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Thursday, 25 April, 2024
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ईमानदारी की शपथ को लेकर CDS और सेना प्रमुखों की आलोचना मत कीजिए, कबूल कीजिए कि सेना में भ्रष्टाचार है

सेना में खरीद की प्रक्रिया लगभग चाकचौबंद है, फिर भी अगर किसी घटिया सामान की मंजूरी मिल जाती है तो इसका मतलब है कि नेतृत्व या तो भ्रष्ट है या अक्षम है.

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आम धारणा यही है कि भारत के सभी सरकारी महकमों में सेना सबसे ईमानदार है. इसलिए सेना में बढ़ते भ्रष्टाचार के मामले हमेशा सुर्खियां बन जाते हैं और हम सब भारी चिंता में डूब जाते है. सेना किसी भी देश का अंतिम सहारा होती है इसलिए माना जाता है कि वह किसी भी पैमाने पर विफल नहीं होनी चाहिए. भ्रष्टाचार सेना की कमान संभालने वालों के स्तर और उनकी क्षमताओं का अंदाजा देता है. अगर फौज पैसे के मामले में बेईमान है, तो युद्ध में उसके संकल्प पर सवाल खड़ा हो जाता है. एक हाईकोर्ट जज ने पिछले साल ठीक ही कहा था कि ‘भ्रष्टाचार तो किसी भी विभाग में बर्दाश्त नहीं किया जा सकता लेकिन जब भारतीय सेना की बात आती है तो उसमें भ्रष्टाचार समाज के आत्मविश्वास को ही हिला कर रख देता है.’

सेना को निगरानी और सतर्कता सप्ताह’ मनाए दो दिन ही बीते थे कि ‘इंडिया टुडे’ ने 29 अक्टूबर को शर्मसार करने वाली यह खबर छाप दी— ‘लद्दाख को भी नहीं बख्शा, कंस्ट्रक्शन घोटाले ने सेना को सीबीआई का सहारा लेने को मजबूर किया’. खबर में बताया गया कि सेना के इंजीनियर-इन-चीफ के अधीन काम करने वाली मिलिटरी इंजीनियरिंग सर्विसेज (एमईएस) में भ्रष्टाचार का बोलबाला है. मेरा मानना है कि सेना के आलाकमान में अक्षमता या ईमानदारी की कमी के कारण सेना में भ्रष्टाचार का राज कायम हो गया है.

केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) की सलाह के मुताबिक, चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस) जनरल बिपिन रावत और तीनों सेनाओं के अध्यक्षों ने एक बहुप्रचारित समारोह में ईमानदारी की शपथ ली थी. इससे यह माना जा सकता है कि सैनिक कमान की पूरी चेन ने भी इस तरह की शपथ जरूर ली होगी. इस शपथ के मूल तत्व नियमों, नियंत्रणों, और सैन्य क़ानूनों में पहले ही औपचारिक तौर पर सम्मिलित किए जा चुके हैं. इसके बाद भी जनता के सामने यह शपथ सेना में भ्रष्टाचार को खत्म करने की आलाकमान की प्रतिबद्धता को ही जाहिर करती है.

यहां मैं सेना में भ्रष्टाचार के स्वरूपों, कारणों और उसे दूर करने के उपायों की चर्चा कर रहा हूं.


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भ्रष्टाचार का स्वरूप

खरीद-फरोख्त करने और कंस्ट्रक्शन/इन्फ्रास्ट्रक्चर के काम कराने वाले महकमों में प्रायः भ्रष्टाचार पाया जाता है. सभी बड़ी खरीद कमांड/सेना मुख्यालय/रक्षा मंत्रालय के स्तर पर की जाती है. सभी सरकारी संगठनों की तरह सेना में भी पैसे का सीधा लेन-देन नहीं होता. सभी खरीद और परियोजना के लिए क्वालिटी की शर्तें निश्चित की जाती हैं, टेंडर जारी किए जाते हैं, और सबसे कम की बोली लगाने वाले को काम का ठेका दिया जाता है. भ्रष्ट व्यवस्था इन सबमें चोरी करती है. भुगतान तभी किया जाता है जब काम पूरा हो जाता है या लंबी परियोजना के भिन्न-भिन्न चरणों में किस्तों में भुगतान किया जाता है. भुगतान रक्षा लेखा विभाग तभी करता है जब सक्षम अधिकारी भंडारण/सामान/ परियोजना की लागत की पूरी जांच कर लेता है.

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इस तरह, वेंडर यानी काम करने वाला वास्तव में सेना/सरकार को क्रेडिट देता है. इस प्रक्रिया में उपयोगकर्ता, कार्य अधिकारी, मंजूरी देने वाला अधिकारी और लेखा विभाग शामिल होता है. आम तौर पर भुगतान में बेहिसाब देरी होती है. वेंडर अपने जायज या बढ़ा-चढ़ा मुनाफा (भ्रष्टाचार के पैमाने के हिसाब से), बैंक से लिये गए कर्ज या खर्च किए गए पैसे पाए ब्याज और भ्रष्ट अधिकारियों को रिश्वत देने के तमाम खर्चों को वसूलने की कोशिश करता है. इसके चलते खरीद की लागत बेहिसाब बढ़ जाती है. उपयोगकर्ता घटिया माल कबूल करके इस घपले का भागीदार बन जाता है.

ऐसा ही कुछ सप्लाई/स्टोर/ सामान/ परियोजनाओं के मामले में भी होता है, जिसके मामले सेना मुख्यालय और रक्षा मंत्रालय केंद्रीय स्तर पर देखता है, या जिनका उत्पादन आयुध कारखानों में होता है. ये कारखाने अक्षमता या भ्रष्टाचार के चलते कमजोर नियंत्रण के कारण घटिया किस्म के हथियार बनाने के लिए बदनाम हैं.

मेरा मानना है कि भ्रष्टाचार के कारण सेना की ख़रीदारी का बजट करीब 25-30 प्रतिशत बढ़ा हुआ होता है. एक बार जब मैं यूनिट के स्टोर में तैनात था तब मुझे स्थानीय बाज़ार से खरीदी गई एए बैटरियां हाथ लगी थीं. उनकी जांच करने पर मैंने पाया कि वे पिलपिली हैं. इसकी जांच करवाई गई तो पता चला कि वे चीन में बनीं बैटरियां थीं और बाज़ार में वे 5 रुपये में चार बैटरियों की दर से उपलब्ध थीं जबकि उनकी खरीद 5 रु. प्रति बैटरी की दर से की गई थी, जो कि बाज़ार में उपलब्ध सबसे अच्छी बैटरी की दर थी. सभी यूनिटों ने घटिया बैटरी को कबूल कर लिया था, और प्रति बैटरी 3.75 रु. हड़प लिये गए थे.

सैनिकों के लिए वही अंडे खरीदे जाने हैं जिनका हरेक का वजन 48 ग्राम हो और दर्जन भर अंडों का वजन 600 ग्राम से कम न हो. जनवरी 2007 में मैं आर्मी कमांडर बना उसके बाद नमूनो की जांच मैंने पाया कि 25-30 ग्राम वजन वाले अंडे सप्लाई किए जा रहे हैं. उत्तरी कमान को प्रतिदिन 10 लाख अंडों की सप्लाई में 40 प्रतिशत वजन की कमी का मतलब था कि वजन के हिसाब से प्रतिदिन 4 लाख अंडे कम दिए जा रहे थे. करारनामे को इस तरह बदला गया था कि शर्त हल्की हो जाए. इसमें सभी सप्लाई डिपो की मिलीभगत थी, और प्रशासनिक तथा निगरानी कर्मचारियों समेत उपभोगकर्ता अक्षम थे.

अब जरा ‘इंडिया टुडे’ की रिपोर्ट पर विचार करें. सेना के लिए 2019 में कंस्ट्रक्शन परियोजनाओं का बजट 17,000 करोड़ का था. सभी सिविल इंजीनियरिंग इन्फ्रास्ट्रक्चर के निर्माण और रखरखाव के लिए ‘एमईएस’ जिम्मेदार है. इस इन्फ्रास्ट्रक्चर में इमारतों, हवाईअड्डे, बन्दरगाह, जल आपूर्ति, और बिजली शामिल है. कंस्ट्रक्शन इतना घटिया है कि नयी इमारतों को एक साल के अंदर रखरखाव में डालना पड़ता है और विडम्बना यह है कि यह भी ‘एमईएस’ कर्ता है. मेरठ में मैरेड अकोमोडेशन प्रोजेक्ट में बनाए गए मकानों को ध्वस्त करना पड़ा, और कोलकाता में बनाए गए ये मकान ‘झुकती मीनार’ बन गए. बीकानेर के पास कनासर में ‘एमईएस’ ने जो आयुध भंडार डिपो 125 करोड़ की लागत से बने उसे घटिया कंस्ट्रक्शन के कारण आयुध के भंडारण के लिए असुरक्षित पाया गया और रद्द करना पड़ा.

कारण और समाधान

खरीद की प्रक्रिया लगभग चाक-चौबन्द है. यह मंजूरी देने वाले, लागू करने वाले, और निगरानी करने वाले अधिकारी, उपयोगकर्ता सैनिक और उनके कमांडर अपनी अक्षमता या ईमानदारी से समझौता करने के कारण गलतियां करते हैं. जाहिर है, यह नेतृत्व के संकट का मामला है. सेना में नेतृत्व निर्माण के कार्यक्रम में बुनियादी परिवर्तन जरूरी है.

अगर नेता भ्रष्ट नहीं हैं तो इसका मतलब है कि वे अक्षम हैं. यह मूल्यांकन प्रणाली की खामियों की ओर ही इशारा करता है. फौजी नियम, नियंत्रण और कानून इसलिए होते हैं कि कमजोरियों को पूरा करें और सेना के लिए आदर्श मानदंड तय करें. यह ‘अच्छा मगर बहुत अच्छा नहीं’ नेतृत्व ही इन्हें लागू करने के लिए जिम्मेदार है. इसे पूरा करने में विफलता या अक्षमता से भ्रष्टाचार पनपता है.

उपयोगकर्ता या यूनिट के स्तर पर भी नेतृत्व विफल है. वरना इसका क्या जवाब है कि घटिया सामान या सप्लाई स्वीकार किए जा रहे हैं?

कुछ पुराने सैनिकों ने ईमानदारी की शपथ लेने के लिए सीडीएस रावत और तीनों सेनाध्यक्षों की दबी-दबी आलोचना की क्योंकि अफसरों की ईमानदारी को तो पहले ही संदेह से परे माना जाता है. मैं केवल यही उम्मीद कर सकता हूं कि इस शपथ ने नेतृत्व में सुधार के उनके संकल्प को मजबूत किया होगा. अंत में, सादगी के दिखावटी उपाय करने की जगह सीडीएस और तीनों सेनाध्यक्षों को भ्रष्टाचार के सफाए पर और पूंजी की उगाही पर ध्यान देना चाहिए ताकि सेना के आधुनिकीकरण के लिए पर्याप्त धन उपलब्ध हो.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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