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Friday, 3 May, 2024
होममत-विमतदेशों की सीमाएं गढ़ी हुई वास्तविकताएं होती हैं, वैश्विक राजनीति में इसे अप्रासंगिक नहीं बनाया जा सकता

देशों की सीमाएं गढ़ी हुई वास्तविकताएं होती हैं, वैश्विक राजनीति में इसे अप्रासंगिक नहीं बनाया जा सकता

आज के भारत के जिस नक्शे में पूरे अक्साई चीन को भारतीय क्षेत्र दिखाया गया है वह सबसे पहले 1950 के दशक में नेहरू के आदेश पर बनाया गया था. चीन के पास इस दावे का कोई ठोस ऐतिहासिक आधार नहीं था.

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सीमाओं को प्रायः अलंघनीय मान लिया जाता है. स्कूली छात्रों को अपने देश के नक्शे, आकार और प्रायः अपने इतिहास, भाषा, धर्म तथा (व्यापक तौर पर) संस्कृति के आधारों पर प्रमाणित भूगोल से परिचित करा दिया जाता है. ऐसा भारत में भी होता है, हालांकि प्रागैतिहासिक काल से इसे एक राष्ट्र-राज्य के रूप में नहीं बल्कि एक सांस्कृतिक सत्ता के रूप में देखा जाता रहा है. आदि शंकराचार्य ने 9वीं सदी में ‘देश’ के सभी कोनों की यात्रा करके भक्ति शिक्षण के केंद्र स्थापित किए थे. उस समय प्रायः पूरे दक्षिण भारत पर पल्लवों का शासन था, उत्तर में गुर्जर-प्रतिहारों की सत्ता थी लेकिन कहीं आने-जाने के लिए कोई पासपोर्ट-वीज़ा की जरूरत नहीं पड़ती थी.

राष्ट्र-राज्य की जहां तक बात है तो अधिकतर लोगों को पता नहीं है कि इसने कब और कैसे आकार ग्रहण किया. लोगों को यही पता है कि इसने 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में ‘भारतमाता’ के रूप में आकार लिया. उदाहरण के लिए, वैदिक भारत मूलतः देश का उत्तर-पश्चिमी भाग था. वैदिक काल के बाद के साम्राज्यों ने पूरब की ओर बिहार तक अपना विस्तार किया. और आज का जो उत्तर-पूर्वी भारत है वह अंग्रेजों द्वारा लड़ी गई लड़ाइयों के कारण बना. असम देश की सीमा के अंदर 1826 में तब आया जब ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1824 में बर्मा के राजा से एक खूनी लड़ाई के बाद उसे जीत लिया. दार्जिलिंग को 1835 में सिक्किम के चोग्याल से पट्टे पर लिया गया था ताकि वहां एक आरोग्य केंद्र बनाया जा सके.

सिक्किम के बड़े हिस्से पर नेपाल के गोरखों ने कब्जा कर रखा था, जिसे अंग्रेजों ने नेपाल से जीत कर चोग्याल को लौटा दिया था. कलिमपोंग और डूअर्स भूटान के साथ लड़ाई के बाद 1865 में दार्जिलिंग का हिस्सा बने. लेकिन आज वे भारत के अभिन्न हिस्से हैं, जैसे सिक्किम भी 1975 के बाद बन गया.


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सार यह कि सीमाओं को हम जितना मानते हैं उससे वे कहीं ज्यादा परिवर्तनीय होती हैं. आज के भारत के जिस नक्शे में पूरे अक्साई चीन को भारतीय क्षेत्र दिखाया गया है वह सबसे पहले 1950 के दशक के मध्य में तब बनाया गया था जब जवाहरलाल नेहरू ने उन सभी पुराने नक्शों को नष्ट कर देने का आदेश दिया था जिनमें सीमाओं को स्पष्ट नहीं (बल्कि अलग रंग में) दिखाया गया था. वैसी सीमा एक अंग्रेज़ अधिकारी ने 19वीं सदी में प्रस्तावित की थी मगर अंग्रेजों ने ही बाद में अक्साई चीन के करीब आधे हिस्से पर ही दावा किया. नेहरू ने एकतरफा फैसला करते हुए ज्यादा बड़ा दावा कर दिया. चीनियों के पास दावे का कोई ठोस ऐतिहासिक आधार नहीं था, क्योंकि शिंजियांग (जिसका अक्साई चीन आज एक प्रशासनिक हिस्सा है) का क्षेत्र पारंपरिक रूप से उत्तर में कुन लुन पहाड़ों तक ही है.

पूरब के अरुणाचल प्रदेश में तवांग मैकमोहन रेखा (जिस पर भारत कायम है) के दक्षिण में आ गया क्योंकि ‘वाटरशेड’ (पनढाल) के सिद्धांत को सुविधा के लिए भुला दिया गया. भारत ने आज़ादी के बाद चार साल तक यानि 1951 तक तवांग को अपने प्रशासनिक दायरे में शामिल नहीं किया था. उसने यह तब किया जब 1950 में चीनी सेना तिब्बत में घुस आई.

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यूरोप में इटली और जर्मनी 19वीं सदी का उत्तरार्द्ध शुरू होने तक अलग-अलग भौगोलिक इकाई नहीं थे. हरेक विश्व युद्ध के बाद यूरोप की सीमाएं बदलती गईं, सोवियत संघ के विघटन के बाद भी यह हुआ. और नेपोलियन ने अगर 1803 में मिसीसिपी के पूरब से थॉमस जेफरसन तक का क्षेत्र बेच न दिया होता तो अमेरिका की सीमाएं ‘समुद्र से लेकर शाइनिंग सागर तक’ न फ़ेल गई होतीं और उसका भौगोलिक आकार एक झटके में दोगुना न हो गया होता.


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जहां तक पश्चिम एशिया और अफ्रीका की बात है, यह जगजाहिर है कि साम्राज्यवादियों ने उनकी सीमाएं किस मनमानी से नक्शे पर लकीरें खींचकर तय कर डाली थीं और जनजातियों तथा उनके इलाकों की पहचान या दूसरे नियमों तक का सम्मान नहीं किया था. जाहिर है, इसके कारण पड़ोसियों में लंबे समय तक झगड़े चलते रहे और कुर्दों तथा पख्तूनों जैसे समुदायों को भटकना पड़ा. सीमाएं 21वीं सदी में भी बदल रही हैं. रूस ने क्रिमिया प्रायद्वीप पर और उन एनक्लेवों (हरेक देश के अपने ऐतिहासिक ‘तथ्य’ हैं) पर कब्जा कर लिया है जिनको लेकर कॉकस वाले लड़ रहे हैं. चीन ने दक्षिण चीन सागर में प्रवालद्वीपों को फौजी अड्डों में बदल दिया है.

इस सारे इतिहास से अगर कोई सबक मिलता है तो यह कि सीमाएं गढ़ी हुई वास्तविकताएं होती हैं, वे कोई स्वायत्त तथ्य नहीं हैं. ‘सीमाओं को बेमानी बनाकर’ ज़मीन के लिए लड़ाइयां बंद करने का जो हसीन सपना मनमोहन सिंह देखते हैं उसे एक ऐसी दुनिया में साकार कर पाना मुश्किल होता जा रहा है जिसमें आक्रमणों पर संस्थागत संयम कमजोर पड़ता जा रहा है और सत्ता का बेबाक खेल ही नया चलन बन गया है. लेकिन जरा सोचिए, ऐसा कब नहीं था ?

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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2 टिप्पणी

  1. मेरे को घोर आश्चर्य होता है जब भाषा के आधार पर बने राज्य भी सिर्फ एक राज्य के दो टुकड़े कर नया राज्य बना दिया जबकि उससे मिलते झूलते भाषा बल्ने वालो को शामिल नहीं किया गया उदाहरण के लिए पंजाब से अलग कर हरयाणा तो बना लेकिन मुज़्ज़रनगर ,शामली , बाघपत, मेरठ और मथुरा को शामिल नहीं किया गया जो न सिर्फ एक भाषा से जुड़े हैं बल्कि संस्कर्ति भी एक है।
    ऐसे ही कर्णाटक और महाराष्ट्र के बीच बेलगाम फंसा नज़र आता है। बुंदेलखंड भी मध्य प्रदेश और उत्तेर प्रदेश के बीच होने के कारण राज्य नहीं बन पा रहा।

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