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Friday, 29 March, 2024
होममत-विमतभूली-बिसरी कश्मीर फाइल: कैसे भारत ने 50 साल पहले एक गोली चलाए बिना आतंकी नेटवर्क नेस्तनाबूद किया

भूली-बिसरी कश्मीर फाइल: कैसे भारत ने 50 साल पहले एक गोली चलाए बिना आतंकी नेटवर्क नेस्तनाबूद किया

नई दिल्ली कश्मीर में अगला कदम उठाने की तैयारी में है तो मास्टर सेल कहानी अहम सबक है यानी चुपचाप राजनीति गोलियों से ज्यादा मारक औजार है.

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श्रीनगर के नवाकदल पुल पर फरवरी की कंपकंपाती सर्दी से बचने के लिए थोड़ी-सी लकडिय़ों का अलावा जलाए कांस्टेबल चरण दास पहरे पर थे. उनकी राइफल में पांच गोलियां भरी थीं, ताकि फिर जंग छिड़ जाए तो काम आए. वे रात के अंधेरे में दो लोगों को आते नहीं देख पाए और उन लोगों ने अपनी कटार चरण दास के सीने में भोंक दी. सीमा सुरक्षा बल का वह जवान कुछ मीटर बर्फ में रेंगता रहा और फिर उसका दम टूट गया.

बाद में 3 फरवरी 1967 की रात महाराजगंज थाने के एक क्लर्क ने एफआईआर 21 में उस हत्या को दर्ज किया.

पचास साल पहले इसी महीने में भारत ने चरण दास की हत्या के जिम्मेदार अल-फतह आतंकी नेटवर्क को नेस्तनाबूद कर दिया था, मगर लगभग एक भी गोली चलाए बगैर. नेटवर्क के हाशिए के शख्स सत्ता-प्रतिष्ठान के हिस्सा हो गए. मसलन, पूर्व उप-मुख्यमंत्री मुजफ्फर बेग, प्रतिष्ठित राजनैतिक नेता बशीर अहमद किचलू, और बेहद प्रतिष्ठित पुलिस आइजी जावेद मखदूमी.

नई दिल्ली, कश्मीर में अगला कदम बढ़ाने की सोच रही है यानी चुनाव कराने और पाकिस्तान से बैक चैनल वार्ता के विकल्प की टोह ले रही है तो मास्टर सेल की कहानी अहम सबक दे सकती है. उस तरीके ने दिखाया कि आतंकवाद से लड़ाई सिर्फ बहादुरी दिखाने का ही मामला नहीं, बल्कि शांत राजनीति गोलियों से ज्यादा मारक हथियार हो सकती है.

मास्टर सेल का जन्म

भारत-पाकिस्तान के बीच दूसरे युद्ध के कुछ महीनों पहले 1964 की गर्मियों में इस्लामाबाद ने गुलाम सरवर, हयात मीर, गुलाम रसूल जहगीर और जफर-उल-इस्लाम द्वारा बनाए नए गुप्त नेटवर्क को मदद देनी शुरू की. ‘मास्टर सेल’ नाम से जाने गए इस नेटवर्क में पढ़े-लिखे एलिट, खासकर मेडिकल छात्रों और इंजीनियरों का दबदबा था. विद्वान नवनीता चड्ढा बेहेरा ने लिखा है, निर्वाचित सरकार की जगह नई दिल्ली से नियुक्त वफादारों से मोहभंग का शिकार यह गुप्त युवा संगठन अलगाववाद की ओर बढ़ चला.

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तब संभावित अलगाववादी नजीर गिलानी ने लिखा, ‘नियंत्रण रेखा को पार करना कश्मीरी युवाओं के लिए रहस्यमय ईव ऑफ सेंट अग्रेस की तरह था.’ यह किंवदंती जैसी यूरोपीय लोक परंपरा का जिक्र है, जिसमें लड़कियां अपने होने वाले पतियों के लिए दैवीय रस्म किया करती थीं.

जब युद्ध 1965 की गर्मियों में छिड़ा तो इन नेटवर्कों क्रांतिकारी दस्ते की तरह पाकिस्तानी फौज और गैर-फौजी लडक़ों के पक्ष में लडऩे का जिम्मा ओढ़ लिया. श्रीगनर के रिगल चौक और लाल चौक में हथगोले फेंके गए, पुल जलाए गए और सडक़ों पर पर्चे बरसाए गए.

मध्य कश्मीर के बडगाम की पहाडिय़ों में हयात मीर ने समानांतर सरकार बना ली थी और इस्लामी अदालतें भी कायम कर ली थीं, जिसने एक मौके पर एक कथित कुलटा औरत को फांसी की सजा भी सुनाई. एक हिंदू किराना दुकानदार का माल लूटा गया और उसे गांव के गरीबों में बांटा गया.

1965 के युद्ध के खत्म होने के बाद नेटवर्क अपना आतंकी अभियान चलाए रखना चाहता था. भागती पाकिस्तानी फौज के पीछे छूटे बम-गोलों से राज्य भर में धमाके किए गए. सेल ने जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन मुख्यमंत्री गुलाम मुहम्मद सादिक और गृह मंत्री डी.पी. धर की हत्या की योजना भी बनाई थी.

चर्चित पुलिस अधिकारी सुरेंद्र नाथ, जो बाद में पूर्वोत्तर और हिंसाग्रसत पंजाब में भी तैनात हुए, ने लिखा, ‘भूमिगत सेल अपनी आतंकी कार्रवाइयों से घाटी में काफी तनाव पैदा करने में कामयाब हुए.’

‘मास्टर सेल के दो सदस्यों को ट्रेनिंग मिली थी और उन लोगों ने बाकियों को ट्रेनिंग दी थी. फिर उन्हें बड़े पैमाने पर भारी गोला-बारूद उपलब्ध थे. इससे वे घाटी में सामान्य जन-जीवन को ठप करने में कारगर हुए.’

अल-फतह का उदय

बाद में 1966 में जम्मू-कश्मीर में गुप्त जंग में माहिर जहगीर और उसके पाकिस्तानी खुफिया हैंडलरों ने अल-फतह नाम का एक नया संगठन खड़ा किया. विद्वान स्टीफन कोहेन ने द आइडिया ऑफ पाकिस्तान्स मिलिट्री में लिखा कि बगावत की जंग में दिलचस्पी अफसरों में अमेरिका की एकेडमियों में पढ़ते हुए जगी. कोहेन लिखते हैं कि अमेरिका ऐसी जंग से बचना चाह रहा था, लेकिन पाकिस्तान ने इसका मतलब ‘भारत के खिलाफ लोक युद्ध शुरू करने से लगाया.’
नए गुट के पहले ऑपरेशन, नवाकदल के पुल पर 1967 में हत्या के बाद कई डकैतियां, खासकर पुलवामा में शिक्षा विभाग की ट्रेजरी और जम्मू-कश्मीर बैंक की हजरतबल शाखा में की गईं. बीरवाह की पहाडिय़ों में अल-फतह ने नए रंगरूटों का ट्रेनिंग कैंप स्थापित किया गया.

बाद में कुछ अहमियत रखने वाले अलगगाववादी नेता फज्ल-उल-हक कुरेशी ने दावा किया कि अल-फतह ने 1971 तक 300 काडर पाकिस्तान में ट्रेनिंग के लिए भेजने में कामयाब हुए, जिन्हें देश भर में मस्जिदों से किया गया. उन्होंने कहा, असली समस्या यह थी कि हथियार उपलब्ध नहीं थे ‘क्योंकि पाकिस्तान ने फैसला किया है कि जेहादियों को हथियारबंद करने का वक्त नहीं आया है.’

अल-फतह का ट्रेनिंग कैंप चलाने वाले पाकिस्तानी गुप्तचर सलीम जहांगीर ने जहगीर से यह भी कहा था कि बड़ी मात्रा में कारबाइन हैं. हालांकि हथियार रखने वाले गुप्तचर हाजी जलालुद्दीन को सख्त निर्देश थे कि जब तक पाकिस्तान खुफिया एजेंसी से संकेत न मिले, अल-फतह को हथियार न दिए जाएं. 1971 के युद्ध के बादल मंडरा रहे थे और पाकिस्तान की सारी ऊर्जा पूरब में लगी थी, ऐसे में वह संकेत कभी नहीं आया.

जहगीर ने अपनी डायरी में लिखा, खुद में अल-फतह की कार्रवाई का कोई मतलब नहीं था. उसकी राय में, वे लंबी जंग में भारत को धीरे-धीरे कमजोर करने की नींव रख रहे थे, ठीक उसी तरह ‘जैसे कोई मच्छर हाथी से लड़ते हुए करता है.’
गजब के जवाबी खुफिया कार्रवाई से जहगीर को अल-फतह के सदस्यों के साथ 1972 में गिरफ्तार किया गया. दिलचस्प यह है कि यह ऑपरेशन तब के डिप्टी एसपी अली मोहम्मद वटाली ने किया था, जो 1989 में कश्मीर में एसाल्ट रायफल से पहले आतंकी हमले के निशाना बने.

दुश्मन को बदलना

अल-फतह के खत्मे के बाद नई दिल्ली ने आखिरी कार्रवाई शुरू की, यानी एक वक्त के दुश्मन को अपनी ओर लाने की कार्रवाई. 1971 युद्ध में विजय के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने शेख अब्दुल्ला के साथ समझौते की तैयारी की. अब्दुल्ला जम्मू-कश्मीर को सीमित राजनैतिक स्वायत्तता पर राजी हो गए और रायशुमारी की अपनी मांग हमेशा के लिए छोड़ दी.

कश्मीर में मुख्यमंत्री सादिक के उत्तराधिकारी सैयद मीर कासिम ने उस नेटवर्क को खत्म करने वाले अफसर पीर गुलाम हसन शाह की मदद से अल-फतह के गिरफ्तार सरगनाओं से बातचीत शुरू की. छोटे-मोटे अपराध में बंद लोगों को रिहा कर दिया गया, बाकियों को श्रीनगर के सेंटरल जेल में पढ़ाई-लिखाई और विशेष सुविधाओं की व्यवस्था की गई.

बाद में मुख्यमंत्री कासिम ने लिखा, ‘मैं उनके अपराधों को देखकर परेशान था. (लेकिन) आखिरकार मैं एक पिता था और इसलिए अपराध और दंड के खालिस सिद्धांत का बहाना नहीं बना सकता था. मैंने राज्य विधानसभा में 25 मार्च 1972 को कहा कि मैं कौल उठा सकता हूं कि मैंने वही दर्द महसूस किया है, जैसा इन नौजवानों के मां-बाप ने किया होगा.’
यह मनोवैज्ञनिक ऑपरेशन काम कर गया. 1975 में अल-फतह का बड़ी संख्या में काडर मुख्यधारा का हिस्सा बन गया और उसने इंकलाबी महाज का गठन किया, जिसने इंदिरा गांधी-शेख अब्दुल्ला के समझौते का समर्थन किया.

फज्ल-उल-हक कुरैशी, लजीर अहमद वानी, हमीदुल्ला भट, मोहम्मद शबन वकील और फारूक अहमद भट का छोटा असंतुष्ट गुट ने समझौते का विरोध किया, लेकिन वे राजनैतिक रूप से हाशिए पर चले गए. बाद में वे भी लौट आए.
कुरैशी ने कहा, ‘रोजगार से लंबे वक्त तक गैर-मौजूदगी ने मेरी माली हालत बुरी तरह बिगाड़ दी है. बच्चों की परवरिश करनी है इसलिए मैं काम पर बने रहना चाहता हूं.’ उसने अलगाववादी पीपुल्स लीग में अपना पद छोड़ दिया तो सरकार ने उसीि सजा माफ कर दी.

उसके बाद दो दशकों तक कश्मीर में शांति कायम रही. फिर प्रधानमंत्री राजीव गांधी की शह पर 1987 की चुनाव धांधली से फिर राजनैतिक व्यवस्था भरभराकर टूट गई. जैसे 1960 के दशक में रेडिकल तत्वों गुप्त मोर्चा संभाला था, नई पीढ़ी के युवाओं ने भी फिर अलगाववाद का रास्ता अख्तियार कर लिया.

अब नई दिल्ली कश्मीर में अगले कदम की योजना बन रही है, तो नेताओं को भूली-बिसरी कश्मीर फाइल को खोलकर देखनी चाहिए और उसके सबक से सीख लेनी चाहिए.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(लेखक का ट्विटर हैंडल है @praveenswami. यहां व्यक्त विचार निजी हैं)


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