा से इस्तीफा देने वाले दस विधायकों में एक समानता यह थी कि वे सभी दूसरे दल से भाजपा में आए थे—नौ बहुजन समाज पार्टी (बसपा) से और एक कांग्रेस से. इस कदम ने भाजपा के अंदर ही कई लोगों को यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि क्या पार्टी की ‘इंपोर्ट’ नीति अब काम नहीं कर रही है. उदाहरण के तौर पर 2021 के पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव बाद कई भाजपा नेताओं के तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) में लौटने की कतार लग गई थी.

यूपी भाजपा में भगदड़ का सिलसिला प्रभावशाली ओबीसी नेता और मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य के इस्तीफे के साथ शुरू हुआ, उसके बाद उसी दिन उनके करीबी तीन विधायकों—भगवती सागर, रोशन लाल वर्मा और बृजेश प्रजापति—ने पार्टी छोड़ दी. इसके ठीक बाद, राज्य मंत्री दारा सिंह चौहान और विधायक अवतार सिंह भड़ाना भी इसी राह पर चल पड़े. गुरुवार को यूपी के एक और मंत्री धर्म सिंह सैनी और तीन भाजपा विधायकों विनय शाक्य, मुकेश वर्मा और बाला अवस्थी ने पार्टी छोड़ दी.

एक के बाद एक इस्तीफों ने आदित्यनाथ सरकार के कामकाज और उनके नेतृत्व दोनों पर सवालिया निशान लगा दिए. भाजपा छोड़ने वालों ने न केवल पार्टी को पिछड़ा विरोधी करार दिया, बल्कि आदित्यनाथ सरकार की तरफ से उनके जैसे नेताओं की उपेक्षा किए जाने का मुद्दा भी उछाला.

भाजपा नेतृत्व का असमंजस बढ़ा

ताजा घटनाक्रम के दूरगामी नतीजों पर टिप्पणी करते हुए भाजपा के एक वरिष्ठ नेता ने आगाह किया है कि यदि यह मुद्दा जल्द नहीं सुलझाया गया तो इस्तीफों को लेकर संभवत: यह धारणा बन सकती है कि भाजपा केवल ‘प्रभावशाली जाति’ का हित ही ध्यान में रखती है. इससे चुनाव लड़ने का पूरा तरीका ही बदल सकता है.

भाजपा ने 2017 के चुनाव में 403 सदस्यीय उत्तर प्रदेश विधानसभा में 303 सीटें जीती थीं.

माना जाता है कि जिन नेताओं ने इस्तीफा दिया है, उनका अपनी गैर-यादव ओबीसी जातियों के बीच अच्छा-खासा दबदबा है. चुनावी लिहाज से यह तथ्य बेहद अहम है क्योंकि 2017 के चुनाव में भाजपा की शानदार जीत का श्रेय गैर-यादव ओबीसी वोटबैंक के समर्थन को ही दिया जाता है. तीन ओबीसी मंत्रियों के समाजवादी पार्टी में शामिल होने और ओ.पी. राजभर के नेतृत्व वाली सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (एसबीएसपी) के पहले ही उसके साथ गठबंधन कर लेने के मद्देनजर भाजपा को अपनी रणनीति पर पुनर्विचार करने की जरूरत है. भाजपा अब तक 2022 के विधानसभा चुनाव में यूपी में 325 सीटें जीतने का दावा करती रही है.

भाजपा के लिए आगे की राह थोड़ी कठिन हो गई है, जैसा कि खुद पार्टी नेताओं का दावा है कि किसान आंदोलन ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पार्टी की संभावनाओं पर खासा प्रतिकूल असर डाला है. नेताओं ने कहा कि हालांकि, नरेंद्र मोदी सरकार ने एक साल चले विरोध प्रदर्शन के बाद तीनों कृषि कानूनों को निरस्त तो कर दिया है, लेकिन इसे लेकर पार्टी के प्रति किसानों की नाराजगी खत्म होना अभी बाकी है.

भाजपा के कई नेताओं का मानना है कि फिलहाल एक जवाबी रणनीति तैयार करने का समय है, जिसमें समाजवादी पार्टी के नेताओं को पार्टी में लाना शामिल है (कुछ पहले ही शामिल हो चुके हैं). नाम न छापने की शर्त पर भाजपा के एक वरिष्ठ नेता ने कहा, ‘जिन लोगों ने इस्तीफा दिया वे मौर्य के सहयोगी थे इसलिए उन्हें तो वैसे भी जाना ही था. उनमें से कुछ को टिकट भी नहीं मिलना था. यह राजनीतिक अवसरवाद के अलावा और कुछ नहीं है और जनता यह बात अच्छी तरह समझती है. इस सबके बावजूद भाजपा की जीत तय है.’

भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता आर.पी. सिंह ने कहा, ‘जिन नेताओं ने इस्तीफा दिया है, उन्हें ऐसे संकेत मिल रहे थे कि इस चुनाव में उन्हें टिकट नहीं मिलेगा. वहीं कई लोग अपने बच्चों और परिजनों के लिए टिकट चाहते थे, जो भाजपा में नहीं होता है. उन्होंने पार्टी पर दलितों, ओबीसी और युवाओं की अनदेखी का आरोप लगाया है. लेकिन यह बात कहने के लिए वे अब तक इंतजार क्यों कर रहे थे? यह राजनीतिक अवसरवाद के अलावा और कुछ नहीं है.’

इन तमाम इस्तीफों के बीच भाजपा के लिए थोड़ी राहत देने वाली बात यह जरूर रही कि सहारनपुर के बेहट से कांग्रेस विधायक नरेश सैनी और फिरोजाबाद के सिरसागंज से समाजवादी पार्टी के विधायक हरिओम यादव समाजवादी पार्टी के पूर्व विधायक धर्मपाल यादव के साथ नई दिल्ली में पार्टी में शामिल हुए. पार्टी ने डैमेज कंट्रोल भी शुरू कर दिया है. इसके तहत वरिष्ठ नेताओं को असंतुष्टों से संपर्क साधने और उनकी शिकायतों को सुनने की जिम्मेदारी सौंपी गई है.

(व्यक्त विचार निजी हैं.)


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