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Wednesday, 20 November, 2024
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UP में BJP जीती लेकिन सामाजिक न्याय की हार नहीं हुई है

सामाजिक न्याय यूपी में मुकाबले में था ही नहीं. कोई बड़ी पार्टी इस आधार पर वोट मांग ही नहीं रही थी. वह संघर्ष हो सकता है आगे चलकर हो लेकिन उससे पहले ही इसे हारा हुआ घोषित कर देना जल्दबाजी है.

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उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड और गोवा के हाल में संपन्न विधानसभा चुनाव के बाद दिल्ली स्थित पार्टी मुख्यालय में कार्यकर्ताओं और नेताओं को संबोधित करते हुए नरेंद्र मोदी ने विशेष तौर पर और विस्तार से इस बात का जिक्र किया कि उत्तर प्रदेश में जाति की राजनीति का अंत हो गया है और लोगों ने जाति की जगह विकास और कामकाज को चुन लिया है.

उन्होंने अपने भाषण में कहा, ‘राजनीतिक पंडित यूपी को यह कहकर बदनाम करते थे कि यूपी में जाति ही चलती है. 2014, 2017, 2019 और अब 2022 हर बार उत्तर प्रदेश की जनता ने सिर्फ विकासवाद की राजनीति को ही चुना है. उत्तर प्रदेश के हर नागरिक ने ये सबक दिया है कि जाति की गरिमा, जाति का मान, देश को जोड़ने के लिए होना चाहिए, तोड़ने के लिए नहीं.’ उन्होंने सरकारी योजनाओं को गरीबों तक पहुंचाने में बीजेपी की कामयाबी की भी चर्चा की.


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इस क्रम में नरेंद्र मोदी यूपी की राजनीति के बारे में तीन प्रमुख विचारों को रख रहे हैं:

1. यूपी की राजनीति पहले जातिवाद पर चलती थी. अब वो दौर बीजेपी ने खत्म कर दिया है. अब विकासवाद चल रहा है.

2. विकास और सरकारी योजनाओं का लाभ आम लोगों और गरीबों तक पहुंचाने की बीजेपी की नीति सफल रही है.

3. जाति की राजनीति और विकास तथा कामकाज की राजनीति दो परस्पर विरोधी बातें हैं.

ये सच है कि बीजेपी 2014 के बाद से यूपी में हर चुनाव जीत रही है और उसका वोट प्रतिशत भी लगातार 40 प्रतिशत के आसपास बना हुआ है, जो बहुदलीय लोकतंत्र में अच्छा खासा आंकड़ा है. ये भी तथ्य है कि 2014 और उसके बाद से सपा और बसपा या कांग्रेस यूपी में बीजेपी को दमदार चुनौती देने में नाकाम रही हैं. कांग्रेस तो यूपी की राजनीति में 1989 के बाद से ही किनारे लगी हुई है. बीजेपी को जिस सपा और बसपा से कभी चुनौती मिली थी, उनकी दुर्गति इन चुनावों में हो रही है. 2022 के चुनाव में यही हुआ.

सपा और बसपा के किनारे लगने को ही बीजेपी जातिवाद और जातिवादी राजनीति और प्रकारांतर में सामाजिक न्याय की राजनीति का अंत बता रही है.

नरेंद्र मोदी के इस विचार के खिलाफ मैं तीन तर्क प्रस्तुत कर रहा हूं:

1. चुनाव में सपा और बसपा बेशक हारी है लेकिन राजनीति में दलित और पिछड़ी जातियों के उभार की प्रक्रिया का ये अंत नहीं है और सामाजिक न्याय की राजनीति का अंत तो ये कतई नहीं है.

2. नरेंद्र मोदी जिसे जातिवाद और जाति की राजनीति कह रहे हैं, वह दरअसल सामाजिक प्रक्रिया में नीचे और मध्य में रह गई जातियों की हिस्सेदारी की लड़ाई है. ये एक जरूरी संघर्ष है, जिसने भारतीय लोकतंत्र का विस्तार नीचे तक किया है और लोकतंत्र इससे मजबूत हुआ है.

3. नरेंद्र मोदी विकास और सामाजिक न्याय की राजनीति को एक दूसरे का विरोधी बता रहे हैं, जबकि सामाजिक न्याय और विकास साथ-साथ चल सकते हैं. बल्कि सामाजिक न्याय के बिना समग्र विकास संभव ही नहीं है.


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तीनों तर्कों को एक-एक कर देखते हैं.

एक, अभी संपन्न हुए विधानसभा चुनाव में सामाजिक न्याय मुद्दा ही नहीं था. लोगों के पास सामाजिक न्याय के आधार पर वोट डालने का विकल्प नहीं था. किसी भी राजनीतिक पार्टी ने सामाजिक न्याय को चुनावी मुद्दा नहीं बनाया.

सपा और बसपा मुख्य रूप से दो आधार पर चुनाव लड़ रही थी. दोनों पार्टियां दावा कर रही थीं कि वे बीजेपी को रोकने में ज्यादा सक्षम हैं, इसलिए मुसलमान उन्हें वोट दें. इन पार्टियों का गणित ये था कि बीजेपी के मुकाबले खुद को सबसे मजबूत साबित करते ही लगभग 20% आबादी वाला मुसलमान वोट उन्हें मिल जाएगा. सपा को इसमें कामयाबी भी मिली लेकिन मुसलमान वोट के साथ अगर बड़ी संख्या में हिंदू वोट न हों तो यूपी में चुनाव नहीं जीता जा सकता.

इन पार्टियों का दूसरा दावा अपने-अपने कार्यकाल में हासिल की गई ‘उपलब्धियां’ थीं. सपा दावा कर रही थी कि अखिलेश विकास पुरुष हैं और 2012-2017 के बीच यूपी में खूब विकास हुआ है. वहीं बसपा का दावा था कि कानून और व्यवस्था 2007-2012 में सबसे अच्छी थी. ये सब करके सपा और बसपा पहले भी हार चुकी थीं लेकिन उन्होंने लोगों को उन्हीं दिनों की याद दिलाई. ये रणनीति फेल हो गई.

बीजेपी के चुनावी प्रचार में सांप्रदायिक तत्व कभी खुले तो कभी प्रछन्न रूप से लगातार चलता रहा. खुद योगी आदित्यनाथ भी इसमें पीछे नहीं थे. इसके मुकाबले सपा या बसपा ने कोई वैचारिक चुनौती पेश नहीं की. सामाजिक न्याय से बीजेपी की सांप्रदायिकता को वैचारिक चुनौती दी जा सकती थी लेकिन सपा और बसपा दरअसल वहां से पीछे लौट चुकी हैं.

बसपा ब्राह्मण भाईचारा सम्मेलन और प्रबुद्ध सम्मेलन कर रही थी, तो सपा परशुराम जयंती को सरकारी छुट्टी बनाकर ब्राह्मण वोट की उम्मीद कर रही थी. अखिलेश यादव बाबाओं का चरण स्पर्श करने की फोटो सोशल मीडिया पर डाल रहे थे.

ये तुष्टिकरण एक दौर में असरदार हुआ करता था क्योंकि तब सपा और बसपा आपस में भिड़ रही थीं और बीजेपी किनारे पड़ी थी. तब तक सवर्ण इस ओर या उस ओर आ-जा रहे थे. 2014 में उनका ज्यादातर वोट बीजेपी में चला गया और अब यही नयी स्थिति है. 2022 के विधानसभा चुनावों में समुदायों के वोटिंग पैटर्न पर सीएसडीएस-लोकनीति के सर्वे का आकलन है कि ब्राह्मणों का लगभग 90 प्रतिशत वोट बीजेपी को गया. ठाकुर और सवर्ण-वैश्य भी उनसे कुछ ही पीछे हैं.

सपा और बसपा ने सबका साथ, सबका विकास की रणनीति की नकल के चक्कर में अपना वैचारिक तेज खो दिया है. खासकर, ईडब्ल्यूएस कोटा के मामले में बीजेपी के विधेयक का संसद में समर्थन करने से सामाजिक पिछड़ेपन को दूर करने की राजनीति का उनका दावा कमजोर हो गया है.

आरक्षण का आधार मूल रूप से तीन थे- अछूत होने की पृष्ठभूमि, आदिवासी होना और सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ापन. इसमें आर्थिक आधार जोड़ने का मतलब पिछड़ेपन की ऐतिहासिकता के विचार को नकारना था. यह न लोहियावाद है और न ही बहुजनवाद. मेरा विचार है कि यहां पर सपा और बसपा ने ऐतिहासिक भूल की है.


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नरेंद्र मोदी का दूसरा विचार दरअसल इस सोच से निकला है कि जाति सिर्फ दलितों और ओबीसी में होती है और इन समुदायों के सशक्तिकरण की बात जातिवाद है. जबकि सवर्ण वर्चस्व को बनाए रखने या उसे मजबूत करने की राजनीति उनके लिए राष्ट्रवाद है. इसलिए आरएसएस जब हिंदू सवर्ण वर्चस्व को मजबूत करने के लिए काम करता है, तो उसे देशहित मान लिया जाता है. दरअसल जनता का मानस ऐसा बना दिया गया है कि सवर्ण जातियों का जातिवाद, जातिवाद की तरह दिखता ही नहीं है. सवर्ण या अपर कास्ट भी एक नया नाम ही है क्योंकि मंडल कमीशन या राज्यों में पिछड़ी जातियों की पहचान होने से पहले, एससी और एसटी के अलावा बाकी सभी जातियों को जनरल कैटेगरी माना जाता था. इसी जनरल के अंदर सवर्ण वर्चस्व चुपचाप स्थापित रहता था. मंडल कमीशन के बाद, ये स्थिति जब बदल गई, तो ये कहा गया कि भारत में जातिवाद बढ़ गया है.

मेरा तर्क है कि उत्तर भारतीय राजनीति में जिसे जातिवाद कहा गया, वह दरअसल पिछड़ी जातियों का उभार था. ये जातियां संख्या बहुल होने के बावजूद आजादी के बाद के शुरुआती दशकों में हाशिए पर रहीं. 1960 से लेकर 1990 के बीच उनकी दावेदारी धीरे-धीरे बढ़ी और 1990 के बाद इसमें तेजी आई. राजनीतिक विज्ञानी क्रिस्टोफ जेफ्रेलो इसे साइलेंट रिवोल्यूशन कहते हैं. उनका मानना है कि इस प्रक्रिया में भारतीय राजनीति का चरित्र लोकतांत्रिक बना. इसे महज नकारात्मक अर्थों में जातिवाद और समाज के बंटवारे के तौर पर देखना एक सतही आकलन है या फिर इसे नीचा दिखाने की कोशिश.

नरेंद्र मोदी जिस तीसरे विचार को रख रहे हैं उसका भी यथार्थ से मेल नहीं है. वे कह रहे हैं कि अब जातिवाद और जातिवादी राजनीति खत्म हो गई और अब विकास का दौर है. वे जातीय उभार को विकास का विरोधी बता रहे हैं. जबकि ऐतिहासिक तथ्य है कि देश के जिन राज्यों में सबसे पहले पिछड़ा उभार हुआ, जहां सामाजिक न्याय का काम सबसे पहले हुआ, वे विकास और मानव विकास दोनों मामलों में सबसे आगे बढ़े हुए राज्य हैं. ये बात और है कि इन राज्यों की राजनीति को जातिवाद से ग्रसित माना जाता है. तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक, केरल और महाराष्ट्र ऐसे ही राज्य हैं, जहां आरक्षण सबसे पहले आया और सामंती वर्चस्व के खिलाफ सबसे सघन लड़ाइयां लड़ी गईं. आज शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य और शहरीकरण से लेकर औद्योगीकरण में ये अग्रणी राज्य हैं. ये बात समझने की है कि बड़ी आबादी को समर्थ और सक्षम बनाए बगैर और उनकी ऊर्जा को बंधनों से आजाद किए बिना समग्र विकास संभव नहीं है,

कुल मिलाकर, बीजेपी ने यूपी का चुनाव बेशक जीत लिया है लेकिन ये सामाजिक न्याय की हार नहीं है. सामाजिक न्याय यूपी में मुकाबले में था ही नहीं. कोई बड़ी पार्टी इस आधार पर वोट मांग ही नहीं रही थी. वह संघर्ष हो सकता है आगे चलकर हो लेकिन उससे पहले ही सामाजिक न्याय को हारा हुआ घोषित कर देना जल्दबाजी है.

जैसा कि फैज अहमद फैज ने लिखा है:

तुम ये कहते हो वो जंग हो भी चुकी
जिसमें रखा नहीं है किसी ने कदम
कोई उतरा ना मैदान में दुश्मन न हम

(लेखक पहले इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका में मैनेजिंग एडिटर रह चुके हैं और इन्होंने मीडिया और सोशियोलॉजी पर किताबें भी लिखी हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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