वजूद की लड़ाई लड़ रही कांग्रेस ने अब प्रियंका वाड्रा को सीधे सक्रिय राजनीति में उतारकर ऐसा पत्ता चला है जिसे एक तरह से तुरुप का पत्ता ही कहा जा सकता है. अब अगर यह प्रियंका सफल नहीं होती हैं, तो कांग्रेस के पास पुनर्वापसी का कोई और विकल्प नहीं बचेगा.
हालांकि, कांग्रेस का ये कोई सहज फैसला नहीं है, और अगर सपा-बसपा गठबंधन में कांग्रेस को कुछ ज्यादा सीटें देते हुए उचित जगह मिल जाती तो प्रियंका शायद ही सक्रिय राजनीति में उतरतीं.
हालांकि प्रियंका वाड्रा के पास केवल अपने नाम के अलावा, कोई रोडमैप या राजनीतिक समझ भी अभी तक देखने को नहीं मिली है, जिसके बल पर कांग्रेस कुछ उम्मीद कर सके. और फिर प्रियंका उत्तर प्रदेश के लिए कोई नया-नवेला राजनीतिक फैक्टर नहीं है. वे पिछले कई लोकसभा और विधानसभा चुनावों में पार्टी के लिए प्रचार कर चुकी हैं. वे अमेठी और रायबरेली आती-जाती भी रहती हैं. हालांकि वे ऐसा चुनाव के आसपास ही करती हैं.
कांग्रेस ने उठाया बड़ा खतरा
एक तरह से कांग्रेस ने बहुत बड़ा खतरा भी उठाया है क्योंकि अभी तक ये माना जाता था कि अगर राहुल गांधी कांग्रेस को नहीं संभाल पाते तो आगे चलकर कभी न कभी प्रियंका इस पार्टी की बागडोर संभाल सकती हैं. इस तरह से कांग्रेस के पास एक बड़ा राष्ट्रीय विकल्प था, जिसे अब कांग्रेस केवल एक राज्य के एक हिस्से के लिए आजमा रही है.
प्रियंका को सक्रिय राजनीति में उतारना इस सोच पर आधारित है कि वे करिश्माई नेता साबित होंगी और कम से कम उत्तर प्रदेश में ऐसी लहर पैदा करने में सफल होंगी जिसमें न तो संगठन की बहुत ज्यादा जरूरत पड़ेगी और न ही दमदार प्रत्याशियों की.
ध्यान देने की बात ये है कि कांग्रेस इन दोनों ही मोर्चों पर कम से कम उत्तरप्रदेश में खाली हो चुकी है. 2014 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस ने अमेठी और रायबरेली में जीत हासिल की. इसके अलावा सिर्फ 5 सीटों पर ही वह दूसरे नंबर पर रह सकी थी. महत्वपूर्ण बात है कि प्रियंका गांधी ने उस चुनाव में जमकर प्रचार किया था. 2017 में तो प्रियंका गांधी के प्रचार के बावजूद कांग्रेस की भारी दुर्गति हुई और वह सात सीटों पर सिमट गई. वह अमेठी और रायबरेली में ज्यादातर सीटें हार गई.
यहां यह भी ध्यान रखना चाहिए कि 2018 में फूलपुर और गोरखपुर की लोकसभा सीटों के उपचुनावों में सपा-बसपा गठबंधन के सामने उसके प्रत्याशियों को अगंभीर निर्दलीय प्रत्याशियों के बराबर ही वोट मिल पाए थे.
2012 में राहुल भी साख दांव पर लगा चुके हैं
वैसे 2012 के विधानसभा चुनावों में एक तरह से राहुल गांधी ने भी अपनी पूरी साख उत्तरप्रदेश में दांव पर लगाई थी और मुंह की खाई थी. शायद इसी का नतीजा रहा कि 2014 लोकसभा चुनाव में उनके नेतृत्व को बिलकुल गंभीरता से नहीं लिया गया और कांग्रेस 44 सीटों पर सिमट गई थी.
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अब फर्क केवल इतना आया है कि गुजरात विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने हारते हुए भी भाजपा को ठीक-ठाक टक्कर दी. कर्नाटक में अपनी सरकार गंवाते हुए, तीसरे नंबर पर रहने वाली पार्टी जेडीएस को मुख्यमंत्री पद देकर, भाजपा को सत्ता से दूर रखा. मध्यप्रदेश में वोट प्रतिशत में पिछड़ते हुए भी किसी तरह से सरकार बना ली. राजस्थान में भी जैसे-तैसे बहुमत पूरा कर लिया. छत्तीसगढ़ में भाजपा को पूरी तरह से परास्त कर दिया.
हालांकि, राहुल गांधी का व्यक्तिगत करिश्मा इसमें कहीं नहीं दिखा, लेकिन भाजपा से लोगों का मन उचाट होने का फायदा मिल गया और बारीक अंतर से कांग्रेस को सीमित सफलता मिलने लगी.
हर हाल में यूपी में पैर जमाने में जुटी कांग्रेस
अब कांग्रेस इसमें उत्तरप्रदेश को भी जोड़ना चाहती है, जहां सपा-बसपा का गठबंधन उसकी राह में सबसे बड़ा संकट खड़ा कर रहा है. कांग्रेस हर हाल में इस राज्य में अपने को मुख्य लड़ाई में दिखाना चाहती है क्योंकि सफलता भी उसे तभी मिल सकती है.
उत्तरप्रदेश में बड़ी सफलता पाना कांग्रेस के लिए इसलिए भी जरूरी है क्योंकि अगर 2019 में अगर गैर भाजपाई दल केंद्र में सरकार बनाने की स्थिति में आते भी हैं तो बिना उत्तरप्रदेश में बड़ी सफलता के कांग्रेस की स्थिति बहुत ताकतवर नहीं हो सकती.
बहुत संभव है कि ममता बनर्जी, चंद्रशेखर राव, नवीन पटनायक, अखिलेश यादव और मायावती मिलकर, कांग्रेस को प्रधानमंत्री पद पाने से रोक दें. ऐसा होने पर भाजपा को सत्ता से दूर रखने की अनिवार्यता के चलते कांग्रेस कोई बहुत ज्यादा दांव-पेंच नहीं चल पाएगी और गैर भाजपाई-गैर कांग्रेसी गठबंधन की भावी सरकार को बाहर से या अंदर से समर्थन देने पर मजबूर हो जाएगी.
प्रियंका में कितनी हैं संभावनाएं
अब सवाल ये है कि प्रियंका आखिर कितना कुछ कर पाएंगी. वैसे कांग्रेस ने पूर्वी उत्तरप्रदेश और पश्चिमी उत्तरप्रदेश के संगठन को पहली बार इस तरह से विभाजित किया है. अभी तय नहीं है कि किस हिस्से में कितनी सीटें रहेंगी, लेकिन पूर्वी उत्तरप्रदेश में आमतौर पर जो हिस्सा माना जाता है, उसमें कांग्रेस कमजोर ही है.
प्रियंका वाड्रा के पास केवल अपने नाम के अलावा, कोई रोडमैप या राजनीतिक समझ भी अभी तक देखने को नहीं मिली है, जिसके बल पर कांग्रेस कुछ उम्मीद कर सके. कांग्रेस को एकमात्र यही उम्मीद है कि प्रियंका को देखकर, जनता इंदिरा गांधी और राजीव गांधी को याद करने लगेगी और भावुक होकर कांग्रेस को वोट कर देगी.
यहां पर एक बड़ा सवाल है, जिसका जवाब कांग्रेस के पास नहीं है. अगर प्रियंका पूर्वी उत्तरप्रदेश में ऐसी लहर पैदा कर सकती हैं तो बाकी देश में क्यों नहीं कर सकतीं? आखिर पूर्वी उत्तरप्रदेश की वे कोई खास जानकार तो हैं नहीं, और जनता के भावुक होने का सवाल है तो वह पूरे भारत की जनता ही समान मानसिकता की होती है.
केवल एक हिस्से की जिम्मेदारी क्यों
आखिर प्रियंका को राष्ट्रीय स्तर पर या कम से कम पूरे यूपी की जिम्मेदारी क्यों नहीं सौंपी जा रही है, ये भी एक बड़ा सवाल है. आम समझ ये है कि प्रियंका की तरफ से कुछ नेताओं की टीम रहेगी जो पर्दे के पीछे काम करेगी और प्रियंका का नाम चलेगा, लेकिन ऐसा क्या पूरे यूपी में, या पूरे देश में नहीं हो सकता था?
बेशक प्रियंका के पास जमीनी स्तर पर उतरने और लोगों से जुड़ने का विकल्प है, लेकिन एक तो वो जेड प्लस सिक्योरिटी में रहने वाली नेता हैं जिनसे आम जनता की सीधे मुलाकात हो नहीं पाती. उनकी आम जनता से जो अचानक मुलाकातें प्रचारित की जाती हैं, वो वास्तव में प्रायोजित और पूर्व नियोजित ही तो होती हैं.
एक बड़ी चुनौती यह भी है कि क्या इंदिरा गांधी और राजीव गांधी लोगों की स्मृतियों में अब तक उस तरह से छाए हैं कि प्रियंका को देखते ही वो कांग्रेस को वोट दे दें. कांग्रेस के मौजूदा राष्ट्रीय अध्यक्ष भी तो आखिर प्रियंका वाड्रा के भाई ही हैं, लेकिन उन्हें तो ये भावनात्मक लाभ नहीं मिला तो प्रियंका को मिलने की क्या गारंटी है?
प्रियंका के सक्रिय राजनीति में उतरने पर सबसे ज्यादा तकलीफ भाजपा को ही हुई है, लेकिन इससे भी यही साबित होता है कि उसे भी यही लग रहा है कि प्रियंका के आने से उसके वोटों में ही बंटवारा होगा. सपा-बसपा गठबंधन तो अंदर ही अंदर यह चाह ही रहा है कि कांग्रेस भाजपा के ज्यादा से ज्यादा वोट काटे.
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बहुत संभव है कि यूपी में किसी नामी नेता की कमी से जूझ रही कांग्रेस ने दूरगामी राजनीति के चलते प्रियंका को सक्रिय करने का फैसला किया हो. अगर ऐसा है तब तो जरूर प्रियंका को अच्छी-खासी ट्रेनिंग मिल सकती है, लेकिन तात्कालिक सफलता की उम्मीद कांग्रेस को नहीं करनी चाहिए.
(लेखक वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक हैं.)