scorecardresearch
Thursday, 25 April, 2024
होममत-विमतनेशनल इंट्रेस्टलखीमपुर खीरी से वाया पंजाब -कश्मीर तक, जो हुआ ऐसे जोखिम भारत अब और नहीं उठा सकता

लखीमपुर खीरी से वाया पंजाब -कश्मीर तक, जो हुआ ऐसे जोखिम भारत अब और नहीं उठा सकता

कश्मीर मसले को निबटाने के लिए पंजाब में अमन चाहिए. जानी-पहचानी बाहरी ताकतों को 30 साल पहले इन दोनों राज्यों में आग लगा देने का जो मौका मिल गया था वह उन्हें फिर से देने का जोखिम नहीं उठाया जा सकता.

Text Size:

उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ ने लखीमपुर खीरी कांड के कारण जो संकट पैदा कर दिया है उसका राजनीतिक नतीजा क्या हो सकता है यह समझने के लिए मैं अगर यह कहूं कि आप पंजाब के हाल पर नज़र डालिए तो कैसा रहे? या पंजाब में जो कुछ हुआ है उसके परिणाम को समझने के लिए कश्मीर घाटी में मारे जा रहे अल्पसंख्यकों की संख्या गिनने को कहूं, और इन सबके नतीजों को समझने के लिए आपको तीन दशक पीछे जाने के लिए कहूं तो?

खबरों से भरे सप्ताह के लगभग अंत में, शुक्रवार की शाम यह सब लिखने के लिए आप मुझे अनाड़ी कहें, इससे पहले मैं पूरी बात सामने रख दूं. जरा सोचिए कि 1990-91 में हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा का हाल क्या था.

कश्मीर और पंजाब, दोनों में भारी उथलपुथल मची थी. दोनों पर आतंकवादी राज कर रहे थे. पाकिस्तान के आइएसआइ का इन दोनों, सबसे संवेदनशील राज्यों पर बोलबाला था. सबसे अहम बात यह थी कि पंजाब के सिख भी उतने ही असंतुष्ट थे जितने घाटी के मुसलमान गुस्से में थे. जैसे आज तालिबान ने अमेरिका को परास्त कर दिया है, उसी तरह तब मुजाहिदीन ने रूसियों को खदेड़ दिया था और पाकिस्तान तथा आइएसआइ खुद को सर्वशक्तिमान समझ रहे थे.

उस समय भारत में भी काफी राजनीतिक अस्थिरता थी. दिहाड़ी पर चल रही वी.पी. सिंह और चंद्रशेखर की सरकारें जल्दी-जल्दी विदा हो चुकी थीं, राजीव गांधी की हत्या के बाद पी.वी. नरसिंह राव अल्पमत वाली सरकार चला रहे थे. एक तूफान को आप भला और किस तरह परिभाषित कर सकते हैं?


य़ह भी पढ़ें: खुद को छिन्न-भिन्न करने में लीन विपक्ष, मोदी को अजेय कर रहा, पर 2022 में यूपी ला सकता है ट्विस्ट

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें


आज हमारी हालत वैसी कतई नहीं है. तीन दशक पहले वाली और आज की स्थिति में काफी अंतर है. केंद्र में आज एक स्थिर, मजबूत सरकार है.

पाकिस्तान काफी कमजोर हो चुका है और 1988-93 के मुक़ाबले आज उसे दुनिया में खास तवज्जो नहीं हासिल है. पंजाब में शांति बनी रही है और कश्मीर बड़े उपद्रव से मुक्त है. लेकिन कोई भी देश अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा की चिंता करना तब नहीं शुरू करता जब पानी गले तक ऊपर आ गया हो. आप खामियों और चेतावनियों को पहले से पढ़ने लगते हैं. यहां हम ऐसी ही कुछ खामियों और चेतावनियों को गिना रहे हैं—

  •  लखीमपुर खीरी कांड से उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ को बहुत नुकसान नहीं होगा. चूंकि यह सिख बनाम अन्य में तब्दील हो गया है इसलिए यह उलटे योगी के लिए अनुकूल ही साबित होगा. लखीमपुर खीरी में सिखों की आबादी बमुश्किल 3 फीसदी है, इस राज्य के किसी जिले में उनकी इतनी बड़ी आबादी नहीं है. इसलिए योगी सोच सकते हैं कि वे इस मसले को बेशर्मी से निबटा सकते हैं.
  •  लेकिन जरा देखिए कि इसका पंजाब में क्या असर हुआ है. इसने चुनाव का सामना करने जा रहे इस राज्य की राजनीति में खलबली मचा दी है, क्योंकि सिखों को उत्पीड़ित के तौर पर देखा जा रहा है. तराई के उपजाऊ मगर प्रतिकूल इलाके में जा बसे इन सहधर्मी सिखों ने इस इलाके को भारत के सबसे उपजाऊ कृषि क्षेत्र में तब्दील कर दिया, लेकिन अपने मूल प्रदेश से गहरा रिश्ता भी बनाए रखा. यही वजह है कि कांग्रेस से लेकर शिरोमणि अकाली दल और आम आदमी पार्टी तक लखीमपुर खीरी की ओर दौड़ पड़ी है.

एकमात्र उसी पार्टी ने इसकी कोई परवाह नहीं की है, जो वही है जिसका पंजाब में कोई दांव नहीं है. यह कोई अच्छी बात नहीं है. पंजाब में आप यह सब नहीं पढ़ना चाहेंगे कि हम भाजपा को वोट नहीं देते इसलिए दूसरे राज्य में कुछ सिख मारे गए तो इसकी कौन परवाह करता है. बदकिस्मती से इसे इसी तरह देखा जा रहा है. और दूसरी पार्टियां अगर इसका फायदा उठा रही हैं तो उन्हें दोष मत दीजिए. उपरोक्त तीनों पार्टियों के दांव अगले साल केवल पंजाब में होंगे, उत्तर प्रदेश में फिलहाल तो शायद ही हैं.

  •  तीन दशक बाद पहली बार यह ऐसे समय में हुआ है जब पंजाब को बांधे रखने वाली राजनीतिक धुरी की कमी है. कांग्रेस ने अभी-अभी अपने ही घर को आग लगा दी है. उसे एक लड़खड़ाती, दिग्भ्रमित, हताश इकाई के रूप में देखा जा रहा है. वह पंजाबियों के मन में कोई उम्मीद नहीं जगा रही है, चाहे उनमें से कुछ लोग उसे अकालियों और ‘आप’ से कम बुरी क्यों मानते हों. अकालियों ने कुछ समय पहले हाराकीरी कर ली थी. सो, आज जो स्थिति है उसमें एक स्थिर, एक पार्टी की सरकार की उम्मीद नहीं की जा रही है. वैसे, पंजाब ऐसा राज्य रहा है जहां गठबंधन सरकार की वास्तव में कोई संस्कृति नहीं रही है. यह दो दलों वाला राज्य रहा है, मगर वे दोनों दल सिकुड़ते जा रहे हैं. इसलिए, अगले कुछ महीनों में उत्तर के इन दोनों संवेदनशील राज्यों में राजनीतिक अस्थिरता देखने के लिए मन को तैयार कर लीजिए.
  •  कश्मीर घाटी में आतंकवादी जो कर रहे हैं वह बिलकुल साफ है. वे वहां के अल्पसंख्यकों को निशाना बनाकर उन्हें फिर से पलायन के लिए मजबूर करके 1990 को दोहराना चाहते हैं. यह केंद्रीय सरकार की साख को कमजोर करेगा और देश में दूसरी जगहों पर सांप्रदायिक भावनाओं को भड़काएगा. आइएसआइ के नये प्रमुख के लिए यह कम लागत, कम जोखिम और ऊंचा लाभ देने वाली चाल होगी, खासकर तब जबकि भारत में बेहद महत्वपूर्ण राज्यों में चुनाव होने वाले हैं. दोबारा पलायन को अगर अभी नहीं रोका गया तो जम्मू-कश्मीर में चुनाव करवाना, परिसीमन करवाना, और उसे अंततः पूर्ण राज्य का दर्जा लौटाना मुश्किल हो जाएगा. तब वैसी ही स्थिति हो जाएगी जैसी उस रोगी की होती है जिसका ऑपरेशन करने के लिए चीरा तो लगा दिया गया मगर उसे सिला नहीं गया हो.
  •  पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह हमें चेतावनी देते रहे हैं लेकिन उनकी या तो इसलिए अनसुनी की जाती रही है कि लोगों को लगता है वे बढ़ा-चढ़ा कर कह रहे हैं, या यह कथित नाकाम प्रेमी का भाजपा की तरफ हाथ बढ़ाने का मामला है. क्या हमें यह याद दिलाने के लिए उनकी जरूरत पड़ेगी कि घाटी ऑटोमेटिक हथियारों से अंटी पड़ी है? और पिछले करीब एक साल से भारी संख्या में ऐसे हथियार ड्रोनों से पंजाब में गिराए जा चुके हैं? इस घातक मिश्रण में एक ही चीज की कमी है— इन हथियारों को उठा लेने वाले नाराज सिख युवकों की. अगर थोड़े से भी युवकों ने बदला लेने के लिए ऐसा किया तब सोचिए कि क्या होगा.

उत्तर प्रदेश में पीलीभीत और लखीमपुर खीरी, पड़ोसी उत्तराखंड में उधम सिंह नगर ऐसे इलाके हैं जहां समृद्ध सिखों की अच्छी-ख़ासी आबादी है. उनकी पहली पीढ़ी जब यहां आकर बसी थी तब यह क्षेत्र जहरीले सांपों से लेकर बाघों तक भयानक जंगली जानवरों, और मलेरिया फैलाने वाले दलदल का डेरा था. सिख सख्त जिंदगी जीने और हथियारों का इस्तेमाल करने के आदी होते हैं. पंजाब में आतंकवाद वाले दिनों का काफी असर यहां भी हुआ था और कुछ एनकाउंटर भी हुए थे, फर्जी. यहां तक कि 2016 में भी ऐसे एक एनकाउंटर के लिए उत्तर प्रदेश के 47 पुलिसवालों को 1991 में पंजाब से लौट रहे 10 सिख तीर्थयात्रियों को आतंकवादी बताकर हत्या करने के लिए उम्रक़ैद की सज़ा सुनाई गई.

  •  सिख, खासकर पंजाब के, नाराज और हताश हैं. इस बात में कुछ सच्चाई है कि पंजाब के सिख किसान आंदोलन की जान हैं, कि यहां सिख वोटों को महत्व नहीं दिया जाता. लेकिन क्या आप उनकी उपेक्षा कर सकते हैं, जिससे उनका गुस्सा उस तरह फूटे जैसा लखीमपुर खीरी में फूटा? या क्या उन्हें खालिस्तानी घोषित करते रह सकते हैं? कोई सहानुभूति नहीं, कोई मरहम नहीं, कंधे पर भाईचारे का कोई हाथ नहीं?

यह भी पढ़ें: 2024 मोदी के लिए चुनौतीपूर्ण हो सकता है? हां, बशर्ते कांग्रेस इसकी कोशिश करे


अब मैं आपको बताऊंगा कि आज यह सब मेरे दिमाग में क्यों उभरा. दोपहर में मैं निर्माता रॉनी लाहिड़ी और निर्देशक शूजित सरकार की जीवनीपरक फिल्म ‘सरदार उधम’ के कलाकारों से बातचीत में शामिल था. शहीद उधम सिंह को, जिनका किरदार विकी कौशल ने निभाया है, पीढ़ियों से इसलिए पूजा जाता रहा है कि उन्होंने जालियांवाला बाग नरसंहार का बदला लेने के लिए इसके दोषी माइकल ओ’डायर की 21 साल बाद ब्रिटेन में हत्या की थी. उनकी स्मृति के सम्मान में ही लखीमपुर खीरी के पास के जिले का नाम उधम सिंह नगर रखा गया.

इस बारे में हम और ज्यादा कुछ न कहें. पंजाब के संदर्भ में मैं कई बार कह चुका हूं कि कभी भी नकारात्मक तस्वीर न पेश करें. सचमुच में सयानी पीढ़ियां उन चिनगारियों को हवा नहीं देतीं जिन्हें उन्होंने देश में आग लगाते हुए देखा है. कश्मीर की पुरानी समस्या की कुंजी है पंजाब में अमन. 30 साल पहले जानी-पहचानी बाहरी कुटिल ताकतों को दोनों राज्यों में आग लगाने का मौका मिल गया था. वह मौका फिर नहीं दिया जाना चाहिए.

इस लेख के शुरू में मैंने जिन सूत्रों को बिखरा हुआ छोड़ दिया था, मेरा ख्याल है उन्हें जोड़कर एक तस्वीर बना दी है मैंने.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ें: मोदी की टक्कर का कोई नहीं, पर उनके नक्शे कदमों पर चल तेज़ी से बढ़ रहे हैं योगी आदित्यनाथ


 

share & View comments