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Saturday, 21 December, 2024
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बहस को ‘मोदी फासीवादी हैं’ के स्तर पर मत लाइए, भारत को पॉपुलिज्म की बेहतर आलोचना की ज़रूरत है

मुझे डर है कि यदि हमने दूसरों को, फोन्स पर अपनी छवि के मुक़ाबले, मंच-सामग्री या प्रतिद्वंदियों से, कुछ बड़ा देखने की कोशिश नहीं की, तो हम जल्द ही भूल जाएंगे कि एक दूसरे के साथ संबंध कैसे बनाए जाते हैं.

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नरेंद्र मोदी सरकार के सात वर्ष और संचार के प्रति उसके अनोखे नज़रिए को समझने के लिए, हमें एक अलग वर्षगांठ के साथ शुरुआत करनी चाहिए. अब से कुछ ही दिनों में, तोड़फोड़ की उस दहलाने वाली हरकत को दो साल हो जाएंगे, जो हंपी के पास तुंगाभद्रा के एक छोटे से द्वीप पर हुई थी: जिसमें 15वीं सदी के द्वैत दार्शनिक श्री व्यास तीर्थ के, तुलसी के पौधों वाले पुण्य स्थल नव बृंदावन को अपवित्र किया गया था.

बहुत से व्यावसायिक तीर्थ स्थलों के विपरीत, द्वैत परंपरा के बाहर नव बृंदावन द्वीप के बारे में बहुत कम जानकारी है. ऐसी जगह पर हिंसा का होना बहुत ही बर्बर था. वो न सिर्फ सांस्कृतिक पवित्रता, बल्कि प्रकृति का भी उल्लंघन था. जो चीज़ इस जगह को महत्वपूर्ण बनाती है, वो केवल इसके स्मारक नहीं हैं, बल्कि ये है कि पूरी घाटी अपनी पहाड़ियों और पत्थरों के साथ, सैकड़ों साल से ऐसी ही स्थिति में बनी हुई है. एक पवित्र भूगोल जो ‘विकास’ से अछूता है. लालच यहां भी पहुंच गया.

इस घटना से जुड़े अविश्वास का एक दूसरा बिंदु, जो हमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दौर में, संचार के मुद्दे पर ले आता है, वो एक ख़ास प्रतिक्रिया है जो ट्विटर पर फैल गई. इस अपवित्र कार्य की गंभीरता के बावजूद, कुछ ही घंटों में एक उल्लासित और ख़ुद को बधाई देता लहजा सामने आने लगा: क्या पुनर्निर्माण होता अगर मोदी की जगह ‘पप्पू’ प्रधान मंत्री होते? क्या ‘नया, आत्मविश्वासी हिंदू’ मोदी की प्रेरणा के बिना, बृंदावन को फिर से बना सकता था?

कुछ लोग कह सकते हैं कि इस सकारात्मक लहजे ने, अनावश्यक सांप्रदायिकता को टाल दिया. लेकिन फिर भी, इसमें एक बांटने वाला कोण ग़ायब नहीं है. ट्वीट में आगे कहा गया, देखिए ज़रा हमें (उन लोगों के) विपरीत…हम कोई विरोध या दंगे नहीं करते, जब हमारे पवित्र स्थलों का अनादर होता है. इस तरह की डींग हांकना, सोशल मीडिया पर हिंदू प्रतिक्रिया की एक नियमित विषेषता बन गई है. इसकी सबसे ताज़ा मिसाल हाल ही में देखने को मिली, जब चार्ली हेब्दो के एक कार्टून में, भारत में कोविड-19 त्रासदी पर, हिंदू देवताओं का मज़ाक़ उड़ाया गया (हम सर नहीं काटते! हम हिंदू हैं!).

मैं ये कहानी इसलिए साझा कर रहा हूं कि ऐसा लगता है कि ये, उस आंदोलन के ‘ज़मीनी’ संचार की एक मिसाल है, जो प्रधानमंत्री मोदी को सत्ता में लाई है, और उन्हें वहां बनाए हुए है.


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ध्रुवीकरण और ‘मुंहतोड़ जवाब’

कुछ हफ्ते पहले मैंने दिप्रिंट में, एक गंभीर राष्ट्रीय आपदा के परिवेश में, संचार को लेकर प्रधानमंत्री मोदी के नज़रिए की तीखी आलोचना की थी. उसके बाद से प्रधानमंत्री ने शोक का इज़हार किया है, लेकिन अपने अनुयायियों को आश्वस्त भी किया कि ‘देश ने उन्हें मुंहतोड़ जवाब दिया है, जो उसके खिलाफ साज़िश करते हैं,’ शायद ‘टूलकिट’ सर्कस की ओर एक इशारा था.

सच्चाई कुछ भी हो, यहां जिस गहरे सवाल को मैं खोजना चाहता हूं, वो है ध्रुवीकरण जिसने भारत को वास्तविकता की, दो वैकल्पिक अवधारणों के बीच बांट दिया है. दोनों पक्ष बड़ी गहराई से अपने विश्वास रखते हैं कि ‘मोदी एक फासीवादी हैं’ या फिर ‘मोदी एक मसीहा हैं’. मैं 2014 में फासीवाद के आरोप से सहमत नहीं था, जो शैक्षणिक समुदाय और पश्चिमी मीडिया में प्रचलित था, और मैं रक्षक की उस उपासना से भी सहमत नहीं हूं, जो सोशल मीडिया में छाई रहती है. मैं तटस्थ रहने के लिए ऐसा नहीं कह रहा, लेकिन वो सवाल उठाना जिनकी ज़रूरत है, प्रचार और ताक़त की एक बेहतर आलोचना होगी, बजाय उसके जो हमने अभी तक किया है; ट्विटर और फेसबुक तथा नेटफ्लिक्स जैसे वैश्विक निगमों तथा लोकवादी राजनीतिक हस्तियों और उनके शक्तिशाली तंत्र, दोनों की आलोचना. हमें शायद बाएं और दाएं, दोनों ओर से आलोचना चाहिए, और केवल उन्हीं की नहीं.

मुझे लगता है कि हम बंट चुके हैं, कम से कम कुछ हद तक, क्योंकि सोशल मीडिया (और कुछ विरासत वाले मीडिया भी) ने, हमारे अंदर अपने मुख़ालिफों के प्रति सबसे ख़राब विश्वास बिठा दिए हैं. अब हम ‘हमेशा सक्रिय’ रहते हैं, सोशल मीडिया पर देखने और दिखने में, जुड़ने की ख़ातिर नहीं, बल्कि छवि के लिए संचार करने में. हम साझा करने के लिए कम लिखते हैं, दिखावे के लिए ज़्यादा. ऐसा लगता है कि आज के नेताओं के लिए, संचार का एकमात्र लक्ष्य, ‘गौचा’ लमहा (जैसा अमेरिका में कहा जाता है) या ‘मुंहतोड़ जवाब’ (जैसा भारत में कहते हैं) रह गया है.

सामाजिक दुविधा

हम अत्यधिक अलगाव तथा सामाजिक विखंडन की दौड़ में हैं. हर शब्द, हर ट्वीट एकतरफा दिखाई पड़ता है, कोई लेबल या कोई आरोप लगता है, ना कि विचार के लिए आमंत्रण. हम एक दूसरे को ‘दक्षिणपंथी’ या ‘वामपंथी’ क़रार देते हैं (और मुझे भी एक अजीब से लेवल से छुटकारा पाना है, जो मुझे पिछले महीने मिला: ऐसा कैसे हो सकता है कि एक अख़बार का स्तंभ लेखक, जिसके नाम में ‘वॉल स्ट्रीट’ लगा हो, हिंद स्वराज की वकालत करने वाले एक प्रोफेसर को, हिंदूवादी बुद्धिजीवी कहकर निकल जाए!) हम एक दूसरे को ‘भक्त’ या ‘राष्ट्र-विरोधी’ कहकर बदनाम करते हैं. हम अपने मित्रों तथा परिवार के सदस्यों से निंदा करवाते हैं. हम शेख़ी बघारते हैं कि हमने अपने बुज़ुर्गों को बंद कर दिया, क्योंकि उन्होंने ग़लत वोट दिया. नरम शब्दों में कहें, तो हम उन्हीं चीज़ों के हाथ में खिलौना बने हुए हैं, जिनसे खेलना हम नहीं छोड़ सकते. (डॉक्युमेंट्री द सोशल डिलेमा हमारे समय की, अगर आदर्श नहीं तो एक अच्छी आलोचना है).

मुझे डर है कि यदि हमने दूसरों को, फोन्स पर अपनी छवि के मुक़ाबले, मंच-सामग्री या प्रतिद्वंदियों से, कुछ बड़ा देखने की कोशिश नहीं की, तो हम जल्द ही भूल जाएंगे कि एक दूसरे के साथ संबंध कैसे बनाए जाते हैं. और दुखद है कि सियासत की जो भाषा, हम आजकल इस्तेमाल करते हैं, वो इसी ध्रुवित करने वाले और दिखावा करने वाले अंदाज़ में फंसी हुई है. जब आलोचना विषैली होती है और सच्चाई की बजाय कट्टरता तथा पूर्वाग्रह से प्रेरित लगती है, तो फिर लोग अंत में एक ऐसे बिंदु पर पहुंच जाते हैं, जहां वो अपने कथित प्रतिद्वंद्वियों का कभी यक़ीन नहीं करेंगे, जैसे वो ‘लड़का जो भेड़िया-भेड़िया चिल्लाता’ था. जब सत्तारूढ़ पार्टी दो युवा महिलाओं को परेशान करने का तमाशा बना देती है, और संचार ज्ञापनों को देश को तोड़ने वाला हौआ बना देती है, जिसे ‘टूलकिट’ कहा जाता है (दिशा रवि और सौम्य वर्मा), तो फिर जब उसे कहीं अधिक गंभीर मामले में, किसी पर मुक़दमा चलाना होगा, तो नैतिक आधार पर वो कोई केस नहीं बना पाएगी. और इसके विपरीत, जब सत्ताधारी पार्टी के आलोचक, महिलाओं के साथ हुए अपराधों का विरोध करते हैं, और उसमें कामुक रूप से हिंदू देवी-देवताओं तथा प्रतीकों की तस्वीरों का इस्तेमाल करते हैं, तो वो भी कोई सैद्धांतिक विरोधी नहीं, बल्कि कट्टर हिंदुत्ववादी नज़र आते हैं.


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विशेषज्ञता का संकट

ध्रुवीकरण आज समस्या का एक हिस्सा है. इससे भी ख़राब उस सरकार के विनाशकारी परिणाम हो सकते हैं, जो एकतरफा और ऊपर से नीचे के संचार की आदी होती है, जिसमें सार्वजनिक मामलों के मार्गदर्शन में, विशेषज्ञों की भूमिका ख़त्म हो जाती है. मार्च 2020 में ही, सार्वजनिक स्वास्थ्य के प्रोफेसर रमा बारू ने हिंदुस्तान टाइम्स में लिखा था, कि महामारी के दौरान एक नोडल संचार एजेंसी का होना आवश्यक था. एक साल बाद, न सिर्फ आपात स्थिति के दौरान हमारे पास, ऐसी कोई विशिष्ट संचार एजेंसी नहीं है, बल्कि स्थिति ऐसी है कि ख़ुद सरकार ने, संचार के विचार को तबाह किया हुआ है.

इसका एक प्रमुख सूचक 97 पन्नों का एक मोटा दस्तावेज़ है, जो इस साल दि वायर में, सरकारी संचार पर मंत्री समूह की रिपोर्ट के शीर्षक से छपा था. कुछ सम्मानित पत्रकारों की मौजूदगी के बावजूद, उसकी बैठकें डिलबर्ट कार्टून्स जैसे नज़ारे पेश करती हैं, इच्छा सूचियों और चमत्कारिक आंकड़ों से भरी: ‘हमें 50 नकारात्मक और 50 सकारात्मक प्रभाव रखने वाले लोगों पर नज़र रखनी चाहिए’ (ईरानी, प.9) ; ‘हमें 10 बड़े नैरेटिव्ज़ की पहचान करके, इस बात पर ग़ौर करना चाहिए कि हम संदेशों को आम लोगों तक कैसे ले जाएं’ (जयशंकर, प.11) ; ‘लगभग 75 प्रतिशत मीडिया, श्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व से प्रभावित है’ (अज्ञात, प.15); ‘नैरेटिव को क़रीब 20-30 लोग हवा देते हैं’ (जावड़ेकर, प.10). और निस्संदेह एकमात्र गुणात्मक विचार, जो सत्ताधारी पार्टी के पास दुनिया भर को संदेश देने के लिए है: ‘दूसरे देखों की दक्षिणपंथी पार्टियों को साथ लेना होगा, ताकि कुछ सामान्य आधार तलाश किया जा सके’ (ठाकुर, प.14).

इसकी बहुत सी ‘सॉफ्ट पावर’ और ‘विश्व गुरू’ पहलक़दमियों की तरह, ऐसा लगता है कि वास्तविक दुनिया इस सरकार की समझ से बाहर है, और वो असल में कुछ करने की बजाय, करने का दिखावा मात्र कर रही है, और ज़्यादा से ज़्यादा एक विफल होती, ‘दक्षिणपंथी’ गाड़ी में सवार हो रही है, भले ही पश्चिम में उसका रिकॉर्ड कितना भी ख़राब रहा हो.

सच्चाई ये है कि करने के लिए जानना होता है, और जानने के लिए सुनना होता है. लगता है दुर्भाग्य से, सीताराम गोयल भी इसे ठीक से समझ गए हैं. जैसा कि उन्होंने टाइम फॉर स्टॉक टेकिंग: वाइदर संघ परिवार में लिखा, ‘संघ परिवार कभी ऐसी किसी चीज़ को नहीं छूता, जो उसके अंदर से शुरू नहीं होती’. एक समाज सेवा संगठन बनना और बने रहना एक बात है. लेकिन उसी रवैये के साथ, आपस में पूरी तरह जुड़ी हुई दुनिया में, एक पूरे राष्ट्र पर राज करना, एक बिल्कुल अलग बात है.

बिना किसी कहानी की ताक़त

निष्कर्ष में, मैं नव बृंदावन घटना पर ही लौटता हूं. इसमें शायद कोई आश्चर्य नहीं कि सत्तारूढ़ दल के तौर पर, भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने, नकारात्मक की बजाय (जैसा कि इस साल के शुरू में, आंध्र प्रदेश में मंदिरों को अपवित्र करने में हुआ था, जहां एक अलग पार्टी का शासन है) उसमें एक उल्लास का पुट भरने की कोशिश की. लेकिन सवाल वही है. क्या सत्तारूढ़ पार्टी के पास प्रतिक्रियाशील स्पिन से आगे कोई कहानी है? अगर है, तो वो कहानी क्या है? बीजेपी के अंतर्गत भारत लोगों, संस्कृतियों, ज़मीन, प्रकृति, इतिहास को कैसे देखता है?

2014 से 2015 तक, जब कुछ प्रचारकों ने उदारता दिखाते हुए, अपने इतिहास तथा वैश्विक नज़रिए से जुड़ीं किताबें पढ़ने के लिए दीं, तो मैं ये मानने लगा कि आलोचकों के पास ग़लत सूचना थी, जिससे वो संघ के लक्ष्य को, दक्षिणपंथी हिंदू धार्मिक राष्ट्र की, परिकल्पना के तौर पर देख रहे थे. उनकी किताबें उस तरह के हिंदूवाद के बारे में नहीं थीं, जिसे हम जानते हैं; देवी-देवता, संस्कृति, सौंदर्यशास्र, ऐसा कुछ नहीं था उनमें. ज़्यादा से ज़्यादा ये लोगों के लिए स्वयं सहायता और प्रबंधन था, जिसमें निजी बदलाव (चरित्र निर्माण) के तरीक़े के रूप में, सेवा तथा राष्ट्रीय गर्व पर बल दिया गया था. उनकी वृहत राजनीतिक परिकल्पना, कम से कम सिद्धांत रूप में, दीनदयाल उपाध्याय का एकात्म मानवदर्शन था, जो आज़ादी के बाद गांधी के हिंद स्वराज का परिणाम था.

दुर्भाग्यवश पिछले कुछ सालों में, हमने नाम के अलावा दीन दयाल उपाध्याय का कुछ नहीं देखा है. उसकी बजाय संचार के प्रति मोदी सरकार का रवैया, अपना मार्गदर्शन एक विशेष प्रकार के अमानवीकरण से लेता है, जो एक भावशून्य और वस्तुपरक दृष्टिकोण है, जिसमें इंसानों को घटाकर, संख्या तथा लक्ष्यो में परिवर्तित कर दिया जाता है. इसमें इंसानों को इंसानों की तरह नहीं, बल्कि अनुयायी, दुश्मन या भविष्य में धर्म परिवर्तन करने वालों के तौर पर देखा जाता है. चाहे इसे ‘विकास’ कहें या ‘हिंदुत्व’, ये कहीं से भी शुभ नहीं है. ऐसा लगता है कि भारत में, टेक्नोक्रेसी का राज है, जिसे उसके समर्थक नैतिकता समझते हैं, और विरोधी धर्म समझते हैं.

जहां तक हिंदूवाद का सवाल है, अभी तक बीजेपी बड़े अच्छे से एक दोहरा खेल खेलती रही है, लेकिन आख़िरकार, सवालों के जवाब देने ही होंगे. उसके लिए हिंदुत्व का क्या मतलब है, उपनिवेशवाद के अंत का देसी रूप या केवल नक़ल किया हुआ दक्षिणपंथी राष्ट्रवाद है? बीजेपी उन हिंदुओं की निराशाओं से कैसे निपटेगी, जो केरल से लेकर हिमालय तक, पवित्र स्थलों में राज्य की विनाशकारी घुसपैठ से लड़ रहे हैं? जब ये उन्हें ट्विटर शिकारियों के आगे फेंकती है, तो क्या उसकी मंशा है कि वो कभी अपने विरोधियों का विश्वास हासिल करेगी?

अभी के लिए, ऐसा लगता है कि बीजेपी ने तय कर लिया है कि वो ख़ुद को ‘हिंदू’ की बजाय ‘दक्षिणपंथी’ के तौर पर पेश करेगी (संभवत: इसलिए कि दुनिया की निगाहों में वो दूसरे को ज़्यादा सम्मानित समझती है) और उसके आलोचक अभी तक इसी विश्वास में फंसे हुए हैं कि बीजेपी की सबसे अच्छी आलोचना, उसके उसके दक्षिणपंथीवाद की नहीं, बल्कि हिंदू जुड़ाव की हो सकती है. ये हमारे राजनीतिक प्रवचन की सीमाएं हैं, हमारी क्षमता की सीमाएं हैं कि हम सोशल मीडिया के मुंहतोड़ जवाब के विभाजनों के उस पार देख सकें. इन वास्तविकताओं को देखते हुए शायद कुछ समय के लिए हम आरोपों के बीच में फंसे हुए हैं, जिनमें एक तरफ ‘हिंदूफोबिया’ है, और दूसरी तरफ ‘हिंदू फासीवाद’ है, जब तक किसी तरह बातचीत की कोई तीसरी जगह नहीं खुल जाती. मैं कल्पना करता हूं कि एक ऐसा हम्पी, जिसकी अपनी तूलू-तेलुगू-कन्नड़ (और अन्य) आवाज़ें हैं, अपने द्वैत-अद्वैत-जैन दार्शनिक हैं, समृद्ध कला और जीवन है, और जिसमें एक ऐसे भविष्य की आशा है, जिसमें हम जो हैं वो हैं, अभी भी संभव है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(वामसी जुलूरी @VamseeJuluriसैन फ्रांसिस्को यूनिवर्सिटी में मीडिया स्टडीज़ के प्रोफेसर हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.)


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