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Thursday, 2 May, 2024
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भारत के भविष्य की जनसंख्या के ट्रेंड कई डिवीजन की चेतावनी देते हैं, इसलिए शासन में बदलाव की जरूरत है

जन्मदर में गिरावट के कारण आबादी का स्वरूप बदलेगा और नई चुनौतियां पैदा होंगी जिनका शहरीकरण को बढ़ावा देकर और कई तरह की खाइयों को पाट कर ही सामना किया जा सकता है.

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कोविड-19 जिस रफ्तार से लगातार फैल रहा है उसे देखते हुए लगता है कि हर दस साल पर होने वाली जनगणना समय पर शायद ही हो पाएगी. इसके बावजूद, राष्ट्रीय जनसंख्या आयोग की टेक्निकल कमिटी के मुताबिक 1 मार्च 2021 को हमारी आबादी करीब 1.36 अरब होगी. संयुक्त राष्ट्र द्वारा अनुमानित आंकड़ा प्रायः भारत की अधिकृत जनगणना के आंकड़े से 4 करोड़ ज्यादा होता है.

जो भी हो, भारत 2011-21 के दशक में अपनी आबादी में 15 करोड़ की बढ़ोतरी कर लेगा. 1971-81 के दशक के बाद से यह न्यूनतम कुल वृद्धि होगी. अगर आंकड़ा ऐसा ही रहा तो या 12.6 प्रतिशत की वृद्धि होगी, जो 1970 और 1980 के दशकों की वृद्धि दरों की बमुश्किल आधी है. प्रति महिला शिशु प्रजनन (कुल प्रजनन दर) जबकि 2.2 प्रतिशत के आंकड़े से नीचे या ‘रिप्लेसमेंट रेट’ के लगभग बराबर पहुंच गया है, भारत ने जनसंख्या नियंत्रण के मामले में एक अहम टीले को पार कर लिया है.

ऐसी स्थिति रही तो देश आबादी के मामले में चीन से (जिसकी आबादी 1.44 अरब है) एक और दशक के बाद, बल्कि पहले के अनुमानों से बहुत बाद तक भी आगे नहीं निकलेगा. भारत की आबादी 1.6 अरब के अधिकतम आंकड़े को इस सदी के बाद ही छूएगा और उसके बाद इस आंकड़े का ग्राफ नीचे की ओर जाने लगेगा. यह 2060 तक 1.72 अरब पर पहुंचने के अंतरराष्ट्रीय अनुमानों के करीब है, जिसे संजीव सान्याल (अभी वित्त मंत्रालय में) और दूसरों की आपत्ति के बाद घटाकर 1.65 अरब किया गया. उम्मीद है कि इसमें और संशोधन करके इसे कम किया जा सकता है.

इन सबके प्रभावों पर विचार किया जाना चाहिए. जन्मदर में गिरावट के कारण हर साल स्कूल जाने वाले नये बच्चों का झुंड 2.5 करोड़ से छोटा होने लगा है. दूसरी तरफ, बुज़ुर्गों (सीनियर सिटीजन्स) की संख्या तेजी से बढ़ेगी. अब हमें कम स्कूलों मगर ज्यादा अस्पतालों, धर्मशालाओं और ओल्ड-एज होम्स की जरूरत पड़ेगी.


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इसके बाद शहरों में उभरने वाली चुनौतियों की बारी आएगी. दक्षिण और पश्चिम में आधी आबादी 16 साल में शहरी हो जाएगी. इसलिए शहरों के प्रशासन को ज्यादा अधिकार देना ज्यादा समय तक टाला नहीं जा सकता. इसलिए, अगर पश्चिमी देशों के बड़े शहरों की तरह यहां भी मेयरों के प्रत्यक्ष चुनाव की व्यवस्था लागू की जाए तो कई शहरों के प्रशासनिक प्रमुख मुख्यमंत्रियों जितने महत्वपूर्ण हो जाएंगे. जाहिर है, राज्य सरकारें इसका प्रतिरोध करेंगी. शहर-केन्द्रित दलों (जैसी कि शिवसेना कभी थी) के उभरने के कारण नीचे से दबाव बढ़ेगा. केंद्र को बदलाव के लिए ऊपर से दबाव बनाना चाहिए.

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इसके साथ ही, शहरों के नियोजन और प्रबंधन की बुनियादी धारणाओं को भी बदलना होगा. बड़ी आबादी की आवाजाही के सुविधा के लिए शहरों के फैलाव से ज्यादा उनकी सघनता पर ज़ोर देना होगा; अलग-अलग ज़ोन की जगह मिक्स्ड यूज एरिया बनाने होंगे ताकि रोज आवाजाही की दूरियों को कम किया जा सके; विकास के लिए साधन जुटाने के वास्ते प्रॉपर्टी टैक्स को तर्कसंगत बनाना होगा; बिल्डर खेमे पर लगाम कसते हुए खुले सार्वजनिक स्थलों और संस्थाओं के लिए व्यवस्था करनी होगी; जमीन का दुरुपयोग करने वाली इमारतों से संबंधित नियमों को रद्द करना होगा. प्रदूषण पर नियंत्रण के लिए घरेलू उपक्रमों से बड़े मैनुफैक्चरिंग उद्योगों को शहरों से बाहर भेजना होगा. कोलकाता जैसे महानगर-केंद्रित बंदरगाहों को बंद करना होगा और कीमती रियल एस्टेट को शहर के विकास के वास्ते उपलब्ध कराना होगा.

इसके अलावा, उत्तर-दक्षिण में फर्क का भी मामला है. टेक्निकल कमिटी के मुताबिक, 2011-36 की चौथाई सदी में सभी दक्षिणी राज्य मिलकर देश की जितनी आबादी बढ़ाएंगे उसके 50 फीसदी के बराबर अकेले बिहार ही बढ़ाएगा. कुल आबादी में बिहार और उत्तर प्रदेश का हिस्सा 25 से बढ़कर 30 फीसदी हो जाएगा. और आबादी का आंकड़ा जिस दिशा में जाएगा, आमदनी का आंकड़ा उसकी ठीक उलटी दिशा में जाएगा. दक्षिण और पश्चिम में प्रति व्यक्ति आय का आंकड़ा इन दो प्रदेशों के इस आंकड़े से पहले ही तीन गुना ज्यादा है. यह फर्क और बढ़ ही सकता है, और ‘माइग्रेशन’ से आय-आबादी का यह फर्क कम नहीं होने वाला है. इसलिए, दो विशेष चुनौतियां उभरेंगी. राज्यों के बीच वित्तीय आवंटन का संकट बढ़ेगा, जिससे वर्तमान वित्त आयोग पहले ही जूझ रहा है.


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भविष्य में, संसद में प्रतिनिधित्व के स्वरूप में बदलाव का भी सामना करना पड़ेगा. अगर उत्तर-दक्षिण के बीच राजनीतिक खाई भी पैदा हो जाएगी (भाजपा उत्तर में हावी होगी और क्षेत्रीय दल दक्षिण में) तब हितों में अंतर के कारण विवाद बढ़ने का जोखिम पैदा होगा.

ऐसी नौबतें न आएं, इसके लिए अभी से तैयारी शुरू कर देनी चाहिए. उत्तर के राज्यों में शासन के स्तर में सुधार, और जातिवाद पर अंकुश बेहद जरूरी है. यह शहरीकरण से ही संभव है. नये शहर, नये औद्योगिक क्षेत्र, और उत्कृष्टता के केंद्र उभरने चाहिए. उत्तर प्रदेश को शायद तीन हिस्सों में बांटने की जरूरत है. आंतरिक क्षेत्रों को जोड़ने की व्यवस्था में सुधार जरूरी है. अब तक एक कल्पना ही रहे ‘कनवरजेंस’ को हकीकत बनाना होगा.


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(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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1 टिप्पणी

  1. मुसलिम जनसंख्या की चर्चा के बिना यह आलेख अधूरा व असंगत है । शिक्षित व समृद्ध मुसलमानों में भी शिक्षित हिन्दुओं की अपेक्षा जन्म दर अधिक है ।केरल इसका ज्वलंत उदाहरण है ।मुस्लिम जनसंख्या वृद्धि के क्या क्या दुष्परिणाम होंगे इस पर कोई कुछ भी चर्चा नहीं करता ।अभी भी मुसलमानों की वृद्धि दर हिन्दुओं से लगभग दो गुनी है ।और यह केवल गरीबी व अशिक्षा के कारण नहीं है, बल्कि उनका एक एजेंडा है । कोई भी सेकुलर लिबरल इस पर अपना मुँह नहीं खोलता ।

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