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Friday, 19 April, 2024
होममत-विमतमैंने OFB की क्वालिटी में गिरावट देखी है-1970 के दशक में औसत से 2000 में नाक़ाबिले बर्दाश्त तक

मैंने OFB की क्वालिटी में गिरावट देखी है-1970 के दशक में औसत से 2000 में नाक़ाबिले बर्दाश्त तक

वर्दी-पोशाक और लड़ाई में धारण किए जाने वाले कवच आदि के मामले में हमारे सैनिक दुनिया में सबसे कमजोर हैं, और उनके अस्त्र-शस्त्र के बारे में जितना कम कहा जाए उतना बेहतर.

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रक्षा क्षेत्र में सुधार का एक बड़ा कदम उठाते हुए नरेंद्र मोदी सरकार ने ऑर्डिनेंस फैक्ट्री बोर्ड (ओएफबी) को भंग करते हुए इसकी 41 ऑर्डिनेंस फैक्ट्रियों, 9 प्रशिक्षण संस्थानों, सुरक्षा के 5 क्षेत्रीय कंट्रोलरों, तीन क्षेत्रीय मार्केटिंग सेंटरों, 80 हजार कर्मचारियों और दूसरी परिसंपत्तियों का रक्षा क्षेत्र के सात सार्वजनिक उपक्रमों में स्थानांतरण कर दिया है.

रक्षा उत्पादन का अधिकांश सरकारी आधार ओएफबी के नियंत्रण में है लेकिन टेक्नोलॉजी, गुणवत्ता और कार्यकुशलता के मामले में वह वक़्त के साथ कदम मिलाकर चलने में विफल रहा है. दुनिया में हम हथियारों के सबसे बड़े आयातक हैं. यह बताता है कि रक्षा उत्पादन का हमारा इन्फ्रास्ट्रक्चर किस बुरे हाल में है. ओएफबी का कॉर्पोरेटीकरण रक्षा उत्पादन में आत्मनिर्भर बनने की दिशा में उठाया गया सबसे बड़ा कदम है. ज्यादा उल्लेखनीय बात यह है कि इस सुधार की प्रक्रिया बहुत व्यवस्थित तरीके से लागू की जा रही है.

मैं यहां इस मानक सुधार के महत्व का और भारत की प्रतिरक्षा के लिए हथियार, साजो-सामान आदि के उत्पादन में आत्मनिर्भरता हासिल करने की चुनौतियों का सामना करने के उपायों का विश्लेषण करने की कोशिश कर रहा हूं.


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मानक सुधार

सेना ने आधुनिकीकरण का दूसरा चरण 1980 के दशक के मध्य में शुरू किया था तब यह साफ हो गया था कि हमारे रक्षा उत्पादन के आधार, खासकर ओएफबी के पास भारत की जरूरतों को पूरा करने के लिए इन्फ्रास्ट्रक्चर, टेक्नोलॉजी, और कार्य संस्कृति का अभाव है. रक्षा मद में बढ़ते आयातों ने सरकार को सचेत कर दिया. कई कमिटियों की सिफ़ारिशों के बावजूद तमाम गठबंधन सरकारें अफसरशाही की जड़ता और कर्मचारियों के प्रतिरोध की आशंका के कारण अनिश्चय में रहीं. मोदी सरकार का भी अपने पहले कार्यकाल में इससे बेहतर हाल नहीं रहा.

अभी हम 1980 के दशक के मध्य में शुरू किए गए आधुनिकीकरण के दूसरे चरण को आयातों के जरिए पूरा करने में ही जुटे थे कि सैन्य टेक्नोलॉजी में प्रगति और युद्ध के बदलते स्वरूप ने सेना को तीसरे बड़े सुधारों के लिए मजबूर कर दिया. हमारी आर्थिक स्थिति और विकास बजट रक्षा संबंधी खर्चों पर बड़ा अंकुश लगा देते हैं. ये खर्चे बढ़ना तो दूर, मुद्रास्फीति और वेतन-पेंशन पर बढ़ते खर्चों के कारण वास्तव में कम ही हो गए.

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2019 में बालाकोट पर हवाई हमले और इसके अगले दिन हवाई झड़पों ने गतिरोध पैदा कर दिया. अगर कोई एक चीज हम विश्वसनीय रूप से पेश कर सके तो वह था हमारा संकल्प और हमारा ठोस इरादा. लेकिन आप में क्षमता न हो तो खाली संकल्प से लक्ष्य कितना पूरा हो सकता है?

जब हम पूर्वी लद्दाख में युद्ध के कगार तक पहुंच गए थे तब चीन की तुलना में हमारी तकनीकी फौजी क्षमता ने हमें सिर्फ मोर्चे पर भारी संख्या में सैनिकों को तैनात करने तक सीमित कर दिया. प्रतिरक्षा के मोर्चे पर इन झटकों के बाद सरकार ने लोगों की राष्ट्रवादी भावनाएं जगा कर तो काम चला लिया मगर सबक साफ था— सुधारो या मरो. इसलिए, रक्षा मामले में ‘आत्मनिर्भरता’ मर्जी से नहीं बल्कि मजबूरी से चुनी गई. बहरहाल, मोदी सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल में रक्षा सुधारों के लिए ज्यादा संकल्पबद्ध दिखती है.

ओएफबी के बचाव में कहने के लिए कुछ भी नहीं है. मैंने इसकी गिरावट देखी है और दुखी हुआ हूं. 1970 के दशक में इसका स्तर औसत से 1980 के दशक में औसत से नीचे गया और इस सदी के शुरू होने तक काबिले-बर्दाश्त नहीं रह गया. वर्दी और साजो-सामान के साथ-साथ इंडियन ऑर्डिनेंस फैक्ट्रियों ने मानक साइज तक रखना छोड़ दिया. दुनिया में हमारी सेना ही अकेली ऐसी है जो सैनिकों के ऐसे कपड़े देती है जिन्हें मरम्मत करानी पड़ती है. लड़ाई में पहनने वाले बूट आज भी उसी डिजाइन में और उन्हीं चीजों से बनते हैं जिनसे 1890 में बनते थे. हमारे सैनिक दुनिया में सबसे खराब वर्दी और अस्त्र-शस्त्र से सज्जित सैनिक हैं.

एके-47 की भद्दी नकल वाली ‘इन्सास’ राइफल से पांच साल बाद भी जब गोली दागी जाती थी तब वह दागने वाले की आंखों में तेल फेंकती थी. 2005 में मेरी टुकड़ी ने इससे आंखों को बचाने के लिए रेक्सीन का टुकड़ा लगवाया था. बख्तरबंद वाहनों के पूरी तरह टूटे हुए किट को जोड़ने की गुणवत्ता में आयातित किट के मुक़ाबले 15-20 प्रतिशत की गिरावट आई. गुणवत्ता में यह गिरावट बढ़कर 20-30 फीसदी के बराबर हो गई जब उनका उत्पादन आयातित तकनीक से किया जाने लगा.

‘अर्जुन’ टैंक को स्वीकार्य स्तर के लायक विकसित करने में जो चार दशक लगे उसकी कहानी इसकी पुष्टि करती है. ‘धनुष’ नाम की तोप को 2010 में ओएफबी ने 1987 में बोफोर्स तोपों के साथ हुए तकनीक के हस्तांतरण से विकसित किया था. लंबे चले परीक्षणों के बाद फरवरी 2019 में इनका उत्पादन सीरीज़ में करने की मंजूरी दी गई. 114 तोपों का ऑर्डर दिया गया. ढाई साल बाद एक रेजीमेंट के लिए जरूरी 18 तोपें भी नहीं मिली हैं.

जहां तक गोला-बारूद की गुणवत्ता की बात है, जितना कम कहा जाए उतना बेहतर है. खराब गोला-बारूद के कारण 2014 से 403 हादसों में 27 सैनिक जान गंवा चुके हैं, 159 घायल हो चुके हैं और 960 करोड़ रुपये का नुकसान हो चुका है.

आगे का रास्ता

सरकार के लिए असली चुनौती है कॉर्पोरेटीकरण को लागू करना. इस मामले में सरकार का जो अनुभव रहा है वह बहुत विश्वास नहीं जगाता. एअर इंडिया और बीएसएनएल इसके सबूत हैं. रक्षा क्षेत्र के मौजूदा सार्वजनिक उपक्रमों (‘डीपीएसयू’) के कामकाज बमुश्किल औसत स्तर के हैं. सरकार परमाणु ऊर्जा आयोग और इसरो के मॉडल पर ज़ोर दे सकती है. यह प्रक्रिया उतनी ही मौलिक हो जितना मौलिक निर्णय है. नये ‘डीपीएसयू’ के आधुनिकीकरण में सरकार को भारी निवेश करना पड़ेगा. कुछ बेकाम ऑर्डिनेंस कारखानों को बंद करके रियल एस्टेट को बेच देना चाहिए और पैसे उगाहे जाने चाहिए, कुछ का निजीकरण किया जा सकता है. मेरे खयाल से इनकी संख्या घटाकर आधी कर दी जाए. रक्षा मंत्रालय पब्लिक-प्राइवेट मॉडल का पूरा लाभ उठाए, साथ में विदेशी सहयोगियों के सहयोग से पैसे की कमी दूर करे और आधुनिक सैन्य तकनीक लाए.

ओएफबी के खराब प्रबंधन का अभिशाप अकुशल कर्मचारियों की 80 हजार की फौज थी जिसे वेतन देने पर 7,000 करोड़ रु. खर्च किए जा रहे थे. नये ‘डीपीएसयू’ इस बोझ को ढोते रहेंगे. सरकारी विभाग तो इस बोझ को बर्दाश्त कर सकता है लेकिन कॉर्पोरेट संस्था नहीं कर सकती. इसलिए पेंशन के बिना सेवानिवृत्ति का आकर्षक पैकेज देना विवेक सम्मत होगा. ‘डीपीएसयू’ के प्रबंधन के लिए निजी क्षेत्र से सर्वश्रेष्ठ को लाया जाए. सरकारी कंट्रैक्टर संचालित मॉडल ‘गोको’ भी अच्छा विकल्प हो सकता है.

अनुभवजनित यही कहता है कि रक्षा उद्योग को तब तक नहीं चलाया जा सकता जब तक उससे निर्यात बाज़ार न जुड़ा हो. इस बाजार को हासिल करने के लिए अत्याधुनिक सामान बनाने पड़ेंगे. इसके लिए विदेशी रक्षा उत्पादकों से रणनीतिक सहयोग की जरूरत होगी. भारत हथियारों का 23वां सबसे बड़ा निर्यातक है लेकिन बाजार में उसकी हिस्सेदारी मात्र 0.17 फीसदी की है. सरकार ने अपनी हथियार निर्यात नीति की समीक्षा की है और 2024 तक 5 अरब डॉलर मूल्य के बराबर के निर्यात का लक्ष्य तय किया है. मेरे खयाल से हम एक दशक में 10-15 अरब डॉलर के बराबर के निर्यात का लक्ष्य रख सकते हैं, जो हमारे मौजूदा वार्षिक रक्षा पूंजी खर्च के बराबर है.

भारत ने रक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भरता के लिए कई सुधार शुरू किए हैं. ‘रक्षा अधिग्रहण प्रक्रिया-2020’ एक विस्तृत दस्तावेज़ है लेकिन यह उगाही पर ज़ोर देता है और आयात की ऋणात्मक सूची केवल एक प्रोत्साहन है. लेकिन देसीकरण को तकनीक, फंड, और सरकारी तथा निजी रक्षा उद्योग आधार के पुनर्गठन से बढ़ावा मिलेगा. देसी शोध तथा विकास, विदेश रक्षा निगमों के साथ रणनीतिक सहयोग और पब्लिक-प्राइवेट सहयोग में वृद्धि ही आगे का रास्ता बनाएंगे.

केंद्र सरकार सही रास्ते पर है और उसे सुधारों को आगे बढ़ाने में हिचकना नहीं चाहिए. मुझे कोई कारण नहीं नज़र आता कि अगले दशक में हम 75 फीसदी देसीकरण का लक्ष्य क्यों नहीं हासिल कर सकते. याद रहे कि विचार बुद्धि से ही उभरते हैं लेकिन उन्हें अमल में लाना इच्छा शक्ति पर निर्भर करता है, जो कि चरित्र की दृढ़ता में निहित होती है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(ले.जन. एचएस पनाग, पीवीएसएम, एवीएसएम (रिटायर्ड) ने 40 वर्ष भारतीय सेना की सेवा की है. वो जीओसी-इन-सी नॉर्दर्न कमांड और सेंट्रल कमांड रहे हैं. रिटायर होने के बाद वो आर्म्ड फोर्सेज ट्रिब्यूनल के सदस्य रहे. व्यक्त विचार निजी हैं)


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