दुनियाभर के ज्यादातर देश मौजूदा समय में दो चुनौतियों से जूझ रहे हैं— एक महामारी को फैलने से रोकना और दूसरी सार्स-कोव-2 वायरस के खात्मे के लिए टीकाकरण जल्द से जल्द पूरा करना. लेकिन स्वास्थ्य अधिकारियों के मन में सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या वैक्सीन निर्माता दूसरे लक्ष्य को हासिल करने के लिए पर्याप्त खुराक मुहैया करा पाएंगे.
भारत में कोविड-19 टीकाकरण कार्यक्रम शुरू होना अभी बाकी है लेकिन इससे पूर्व ही दो प्रमुख टीका निर्माता कंपनियों सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (एसआईआई) और भारत बायोटेक, केवल इनके वैक्सीन कैंडीडेट कोविशिल्ड और कोवैक्सिन को ही मंजूरी मिली है, की एक-दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिशें तो एकदम एंटीवैक्सर की तरह व्यवहार करने जैसी लगने लगी हैं. इसने नरेंद्र मोदी सरकार के लिए ऐसे समय में एक रेफरी वाली भूमिका निभाने की अवांछित स्थिति उत्पन्न कर दी है जबकि उसे पहले से ही स्वास्थ्यकर्मियों और फ्रंटलाइन कार्यकर्ताओं जैसे प्राथमिक समूहों के टीके की खुराक लेने से थोड़ा परहेज करने की आशंका सता रही है.
आपसी लड़ाई ने नुकसान पहुंचाया
सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया के सीईओ अदर पूनावाला ने मंजूरी के बाद पहली प्रतिक्रिया में कहा था, ‘केवल तीन टीके हैं जिन्होंने प्रभावकारिता साबित की है— ऑक्सफोर्ड-एस्ट्राजेनेका, फाइजर और मॉडर्ना. बाकी सब तो पानी की तरह ही सुरक्षित साबित हुए हैं.’
पूनावाला की प्रतिक्रिया पर भारत बायोटेक के सीएमडी डॉ. कृष्णा इल्ला की तरफ से तीखा पलटवार किया गया, जिन्होंने एस्ट्राजेनेका— जिसका सीआईआई कोविशील्ड के नाम से निर्माण और बिक्री करने वाली है, की ट्रायल प्रक्रिया को ‘घटिया’ करार दिया. उन्होंने कोविशील्ड में इस्तेमाल हुई तकनीक पर भी यह कहकर सवाल उठाए, ‘एडेनोवायरस वेक्टर-आधारित टीके अगले साल इस्तेमाल किए जाने पर काम नहीं कर सकते क्योंकि स्पाइक प्रोटीन और एडेनोवायरस वेक्टर दोनों के लिए एक इम्यून रिस्पांस होगा. तीसरी खुराक के बाद से एंटीबॉडी वेक्टर के खिलाफ हमला करेंगे और यहां तक कि स्पाइक प्रोटीन भी इस पर प्रतिक्रिया नहीं कर पाएगा.’
सूत्रों ने कहा कि सरकार ने इस पर दोनों कंपनियों की खिंचाई की और साफ कहा कि यह सब तमाशा बंद करके अपने काम पर ध्यान दें और एंटी-वैक्सीन आवाजों को और तेज करने की वजह न बनें.
मंगलवार को दोनों कंपनियों ने अपने सारे विवाद दरकिनार कर एक संयुक्त बयान जारी किया और कहा कि उनका एकमात्र उद्देश्य भारत और अन्य देशों के लिए कोविड-19 टीकों का विकास, निर्माण और आपूर्ति करना है.
बयान में कहा गया, ‘उनके सामने अधिक बड़ा काम भारत और दुनियाभर की आबादी का जीवन और आजीविका को बचाने का है. टीके वैश्विक सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए हैं और उनमें जीवन बचाने के साथ-साथ आर्थिक स्थिति को जल्द से जल्द पटरी पर लौटाने की ताकत भी है.’
लेकिन, सरकारी अधिकारियों को डर है कि नुकसान तो पहले ही हो चुका है.
एक वरिष्ठ अधिकारी ने मुझे बताया, ‘जो कुछ भी हुआ वह नहीं होना चाहिए था. यह एकदम अवांछनीय है, यही वजह है कि उन्हें आगाह किया गया. यहां हम जो कुछ कर रहे हैं उसका उद्देश्य आम लोगों के बीच भरोसा बढ़ाना है और जब भी ऐसा कुछ होता है, सारी कोशिशों पर पानी फिर जाता है.’
नेशनल एक्पर्ट ग्रुप ऑन वैक्सीन एडमिनिस्ट्रेशन फॉर कोविड-19 के चेयरमैन डॉ. वी.के. पॉल से मंगलवार को जब यह पूछा गया कि वह कौन-सी वैक्सीन लेना पसंद करेंगे तो उनका कहना था, ‘मैं वह वैक्सीन लूंगा जो मेरा स्वास्थ्य मंत्रालय मेरे लिए चुनेगा.’
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वैक्सीन को लेकर हिचकिचाहट बढ़ रही
मोदी सरकार ने कोविड-19 वैक्सीन को लेकर लोगों में बढ़ती हिचकिचाहट को दूर करने के लिए पहले ही रणनीति बना ली है और इसे राज्यों के साथ भी साझा किया है. इनमें सामुदायिक भागीदारी बढ़ाना (खासकर परंपरागत रूप से वैक्सीन-विरोधी समूहों के बीच), दुष्प्रचार व भ्रामक सूचनाओं पर काबू पाने के लिए डिजिटल मीडिया की रियल टाइम मॉनीटरिंग और संपादकों का एक पूल बनाना शामिल है, जो अपने लेखों में टीके की अहमियत बताकर लोगों के बीच भरोसा कायम करेंगे.
हालांकि, दिसंबर में ऑनलाइन प्लेटफॉर्म लोकल सर्किल्स के एक सर्वेक्षण में पाया गया कि इसमें हिस्सा लेने वाले 69 प्रतिशत भारतीयों ने टीका लेने के प्रति झिझक दिखाई.
यह काउंटर-इन्ट्यूटिव हो सकता है लेकिन भारत में कोविड-19 का गिरता ग्राफ अच्छी खबर होने के साथ-साथ वैक्सीन लगवाने को लेकर झिझक की भावना को और बढ़ा देगा. सार्वजनिक स्वास्थ्य में यह एक स्थापित तथ्य है कि जैसे-जैसे टीके सफल होते जाते हैं, लोग उन बीमारियों को लेकर अनिश्चितता की स्थिति भूल जाते हैं जिन पर उन्होंने काबू पाया है. यही वजह है कि अमेरिका में पिछले कुछ वर्षों में खसरा और वैक्सीन के जरिये काबू में की जा सकने वाली अन्य बीमारियां फिर बढ़ी हैं.
गावी के सीईओ सेथ बर्कले ने 2019 में लिखा था, ‘ज्यादातर बीमारियां अगर फिर नहीं लौट पातीं तो इसका एकमात्र कारण यही है कि दुनियाभर में औसतन 86% बच्चों को बेसिक वैक्सीनेशन मिलता है— जैसा डिप्थीरिया-टेटनस-पर्टुसिस वाली वैक्सीन की तीन खुराकें मिलने के आधार पर मापा जाता है और जो 1974 में मात्र 5% होता था. यह एक बड़ी उपलब्धि है लेकिन इसने सुरक्षा की एक झूठी भावना भी पैदा की है कि आधुनिक चिकित्सा संक्रामक बीमारी को अतीत की बात बना सकती है.’
भारत में कोविड-19 के आंकड़ों की बात करें तो मौजूदा समय में 2,28,083 एक्टिव केस हैं, जिनमें गुरुवार को सामने आए 20,346 मामले शामिल हैं— ये भी नागरिकों में सुरक्षा की झूठी भावना उत्पन्न कर सकते हैं.
ऐसे में कहा जा सकता है कि किसी प्रभावकारिता डाटा के बगैर या इसके म्यूटेंट यूके स्ट्रेन के प्रति कारगर होने के किसी ठोस प्रमाण के बिना कोवैक्सिन को जल्दबाजी में मंजूरी देने का यह शायद उपयुक्त समय नहीं है.
डॉ. इल्ला ने सोमवार को अपनी प्रेस कांफ्रेंस में वादा किया था कि उनकी कंपनी भारत बायोटेक एक सप्ताह में वैक्सीन के यूके स्ट्रेन के खिलाफ काम करने का प्रमाण देगी. लेकिन शीर्ष सरकारी अधिकारियों का कहना है कि कोवैक्सिन की प्रभावकारिता का डाटा मिलने में अभी कम से कम एक महीने का समय लगेगा.
डाटा की कमी, क्लीनिकल ट्रायल की गुणवत्ता पर संदेह और राष्ट्रीय अभियान के तहत एक भी खुराक दिए जाने से पूर्व ही हाल में स्वीकृत कोविड-19 टीके की गुणवत्ता पर सवाल, सबने एक साथ मिलकर एक खतरनाक स्थिति बना दी है. यहां तक कि मकर संक्रांति पर वैक्सीन का रोलआउट, जैसा उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने वादा किया है, भी संभवत: इस नुकसान की भरपाई नहीं कर पाएगा.
(व्यक्त विचार निजी हैं)
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