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Friday, 26 April, 2024
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सपा-बसपा गठबंधन के बाद कितनी सुरक्षित है योगी की कुर्सी

उत्तरप्रदेश में सपा और बसपा के बीच गठबंधन होने से भाजपा पर मंडरा रहा खतरा मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की ओर भी मुड़ सकता है.

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गोरखपुर, फूलपुर और कैराना के लोकसभा उपचुनावों से उत्तर प्रदेश में जो भाजपा विरोधी गठबंधन की हवा बनी थी, वह अब मूर्त रूप में सामने चुकी है. इसके साथ ही भाजपा गहरे संकट में फंसती दिख रही है. इन तीनों सीटों पर बीजेपी की हार से ये जाहिर हुआ था कि यूपी में सपा और बसपा के एकमुश्त वोट से मुकाबला कर पाना बीजेपी के लिए आसान नहीं है. भाजपा के रणनीतिकारों को इसकी आशंका तो थी कि सपा और बसपा चुनाव से पहले एक साथ आ जाएंगे, लेकिन वे कहीं न कहीं ये उम्मीद पाले थे कि सीटों के बंटवारे या नेतृत्व की लड़ाई को लेकर शायद सपा और बसपा का गठबंधन न बन पाए.

दबाव के आगे नहीं झुके अखिलेश और मायावती

सीबीआई के जरिए सपा और बसपा पर दबाव डालने की रणनीति भी अपनाई गई, और एक समय ये लगने लगा था कि शायद यह दबाव काम भी आ जाए क्योंकि हाल ही के 5 राज्यों के विधानसभा चुनावों में मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में सपा और बसपा ने कांग्रेस से गठबंधन नहीं किया था, जबकि ये गठबंधन तीनों के लिए फायदेमंद होता.

ऐसा माना जाने लगा था कि बसपा और सपा ने शायद भाजपा के दबाव में ही कांग्रेस से गठबंधन नहीं किया है, इसलिए भाजपा समर्थकों को ये उम्मीद थी कि यूपी में भी सपा और बसपा भाजपा को संकट में डालने वाले किसी गठबंधन से बचेगी.

बहरहाल, अखिलेश यादव और मायावती आखिरकार एक साथ सामने आए, मोदी और योगी सरकार पर तीखे हमले किए, और उत्तरप्रदेश की 38-38 सीटों पर लड़ने का ऐलान कर डाला.

गठबंधन का ऐलान होते ही, भाजपा समर्थकों के साथ-साथ बुद्धिजीवियों का एक हिस्सा भी सदमे में आ गया. गठबंधन को बेमेल और अस्थायी बताने की कोशिशें शुरू हो गईं, लेकिन इस सच्चाई से इनकार करना सबके लिए मुश्किल हो रहा है कि ये गठबंधन कम से कम यूपी में तो भाजपा को गंभीर नुकसान करने जा रहा है.

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गठबंधन का ऐलान होते ही बदला विमर्श

अब चर्चा इस बात पर होने लगी है कि 2014 में यूपी में 80 में से 73 सीटें जीत चुके एनडीए को 2019 के लोकसभा चुनाव में कितना नुकसान होगा.

गठबंधन न भी होता, तब भी बड़े से बड़े भाजपा समर्थक को पिछला प्रदर्शन दोहराए जाने की उम्मीद नहीं थी. बहुत आशावादी सोच रखने वाले भाजपाई भी अधिक से अधिक 60 सीटें जीतने की उम्मीद लगाए थे.

अब चर्चा इस पर हो रही है कि भाजपा को पिछली बार की तुलना में 25 सीटों का नुकसान होगा, या 35 का या 50 का, या इससे भी ज्यादा का. कुछ लोग तो इस नुकसान को 60 और 65 सीटों तक का मानकर चल रहे हैं.

क्या है भाजपा की तैयारी

अब भाजपा की तैयारी की बात करें, तो पहला सवाल यह उठता है कि क्या भाजपा उत्तरप्रदेश से होने वाले इस नुकसान को सहने के लिए तैयार है?

इसका जवाब न है, क्योंकि इसमें कोई शक नहीं रह गया है कि 2014 की तुलना में, उसे गुजरात, कर्नाटक, मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, हरियाणा, बिहार, झारखंड और दिल्ली में भी नुकसान ही हो रहा है. यूपी में होने वाला ये भारी नुकसान उसे केंद्र की सत्ता से हर हाल में बाहर ढकेल सकता है.

दूसरा सवाल यह उठता है कि भाजपा के पास क्या इस नुकसान को रोकने का कोई विकल्प है, या क्या वह कोई रास्ता निकाल सकती है?

इस सवाल के पहले हिस्से का उत्तर तो सकारात्मक नहीं है क्योंकि फिलहाल उसके पास इस गठबंधन की कोई काट नहीं है. गठबंधन को होने से रोक देना अब उसके लिए संभव नहीं है.

सुहेलदेव पार्टी या विभाजित हो चुके अपना दल से भाजपा का गठबंधन कहीं से भी सपा-बसपा गठबंधन के सामने टिकता नहीं दिखता, और यूपी में कोई और दल ऐसा बचा नहीं है जिसके साथ आने की भाजपा उम्मीद कर सके. आसार तो ये भी हैं कि सही विकल्प मिले तो एनडीए के दल भी एनडीए से बाहर निकल जाएंगे.

इस सवाल के दूसरे हिस्से का उत्तर जरूर सकारात्मक हो सकता है. यह नहीं माना जा सकता है कि भाजपा इस गठबंधन से निपटने की कोई जुगत नहीं सोचेगी.

अब गठबंधन से पैदा होने वाले खतरे से निपटने के लिए सबसे पहली निगाह जाती है तो मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पर ही जाती है, और इसीलिए उनकी कुर्सी खतरे में जाती दिख रही है.

क्या कर सकती है भाजपा?

दरअसल, भाजपा को पूरे देश में भी, लेकिन खासकर उत्तरप्रदेश में पूरा राजनीतिक माहौल बदलने की जरूरत है. योगी आदित्यनाथ किसी भी तरह से अपनी छाप नहीं छोड़ पाए हैं. लॉ एंड ऑर्डर से लेकर, प्रशासनिक चुस्ती-फुर्ती तक का अभाव राज्य में दिखने लगा है, स्कूलों से लेकर अस्पतालों तक की बदहाली आम चर्चा का विषय बन चुकी है.

सांप्रदायिक माहौल पैदा करना भाजपा के लिए फायदेमंद हो सकता था, लेकिन योगी आदित्यनाथ की सरकार की ये कोशिश भी नाकाम रही, और सपा-बसपा के मेल के बाद से तो इसकी संभावना एकदम खत्म हो गई है. भाजपा अब एक प्रयास यही कर सकती है कि उत्तरप्रदेश में किसी अन्य नेता को, खासकर किसी पिछड़े वर्ग के नेता को मुख्यमंत्री बना दे, ताकि उसकी सरकार की असफलताएं नए मुख्यमंत्री की आड़ में छिप जाएं.

एक फायदा उसे यह भी हो सकता है कि जिस जाति का मुख्यमंत्री वह बनाएगी, उसके वोट उसके सवर्ण वोटों के साथ पूरी मुस्तैदी से जुड़ जाएंगे, और उसका नुकसान कुछ कम हो सकता है.

क्यों हो सकता है योगी को खतरा

मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को बदले जाने की खबरें गोरखपुर, फूलपुर और कैराना के उपचुनावों के नतीजों के बाद भी शुरू हुई थीं. आखिर, मुख्यमंत्री रहते हुए, अपनी ही खाली की गई लोकसभा सीट हार जाना कोई सामान्य बात नहीं थी.

उस समय, शायद योगी आदित्यनाथ को इस बात का फायदा मिल गया कि मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदार माने जाने वाले उनके प्रतिद्वंद्वी केशव प्रसाद मौर्य भी अपनी खाली की गई सीट फूलपुर को नहीं बचा पाए थे.

अंदरखाने की बात यह भी थी कि भाजपा के प्रदेश संगठन मंत्री सुनील बंसल अपने हिसाब से सत्ता पर परोक्ष कब्जा कर चुके थे, और मुख्यमंत्री पद पर किसी तरह का बदलाव उनके अनुकूल नहीं माना गया.

ये कारण अब भी मौजूद हैं, लेकिन जब सामने हार स्पष्ट दिख रही हो, तब सबको प्रसन्न करने वाला विकल्प ढूंढ़ पाना किसी के लिए भी मुश्किल होता है. आखिर, जब योगी को सीएम बनाया गया था, तब भी बहुत से लोग नाराज हुए ही थे.

कितना कारगर हो सकता है नया मुख्यमंत्री

योगी को बदलने से यह फायदा हो सकता है कि नए मुख्यमंत्री की एकदम से आलोचना कर पाना विपक्षी दलों के लिए कुछ कठिन हो जाएगा, और जब तक वे उसकी आलोचना के मुद्दे तलाशेंगे, तब तक लोकसभा चुनाव निपट चुके होंगे.

नया मुख्यमंत्री कुछ ताबड़तोड़ लोकप्रिय फैसले लेकर, और प्रशासनिक चुस्ती दिखाकर भी राजनीतिक हवा बदलने की कोशिश कर सकता है. इसलिए भी यह विकल्प भाजपा को रास आ सकता है.

वैसे, ये उपाय ऐसा नहीं है कि जिसकी सफलता की कोई गारंटी ही हो, लेकिन मौजूदा हालात में हाथ पर हाथ धरे बैठने, और हार का इंतजार करने से बेहतर तो यही होगा कि वह कुछ तो बदलाव लाने की कोशिश करे. ऐसे में योगी आदित्यनाथ को बदलने पर बीजेपी में विचार किया जा सकता है.

(लेखक वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक हैं.)

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