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Friday, 29 March, 2024
होमइलानॉमिक्सकोविड-19 संकट के बीच अर्थव्यवस्था में जान डालने के लिए भारी-भरकम वित्तीय पैकेज की घोषणा ना करना मोदी सरकार की समझदारी है

कोविड-19 संकट के बीच अर्थव्यवस्था में जान डालने के लिए भारी-भरकम वित्तीय पैकेज की घोषणा ना करना मोदी सरकार की समझदारी है

सवाल यह है कि इस बड़े पैकेज के लिए पैसा कहां से आएगा? टैक्स से कमाई और घरेलू उधार में इस साल गिरावट ही आएगी इसलिए भारत को विदेश से उधार लेने के लिए तैयार होना पड़ेगा.

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भारत में वित्तीय पैकेज की मांग कई हलकों की ओर से तेजी से उठने लगी है. लेकिन अपने खर्चों में ख़ासी वृद्धि कर रहे विकसित देशों के विपरीत भारत सावधानी से कदम उठा रहा है और उसे ऐसा करना भी चाहिए. कोरोनावायरस को लेकर अनिश्चितता, लॉकडाउन को और आगे बढ़ाने की संभावना और टैक्स से होने वाली आमदनी में अपेक्षित गिरावट को देखते हुए भारत सरकार समझदारी का ही परिचय दे रही है.

इस साल आर्थिक वृद्धि और टैक्स से आमदनी को लेकर अनिश्चितता बनी रहेगी. केंद्रीय बजट में जिस 30 लाख करोड़ के अनुमानित खर्चों का प्रावधान किया गया है उसके लिए और कोविड के चलते घोषित वित्तीय पैकेज के लिए पैसा जुटाना एक बड़ी चुनौती है. कहा जा रहा है कि कल्याणकारी उपायों पर खर्चों में काफी वृद्धि की जानी चाहिए और उनके लिए जीडीपी के 5 प्रतिशत के बराबर राशि दी जानी चाहिए.

इस साल टैक्स से आमदनी घट सकती है. बजट के मुताबिक 8 लाख करोड़ से ज्यादा की राशि उधारों से हासिल करने और बजट के बाहर के लिए जिन उधारों की व्यवस्था हो रही थी वह सब इस साल घरेलू बचत में कमी के कारण खटाई में पड़ सकता है. जो लोग सरकार से अपने खर्चों को बढ़ाने की मांग कर रहे हैं उन्हें इस सवाल का जवाब भी ढूंढना पड़ेगा कि उनके लिए पैसे कहां से आएंगे? घरेलू बचत के बारे में वे क्या अनुमान लगा रहे हैं? भारत ने नोट छापने का फैसला किया और मुद्रास्फीति टैक्स लगा दिया, तो क्या वे इसे जीडीपी के एक या दो प्रतिशत से ज्यादा रखना चाहेंगे? विदेश से उधार भी जीडीपी से एक प्रतिशत तक ही ज्यादा लिया जा सकता है, वह भी तब जबकि वृद्धिदर धनात्मक बनी रहे.

भारत में लॉकडाउन तो 25 मार्च से शुरू हुआ मगर जीएसटी से आमदनी इससे एक महीने पहले से ही घटती जा रही थी. मार्च 2020 में जीएसटी के मद में जो उगाही हुई वह मार्च 2019 में हुई उगाही से 4 फीसदी कम थी. सामान के आयात से आमदनी में 23 फीसदी की कमी आई और जीएसटी से हुई आमदनी मार्च 2019 में हुई इस आमदनी से 8 प्रतिशत कम रही. पूरे अप्रैल महीने लॉकडाउन रहा इसलिए वित्त वर्ष 2020-21 के पहले महीने के लिए जीएसटी के जो आंकड़े जारी होंगे वे निश्चित ही और बुरे होंगे.

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2020-21 के लिए टैक्स से 16.3 लाख करोड़ के राजस्व प्राप्ति का जो महत्वाकांक्षी अनुमान लगाया गया वह पिछले वर्ष के 15 लाख करोड़ के राजस्व से बढ़ाकर रखा गया. यह कोविड के हमले से पहले के इस सोच पर आधारित था कि जीडीपी की वृद्धि दर 10 प्रतिशत रहेगी. लेकिन वायरस के हमले और लॉकडाउन के बाद वृद्धि दर और टैक्स उगाही भी नीची रहेगी. अर्थव्यवस्था अगर आंशिक लॉकडाउन में भी रही, तो सामान एवं सेवाओं के उत्पादन, व्यापार औए उपभोग में गिरावट आएगी. यानी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष करों— मसलन जीएसटी, कस्टम ड्यूटी, आयकर, कॉर्पोरेट टैक्स— में, और विनिवेश से कमाई में भी गिरावट आएगी.


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इसलिए सरकार इस समय खर्चों के लिए खजाना खोलने की स्थिति में नहीं है. इस स्थिति की तुलना अमेरिका में लेहमेन कांड के बाद वाली स्थिति से नहीं की जा सकती है, जब बैंकों को बड़े पैकेज दिए गए थे, क्योंकि वह एक बार का बड़ा वित्तीय खर्च था. कोरोनावायरस और अर्थव्यवस्था को लेकर अनिश्चितता ने नेताओं को सावधान कर दिया है. यह ठीक भी है क्योंकि उन्हें मालूम नहीं है कि इस साल और क्या खर्चे आ सकते हैं और आमदनी कितनी गिर सकती है.

सरकार उधार ले भी तो किससे?

सरकार आम तौर पर बैंकों, जीवन बीमा, लघु बचत, भविष्य निधि, बॉन्ड मार्केट जैसे माध्यमों से परिवारों और फर्मों से उधार लेती है. कमाई घटने का अर्थ है कि लोग कम बचत करेंगे. वे उधार लेंगे या संपत्ति बेचेंगे. परिवारों में पारिवारिक उपक्रम और छोटी फ़र्में भी शामिल होती हैं. उत्पादन और बिक्री में गिरावट के कारण घरेलू बचत में कमी आएगी.

इसके साथ ही, घरेलू कॉर्पोरेट बचत जब मजदूरी और वेतन भुगतान पर खर्च होगी और लॉकडाउन के कारण माल पड़ा रहेगा तो इससे कॉर्पोरेट बचत में भी गिरावट आएगी. इसका अर्थ होगा कि सरकार के लिए उधार लेने का एक स्रोत, घरेलू बचत का कोष छोटा हो जाएगा. कहा जा रहा है कि शादी-ब्याह, सिनेमा, रेस्तरां में भोजन, सैर-सपाटे आदि मनमर्जी वाले खर्चों में कमी आने से घरेलू बचत में वृद्धि होगी. मनमर्जी वाले खर्चों में कमी आने के बावजूद बचत इस पर निर्भर होगी कि 2020-21 में लोगों के रोजगार और आय का क्या हाल रहता है.

सरकार कुछ हद तक नोट छाप कर मुद्रास्फीति टैक्स थोप सकती है लेकिन इसके बावजूद घटती आय के कारण घरेलू बचत में कमी के कारण उसे विदेश से उधार लेना पड़ सकता है. इसके लिए भारत का पब्लिक डेट टिकाऊ रास्ता हो सकता है, और क्रेडिट रेटिंग पर आंच नहीं आनी चाहिए.

विदेश से उधार

जब ज़्यादातर देश मंदी की चपेट में हैं और बाज़ार निवेश के सुरक्षित ठिकाने खोज रहे हैं, भारत एक आकर्षक ठिकाना बन सकता है. भारत सरकार के बॉन्ड अपेक्षाकृत सुरक्षित संपत्ति बन सकते हैं. भारत ने ग्लोबल सूचकांक का हिस्सा बनने की सहमति दे दी है, जो पोर्टफोलियो निवेशकों को भारत आने के लिए प्रेरित करेगा. भारत ने रुपये के वर्चस्व वाले भारत सरकार के बॉन्ड में निवेश को प्रोत्साहित करने के लिए विदेशी निवेशकों के लिए सीमाएं बदल दी है.

विदेशी निवेश आकर्षित करने के लिए जरूरी है कि भारत की क्रेडिट रेटिंग ऊंची रहे और उसे निवेश ग्रेड से नीचे का या ‘कमजोर’ अर्थव्यवस्था वाला देश न माना जाए. भारत की व्यापक अर्थव्यवस्था (मैक्रो इकोनोमी) की मजबूती पहली आवश्यकता है. पब्लिक डेट टिकाऊ हो इसके लिए जरूरी है कि मुद्रास्फीति और ब्याज दरें नीची रहें, वृद्धि दर धनात्मक रहे. फंडामेंटल्स मजबूत रहें तो रुपये में भरोसा बढ़ेगा.

यह भारी अनिश्चितताओं वाला दौर है और इसमें ‘लिक्विडिटी’ के ग्लोबल स्रोत विस्फोटक स्थिति में होंगे और वे कभी जोखिम लेने और कभी न लेने के मूड में होंगे. जब अंतरराष्ट्रीय मुद्रा बाज़ार में जोखिम का खतरा ज्यादा दिख रहा हो तब वे अमेरिकी बॉन्ड की ओर मुड़ सकते हैं और उभरती अर्थव्यवस्थाओं से बाहर निकल सकते हैं. ग्लोबल बाज़ारों को झटका लगा, तो उभरती अर्थव्यवस्थाओं को जोखिम भरा माना जा सकता है और वहां से पूंजी का ज्यादा पलायन होता है. यह हमने 2013 में देखा था जब बर्नांके ने आर्थिक वृद्धि के लिए बैंकों की नीति में परिवर्तन की बात की थी.


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भारत अभी उपयुक्त स्थिति में है. सरकार व्यावहारिक वित्त नीति का पालन करती दिख रही है. इसके अलावा अपेक्षित मुद्रास्फीति के लिए तैयारी कर ली गई है. मांग में सुस्ती, तेल की कीमतों में गिरावट और नीची मुद्रास्फीति के प्रति हमारी प्रतिबद्धता बाहरी संतुलन को बनाए रखेगी और रुपये को स्थिरता देगी. सरकार ने पहले ही माह में खर्चों में लाखों करोड़ की वृद्धि न करके बुद्धिमानी दिखाई है. उसे पता नहीं है कि आगे क्या होगा.

अर्थव्यवस्था में जान डालने की रणनीति के तौर पर बेहतर यही होगा कि सुरक्षा के सख्त नियमों के साथ और सीमाओं में रहते हुए आर्थिक गतिविधियां शुरू की जाएं और फर्मों तथा परिवारों के नुकसान को कम किया जाए ताकि उन्हें कम सहायता देनी पड़े, बजाय इसके कि भारी-भरकम वित्तीय पैकेज देकर व्यापक अर्थव्यवस्था को संकट में डाला जाए.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(लेखिका एक अर्थशास्त्री हैं और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनान्स में प्रोफेसर हैं. ये उनके निजी विचार हैं)

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