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Friday, 19 April, 2024
होममत-विमतअब मोदी को एक नए अरविंद केजरीवाल से भी निपटना होगा और वो हैं ममता बनर्जी

अब मोदी को एक नए अरविंद केजरीवाल से भी निपटना होगा और वो हैं ममता बनर्जी

केंद्र की भाजपा सरकार से निरंतर टक्कर ममता और अरविंद केजरीवाल को अपना कद क्षेत्रीय क्षत्रप से राष्ट्रीय नेता का बनाने में मदद तो करती ही है, यह भी दर्शाती है कि वे मोदी से मुक़ाबला करने का दमखम रखते हैं.

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ममता बनर्जी नया अरविंद केजरीवाल हैं, जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से सीधी टक्कर ले रही हैं, केंद्र सरकार से लगातार मुक़ाबला कर रही हैं. ऐसा लगता है, उन्हें अच्छी लड़ाई के लिए हमेशा मानो खुजली मची रहती है. मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार, और पश्चिम बंगाल की बागडोर संभाल रहीं ममता के बीच सबसे ताजा टक्कर मुख्यमंत्री के शीर्ष अधिकारी से उनके सलाहकार बने अलपन बंद्योपाध्याय को लेकर हुई है, जो इस प्रवृत्ति का सबसे ताजा उदाहरण है.

कहने की जरूरत नहीं कि मोदी सरकार में सहयोगी संघीय व्यवस्था पूरी तरह चरमरा गई है. इसके सबसे ज्वलंत उदाहरण हैं केजरीवाल की दिल्ली सरकार और पश्चिम बंगाल की तृणमूल कांग्रेस सरकार के साथ केंद्र के समीकरण.

एक समय था जब केंद्र तथा दिल्ली सरकार, और केजरीवाल-मोदी के बीच निरंतर टक्कर हर दूसरे दिन अखबारों की सुर्खियां बनती थीं. अब ऐसा लगता है कि ममता ने उनकी जगह ले ली है, जो हर कोने से एक आक्रामक विपक्षी नेता नज़र आती हैं.

केजरीवाल और ममता, दोनों एक ही शैली की राजनीति करती हैं. वे जमीन पर उतरकर लड़ने वाले, उग्र, अपने मतदाताओं की पहचान रखने वाले, और सबसे महत्वपूर्ण यह कि सचमुच मोदी को टक्कर देने वाले विपक्षी नेता के रूप में उभरने की आकांक्षा रखने वाले नेता हैं.


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ममता-मोदी झड़पें

अलपन बंद्योपाध्याय प्रकरण तो ‘ममता-मोदी मुक़ाबला’ नामक तेजी से आकार लेते बहुचर्चित ग्रंथ का एक अध्याय भर है.

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इन दो लोकप्रिय नेताओं की राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता, जो 2019 के लोकसभा चुनाव और पश्चिम बंगाल के ताजा विधानसभा चुनाव के दौरान उभरकर सामने आई, तो अलग बात है; लेकिन शासन, प्रशासन, केंद्र-राज्य संबंधों आदि के मामलों में निरंतर टकराव पश्चिम बंगाल और मोदी सरकार के संबंधों की पहचान बन गई है.

हाल की कुछ घटनाओं पर नज़र डालिए, और आपको मूल बातें स्पष्ट हो जाएंगी.

‘यास’ चक्रवात के कारण राज्य में हुए नुक़सानों का जायजा लेने के लिए प्रधानमंत्री मोदी के साथ 28 मई को एक बैठक रखी गई, जिसमें मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और राज्य के मुख्य सचिव बंद्योपाध्याय नहीं उपस्थित हुए. बैठक रद्द कर दी गई; और इसके बाद भाजपा नेताओं ने ममता पर एक स्वर में हमला बोल दिया.

इससे कुछ ही दिन पहले नारद रिश्वत कांड में ममता बंगाल के मंत्रियों, फरहाद हाकिम और सुब्रत मुखर्जी, विधायक मदन मित्र और कोलकाता के मेयर सोभन चटर्जी को गिरफ्तार किए जाने पर ममता ने सीबीआइ को आड़े हाथों लिया.

मोदी और ममता की सरकारों के बीच कई मसलों को लेकर मतभेद उभरे हैं— चाहे वह कोविड महामारी से निबटने का और केंद्रीय गृह मंत्रालय द्वारा अपनी टीम भेजने का मामला हो या ‘अंफन’ तथा ‘यास’ तूफानों से हुए नुकसान की भरपाई के लिए ‘अपर्याप्त’ फंड देने का मामला हो; या जीएसटी, ‘कोयला चोरी’ मामले में ममता के भतीजे अभिषेक बनर्जी की पत्नी को समन भेजने, राज्य में चुनाव के बाद हुई हिंसा और आइएएस व आइपीएस अधिकारियों के तबादलों के मामले हों.

कोलकाता के आला पुलिस अधिकारी राजीव कुमार वाले प्रकरण की याद तो होगी ही? या पिछले दिसंबर में पश्चिम बंगाल के तीन आइपीएस अधिकारियों का तबादला करने के गृह मंत्रालय के फैसले की याद है, जिसे ममता ने ‘असंवैधानिक’ कहा था?

दरअसल, हाल में ममता ने मुख्यमंत्रियों के साथ बैठकों में प्रधानमंत्री की एकतरफा भाषण देने की प्रवृत्ति पर सवाल उठाया, और इसे मुख्यमंत्रियों के साथ ‘कठपुतली’ जैसा बरताव बताया.

यह टकराव सबसे नुमाया तब हो जाता है जब ममता के अमले और राज्यपाल जगदीप धनकड़ के बीच झड़प बेहद बदसूरत शक्ल ले लेती है. दरअसल, यह ममता के लिए एक रूपक बन गया है— केंद्र को अपने राज्य में दखल मत देने दो; और मोदी के साथ टक्कर को इतना चर्चित, उग्र और प्रामाणिक बना दो कि वे शक्तिशाली प्रधानमंत्री की प्रबल विरोधी दिखें.


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केजरीवाल-ममता के खेल

मोदी सरकार के साथ केजरीवाल की मशहूर टक्करों के बारे में ज्यादा कुछ कहने की जरूरत नहीं है, उनके बारे में खूब चर्चा हो चुकी है और बहुत कुछ लिखा जा चुका है. लेकिन ममता और केजरीवाल जो खेल खेलते हैं उनमें काफी समानता है. मोदी की लोकप्रिय छवि और चुनावी सफलताओं के आगे विपक्ष जबकि बौना दिखता रहा है तब इन दोनों ने अपनी पहचान मोदी को चुनौती देने, उनकी आंखों में आंखें डाल कर देखने, और उन्हें अपने-अपने मैदान से दूर रखने वाले नेताओं के रूप में बना ली है. ये टक्कर और झगड़े सारे जानबूझकर किए जाते हैं, उन्हें सुनियोजित तरीके से अपने-अपने राजनीतिक आधारों को ध्यान में रखकर छेड़ा जाता है. इस तरह के टकराव वाले तेवर इन क्षेत्रीय नेताओं के कद को राज्यों के क्षत्रपों से राष्ट्रीय विपक्षी नेताओं के रूप में स्थापित करते हैं, और उनके मतदाताओं को यह संदेश देते हैं कि वे ही अपने राज्य के असली बॉस हैं. दिल्ली और पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनावों के नतीजे, जिनमें भाजपा को धूल चाटनी पड़ी, सब कुछ बयान कर देते हैं और यह भी कि यह रणनीति कितनी कारगर रही है.

मोदी की भाजपा के लिए अब रास्ता कठिन हो गया है. वह अपने विरोधियों को एक कोने में कैद करना, उनके शासन में खामियां निकालना, उन्हें हर समय परेशान करते रहना चाहती है ताकि उनके लिए प्रशासन सुचारु रूप से चलाना मुश्किल हो जाए. इससे उसे लोकसभा चुनावों में इन राज्यों में अपनी स्थिति मजबूत करने में मदद तो मिली है, लेकिन मोदी इन नेताओं को गद्दी से उतारने में विफल रहे हैं.

जो भी हो, ममता हों या केजरीवाल या मोदी, सब अंततः बचकाने और अनावश्यक रूप से उग्र नज़र आते हैं, जिन्हें राजनीतिक शालीनता का कोई ख्याल नहीं है. लेकिन जिस दौर में अपना शोर मचाना और लोगों को अपनी बातें सुनाना ही ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया हो उसमें भलामानुस दिखने की परवाह कौन करता है?

ममता और केजरीवाल के लिए यह राजनीतिक चतुराई भले हो, यह अपने राज्य का शासन चलाने में आड़े भी आ सकता है. मोदी सरकार से निरंतर तनातनी के कारण भटकाव, और केंद्र के साथ सहयोगपूर्ण कामकाज न कर पाना इन नेताओं को शासन के मोर्चे पर कमजोर बना सकता है.

बहरहाल, मोदी के सबसे प्रखर प्रतिद्वंद्वी के रूप में उभरने के लिए होड़ जारी है, और सड़क पर उतरकर लड़ने वाले केजरीवाल, और अब ममता इस होड़ में बाकी सबसे काफी आगे नज़र आ रही हैं.

(यहां प्रस्तुत विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेजी में क्लिक करने के लिए यहां क्लिक करें)


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