scorecardresearch
Saturday, 4 May, 2024
होममत-विमतकोविड-19 से निपटने के लिए भारत को दीर्घकालिक वित्तीय संकट के उपायों पर जोर देने की जरूरत है

कोविड-19 से निपटने के लिए भारत को दीर्घकालिक वित्तीय संकट के उपायों पर जोर देने की जरूरत है

कोविड-19 के कारण वित्तीय संकट तो अपरिहार्य ही है. दरअसल, कई लोग यह भी कहेंगे कि सरकार को अपने खजाने का दरवाजा थोड़ा और खोलना चाहिए था.

Text Size:

चालू वित्तीय वर्ष के लिए बजट के ताजा आंकड़े वित्तमंत्री जब भी संसद में पेश करेंगी. वित्तीय स्थिति पर कोविड-19 के तात्कालिक फौरी असर का खुलासा हो जाएगा और तब यह सारी बहस का केंद्र बन जाएगा. कोविड-19 के कारण वित्तीय संकट तो अपरिहार्य ही है. दरअसल, कई लोग यह भी कहेंगे कि सरकार को अपने खजाने का दरवाजा थोड़ा और खोलना चाहिए था. जो भी हो, हमारी चिंता का विषय (जो कोविड के शोर में ओझल हो सकता है) आर्थिक सुस्ती के कारण हाल के वर्षों में आई वित्तीय अवनति होना चाहिए. इसी के चलते सरकार कोविड संकट का पूरी तैयारी से मुक़ाबला नहीं कर पाई है.

समस्या आमदनी और खर्च दोनों मोर्चों पर पैदा हुई है. हाल के वर्षों में जीडीपी के अनुपात में राजस्व घटता गया है, जबकि तेल की कीमतों में गिरावट के कारण पेट्रोलियम से संबंधित सब्सिडी में भारी कमी आने के बावजूद खर्चे बढ़ते गए हैं. मूलतः, खर्च में वृद्धि ने नये जनकल्याण कार्यक्रमों के लिए कोश जुटाने की वित्तीय प्रतिबद्धताओं को उजागर किया है. खर्चों में वृद्धि को बजट से इतर ढकने की कोशिश की जाती रही है. मोदी सरकार के शुरू के दिनों में तो राजस्व और खर्च के बीच का फासला सिकुड़ रहा था, लेकिन इनका ग्राफ अब विपरीत दिशाओं में भाग रहा है और दोनों के बीच अंतर बढ़ रहा है. कोविड संकट से निपटने के लिए जो अल्पकालिक उपाय किए गए हैं, उनसे ज्यादा ज़ोर दीर्घकालिक वित्तीय संकट से निपटने के उपायों पर देने की जरूरत है.


यह भी पढ़ें : चीन को आर्थिक नुकसान पहुंचाना है तो ध्यान से निशाना साधना होगा, कहीं भारत खुद को ही न चोट पहुंचा ले


उदाहरण के लिए, अप्रत्यक्ष करों से आने वाले राजस्व के स्वरूप पर विचार करें, जो जीएसटी से पहले सीमा शुल्क, उत्पाद कर और सेवा कर के रूप में होता था. 2013-14 में इनका कुल योग जीडीपी के 4.4 प्रतिशत के बराबर था.

इसमें तेजी से वृद्धि हुई क्योंकि नयी सरकार ने तेल की कीमतों में तेज गिरावट का फायदा उठाते हुए पेट्रोलियम पर टैक्स को बढ़ा दिया था. तीन साल पहले जब जीएसटी लागू किया गया, जीडीपी में अप्रत्यक्ष करों का अनुपात बढ़कर 5.4 प्रतिशत पर पहुंच गया. चिंता की बात यह है कि यह अनुपात दो साल में गिरकर 4.9 और 4.8 प्रतिशत पर पहुंच गया.

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें

यह कोविड के हमले से पहले हो चुका था. इसी तरह, टैक्स से इतर राजस्व और पूंजीगत आमद भी जैसे चोटी से नीचे गिर पड़ी. 2013-14 में इन दोनों का जीडीपी में अनुपात 6.8 प्रतिशत था. लेकिन पिछले साल के संशोधित अनुमानों के मुताबिक यह अनुपात 4 प्रतिशत ज्यादा नहीं था. पूंजीगत आमद एक दशक में 7 प्रतिशत से गिरकर 2 प्रतिशत पर पहुंच गई. इससे जाहिर है कि दूसरी चीजों के अलावा, टेलिकॉम सेक्टर को अब और दूहा नहीं जा सकता और यह भी कि विनिवेश कार्यक्रम को आगे नहीं बढ़ाया जा सका है.

इसका नतीजा यह है कि सरकार की कुल प्राप्तियां जो एक दशक पहले अपने चरम पर, जीडीपी के 15.8 प्रतिशत के बराबर थीं, वे अब 12 प्रतिशत पर आ पहुंची हैं. राजस्व के मोर्चे पर एकमात्र अच्छी बात यह है कि प्रत्यक्ष करों- आयकर और कॉर्पोरेट टैक्स- में स्थिरता, बल्कि उछाल देखी गई है. वास्तव में, अप्रत्यक्ष करों वाले राजस्व में गिरावट जीएटीएस दरों में कटौतियों को (जिन्हें दरों के एकीकरण के साथ वापस लिया जा सकता है) जिस हद तक प्रतिबिम्बित करती है उसके मद्देनजर बड़ी समस्या कर राजस्व से संबंधित नहीं है, बल्कि राजस्व के दूसरे स्रोतों से जुड़ी है.


यह भी पढ़ें : देशों की सीमाएं गढ़ी हुई वास्तविकताएं होती हैं, वैश्विक राजनीति में इसे अप्रासंगिक नहीं बनाया जा सकता


कुछ समय के लिए खर्चों ने भी, जिन्हें पेट्रोलियम पर कम सब्सिडी देने से मदद मिली. जीडीपी के अनुपात में गिरावट दर्ज करके राजस्व वाला रास्ता पकड़ा. लेकिन अब खर्चे बढ़ने लगे हैं और यह स्थिति बजट से बाहर किए जा रहे खर्चों का हिसाब जोड़े बिना है. चूंकि नये कार्यक्रम (मसलन स्वास्थ्य बीमा, किसानों को नकद भुगतान आदि) शुरू किए गए हैं, खर्चों के मामले में भी लचीलापन घटा है.

सरकार ने बजट से बाहर की उछलकूद के अलावा, समस्या से निपटने के दो रास्ते चुने हैं. एक तो उसने रिजर्व बैंक और सरकारी उपक्रमों से बड़े लाभांशों की मांग की है. दूसरे, पेट्रोलियम पर टैक्स को और ज्यादा बढ़ाया है, जिसकी निंदा कांग्रेस ने की है. बहरहाल, कुल जो वित्तीय स्थिति है और लागत में वृद्धि के कारण होने वाली मुद्रास्फीति जिस तरह लगभग नदारद है उसके मद्देनजर यही रास्ता अपनाना मुफीद लगता है. जल्दी ही तीसरा तरीका यह अपनाया जा सकता है कि सरकारी बैंकों को पूंजी देने पर रोक लगा दी जाए, उनसे कहा जाए कि वे अपनी देखभाल खुद करें या निजीकरण के लिए तैयार रहें. अब यह कहना मुश्किल है कि ये दोनों उपाय कितने कारगर होंगे. लेकिन इससे यह तो अंदाजा मिलता ही है कि अब किस तरह के फैसले किए जा सकते हैं.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

share & View comments