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Saturday, 20 April, 2024
होममत-विमतभारत के 'अविश्वसनीय नैरेटर' हैं नरेंद्र मोदी, क्यों बीते 20 साल से वो एक जैसा ही बने हुए हैं

भारत के ‘अविश्वसनीय नैरेटर’ हैं नरेंद्र मोदी, क्यों बीते 20 साल से वो एक जैसा ही बने हुए हैं

किसी नेता का कैरियर उसके द्वारा रचे गए आख्यान पर निर्भर होता है लेकिन गुजरात के मुख्यमंत्री से लेकर प्रधानमंत्री की गद्दी तक सार्वजनिक सेवा के जो 20 वर्ष मोदी के रहे हैं उससे कोई आख्यान नहीं उभरता.

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने सार्वजनिक जीवन के 20 साल इस सप्ताह पूरे किए, जिसका जश्न भारतीय जनता पार्टी ने मनाया. किसी नेता का कैरियर उसके द्वारा रचा गया आख्यान ही होता है, सिर्फ सत्ता के मामले में बनाया गया विकास-आख्यान नहीं.

गुजरात के मुख्यमंत्री से लेकर प्रधानमंत्री तक सार्वजनिक सेवा के जो 20 वर्ष मोदी के रहे हैं उससे कोई आख्यान नहीं उभरता. पिछले पूरे 20 साल मोदी एक जैसे ही बने रहे. उधर लखीमपुर खीरी त्रासदी सामने आया और इधर वे ‘विकास’ के लिए उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने जो काम किए उसकी तारीफ करते नज़र आए. इससे ठीक छह साल पहले दादरी में भीड़ ने मोहम्मद अख्लाक़ को पीट-पीट कर मार डाला था, उसके दस दिन बाद मोदी ने ट्वीट करके क्रिकेटर नवजोत सिंह सिद्धू के शीघ्र स्वस्थ होने की कामना की थी. उस समय उमर अब्दुल्ला ने कहा था कि प्रधानमंत्री को अख्लाक़ के खून जमा देने वाले बर्बर हत्याकांड से ज्यादा चिंता एक क्रिकेटर की नसों में जम गए खून की हुई.

गुजरात के दिनों से ही उनके उद्गार हिंदुओं के मारे जाने पर या इस्लामी आतंकवादियों द्वारा बम विस्फोट किए जाने पर ही प्रकट होते रहे हैं. लेकिन भीड़ द्वारा हत्या किए जाने या नफरत के कारण किए गए अपराधों पर वे चुप्पी साधे रहे हैं, जैसे अब लखीमपुर खीरी में किसानों की हत्या पर उन्होंने साध ली. कुछ लोग इस एकरूपता को निरंतरता बताकर इसकी तारीफ करते हैं और इसे राजनीति करने के लिए अहम मानते हैं. लेकिन नेता के आख्यान-वृत्त में राष्ट्र का आख्यान जब एकपक्षीय रंग में रंग जाता है तब यह मुश्किल पैदा करने लगता है.

मोदी आज भारत के मुख्य आख्यान रचयिता हैं लेकिन उनसे हम आधी कथा ही हासिल कर पाते हैं और वह कथा भी मुखर बहुसंख्यकों को ही खुश करती है तथा उन्हीं का सीना फुलाए रखती है.

साहित्यिक आलोचना में ‘अविश्वसनीय आख्यान रचयिता’ की एक अवधारणा को स्थान दिया गया है. मोदी भारत के वही ‘अविश्वसनीय आख्यान रचयिता’ हैं. कथा कौन कहता है और वह किस तरह कही जाती है यह किसी उपन्यास के लिए जितनी महत्वपूर्ण होती है उतनी ही एक राष्ट्र के लिए भी महत्वपूर्ण होती है. पत्रकारिता में हम कहते हैं, तुम कभी कथा मत बनना. मोदी के भारत में कथावाचक और राष्ट्र एक-दूसरे से कस कर जुड़ गए हैं.

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भारत की कथा में अविश्वसनीय आख्यान रचयिता

किसी काल्पनिक कथा में लेखक या कथावाचक ही जब मुख्य पात्र होता है और उनका आख्यान जब जानबूझकर भ्रामक बनाया जाता है या वह पाठक के भरोसे से खिलवाड़ करता है तब उसे अविश्वसनीय आख्यान रचयिता कहा जाता है.

किसी राष्ट्र का आख्यान या तो जनता रचती है या उसका शीर्ष नेता रचता है. कभी-कभी जीडीपी ही कथावाचक की भूमिका में होती है, जैसा कि लहलहाती अर्थव्यवस्थाओं में होता है या फौजी-इस्लामी विचारधारा इस भूमिका में होती है जैसा कि पाकिस्तान में हो रहा है या एक ताकतवर शख्सियत इस भूमिका में होती है जैसा कि तुर्की या हंगरी में हुआ.

भारत में लंबे समय तक गांधी और जवाहरलाल नेहरू आख्यान रचयिता रहे और मरणोपरांत भी रहे. इसके बाद 1991 से शुरू हुए दो दशकों तक वे लोग इस भूमिका में रहे जिन्होंने ‘भारत की कथा’ में योगदान दिया.

अब मोदी ने नये, हिंदुत्ववादी भारत में प्रथम-पुरुष सरीखे आख्यान रचयिता की भूमिका अपना ली है. नेहरू और इंदिरा गांधी के बाद भारत में एक बार फिर प्रथम-पुरुष द्वारा आख्यान रचने की शैली की वापसी हुई है. उपन्यासों में ऐसे आख्यान रचयिताओं को अविश्वसनीय माना जाता है क्योंकि वे कथा में अपने पूर्वाग्रहों और षड्यंत्रों को दाखिल कर देते हैं. वे ध्यान भटकाने के लिए कहानी में अनावश्यक असंगतियां और तोड़मरोड़ करते हैं, जिससे पाठक उलझन में पड़ जाता है.


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भारत के दूसरे आख्यान रचयिता

आज़ादी के बाद से भारत की ऊंची जातियों के हिंदू उदारवादी ही आख्यान की रचना करते रहे हैं. वे जाति व्यवस्था और देश विभाजन को लेकर सतही अपराध बोध का इजहार करते रहे हैं. ‘अनेकता में एकता’, ‘अस्पृश्यता का नाश हो’ और ‘जाति विहीन समाज’ जैसे शब्दाडंबरों के जरिए वे इनका प्रायश्चित करते रहे हैं. वे ढांचागत जातिवाद, इस्लामी आक्रमणों, और फिर कुछ सदियों की छलांग लगाते हुए मुगल राज की शान, सूफीवाद, गंगा-जमुनी संस्कृति की दुहाई देते रहे हैं. राष्ट्र निर्माण उनके लिए समय की मांग थी. यह सब नेहरू से लेकर राजीव गांधी के जमाने तक चलता रहा और तमाम प्रधानमंत्री राष्ट्र को अपने व्यक्तित्व की महिमा में ढालते रहे.

इसके बाद आख्यान रचयिता जनता के बीच से आए.

1990 और 2000 के दशकों में भारत के नये आख्यान रचयिता बने संविधानवादी. इसके बाद के दो दशकों में सामाजिक न्याय के नये योद्धा उभर आए— आंबेडकरवादी, जनहित याचिका (पीआईएल) वाले एक्टिविस्ट. समानता की जगह समान हिस्सेदारी की मांग ने ले ली. इन लोगों ने ऊंची जातियों के उन यथास्थितिवादी उदारवादियों को चुनौती दी, जो वास्तविक प्रतिनिधित्व देने की जगह धीरे-धीरे सबको साथ लेने की वकालत कर रहे थे.

इसके साथ ही मध्यवर्ग का विस्तार होता गया, जो कथित ‘भारत-कथा’ का वास्तविक इतिवृत्तकार बना. जीडीपी की पूजा करने वाली एक पूरी पीढ़ी रातोरात उभर आई और उसने आर्थिक वृद्धि की ‘हिंदू रेट’ को खारिज कर दिया, जबकि भारत के कस्बों की गलियों में हिंदुत्व का परचम लहराने लगा था.

संविधानवादियों और जीडीपी की पूजा करने वालों में कभी-कभी ही टक्कर होती, हमेशा नहीं. खलबली भरे दो दशक ऐसे थे जिनमें भारतीयों ने सामाजिक समानता और आर्थिक वृद्धि के लिए हाथ-पैर मारना जारी रखा, जिसे पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने ‘सर्व समावेशी वृद्धि’ नाम दिया.

भारत पर नज़र रखने वाले ग्लोबल प्रेक्षकों ने मायावती पर भी नज़र रखा और मार्केट पर भी. दुनिया भी हमें उसी नज़र से देखती रही जिस नज़र से हम खुद को देखने लगे थे. पहचान को लेकर कोई विसंगति नहीं थी. यह विश्वसनीय आख्यान का एक उदाहरण था.

नये भारत में हिंदुत्ववादी नेता संविधान के शरण में नहीं जाते. बल्कि वे गणतंत्र के आधारतत्व को अतीत में कहीं और पीछे जाकर देखते हैं, जिसे वे अपनी मर्जी से परिभाषित कर सकते हैं.


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रुश्दी से सबक

जाने-माने लेखक जे.डी. सालिंगर ने अपनी कृति ‘द कैचर इन द राई ’ में अपने प्रतिरूप के रूप में जिस होल्डेन कॉलीफ़ील्ड पात्र की रचना की है वह प्रथम-पुरुष आख्यान रचयिता है, लेकिन अपनी उम्र और अनुभवहीनता के कारण वह विश्वसनीय नहीं है. सलमान रुश्दी की कृति ‘मिडनाइट चिल्ड्रन ’ का सलीम सिनाई भी ऐसा ही पात्र है क्योंकि वह गणेश और गांधी के बारे में जानबूझकर गलत बातें बताता रहता है.

मोदी के 20 साल का जश्न मनाते हुए भाजपा अध्यक्ष जे.पी. नड्डा ने कहा कि प्रधानमंत्री ने भारत को हताशा से बाहर निकालकर ‘ग्लोबल पावर और प्लेयर ’ बना दिया. यह उद्गार ऐसे समय व्यक्त किया गया है जब दुनिया भर के नेताओं और विश्व मीडिया के स्वर आलोचनात्मक हो रहे हैं और यह कोविड की दूसरी लहर के दौरान मौत के तांडव पर मोदी की मुखर चुप्पी के जैसे ही है. नड्डा ने कहा कि अंततः जब वे उभरकर सामने आए, उत्तर प्रदेश को ‘डबल इंजन वाली’ सरकार मिली.

यहां रुश्दी सहारा देते हैं.

इमेजनरी होमलैंड्स: एस्सेज़ ऐंड क्रिटिसिज़्म 1981-1991’ में उन्होंने लिखा है, ‘वास्तविकता हमारे पूर्वाग्रहों, भ्रांतियों, और अज्ञानता के साथ-साथ हमारी सहजानुभूति और ज्ञान के आधार पर आकार लेती है. मेरा मानना है कि सलीम के अविश्वसनीय आख्यान का पाठ दुनिया को हर दिन ‘पढ़ने’ की हम सबकी कोशिश की एक उपयोगी उपमा हो सकती है.’

रुश्दी ने यह भी कहा कि उन्होंने अविश्वसनीय आख्यान रचयिता का इस्तेमाल एक सोची-समझी तकनीक के तहत किया है— यह ‘पाठक को यह कहने का एक तरीका है कि वह स्वस्थ अविश्वास बनाए रखें.’

मोदी की अविश्वसनीयता की काट इसी में है. यह जनता को अधिक सचेत और भारत-कथा के सहभागी की भूमिका निभाने को मजबूर करेगा. यही वजह है कि आज हम देख रहे हैं कि असहमतों और तथ्य की जांच करने वालों की संख्या बढ़ रही है.

(रमा लक्ष्मी दिप्रिंट की ओपिनियन और फीचर एडिटर हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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