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Friday, 29 March, 2024
होमदेश‘हिंदुओं का लगातार उपहास’- लीना मणिमेकलाई की ‘काली’ के पोस्टर पर हिंदू दक्षिण पंथी प्रेस के विचार

‘हिंदुओं का लगातार उपहास’- लीना मणिमेकलाई की ‘काली’ के पोस्टर पर हिंदू दक्षिण पंथी प्रेस के विचार

दिप्रिंट का राउण्ड-अप कि हिंदुत्व-समर्थक मीडिया ने पिछले कुछ हफ्तों की ख़बरों और सामयिक विषयों को कैसे कवर किया, और उनपर क्या टिप्पणियां कीं.

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नई दिल्ली: हिंदुओं को ‘लगातार’ चिढ़ाया जा रहा है, उनका उपहास किया जा रहा है, जबकि इस्लाम के संस्थापक और धर्मग्रंथों का ‘उल्लेख मात्र’ करने से मारने की धमकियां मिल सकती हैं- ये विचार इस सप्ताह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के मुखपत्रऑर्गनाइज़र के संपादकीय में व्यक्त किए गए हैं.

संपादकीय में उस विवाद की ओर इशारा था, जो तमिल फिल्म निर्माता लीना मणिमेकलई की एक डॉक्युमेंट्री फिल्म के पोस्टर पर खड़ा हो गया है. मणिमेकलई की फिल्म ‘काली’ के पोस्टर में एक महिला को हिंदू देवी काली की पोशाक पहने दिखाया गया है, जो एक सिग्रेट पी रही है और अपने हाथ में एलजीबीटीक्यू समुदाय का एक इंद्रधनुषी झंडा लिए है.

संपादकीय में कहा गया, ‘लीना मणिमेकलई ने हिंदू देवी मां काली का एक अपमानजनक पोस्टर साझा करने की हिम्मत की, जिसे मृत्यु, समय और परिवर्तन का प्रतीक माना जाता है. तृणमूल कांग्रेस की बड़बोली महुआ मोइत्रा ने इसे उनके बोलने के अधिकार के तहत उचित ठहराया, और कलिका माता का सही चित्रण बताया’. उसमें आगे कहा गया, ‘ऐसी स्थिति से कैसे निपटा जाए, जहां इस्लाम जैसे एकेश्वरवादी धर्म के संस्थापक और धर्मग्रंथों का ‘उल्लेख मात्र’ करने से मारने की धमकियां मिल जाती हैं, जबकि शिव, गणेश, सरस्वती, और काली जैसे सर्वोच्च पूज्य देवी-देवताओं का लगातार मज़ाक़ उड़ाया जाता है, उपहास किया जाता है’.

इस बीच साप्ताहिक ऑर्गनाइज़र के दो और संपादकीयों में, भारतीय जनता पार्टी प्रवक्ता नुपुर शर्मा पर टिप्पणियों के लिए सुप्रीम कोर्ट की आलोचना की गई, पैग़म्बर मोहम्मद पर शर्मा के बयानों से देश भर में और देश से बाहर नाराज़गी की लहर दौड़ गई थी.

1 जुलाई को, न्यायमूर्तियों जेबी पार्दीवाला और सूर्यकांत की बेंच ने, जो शर्मा की याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिन्होंने पैग़म्बर मोहम्मद विवाद के सिलसिले में, अपने खिलाफ दायर तमाम एफआईआर्स को एक जगह इकठ्ठा करने की मांग की थी, कहा था कि देश में जो कुछ हो रहा है उसके लिए वो ‘अकेली’ ज़िम्मेवार हैं.

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ऑर्गनाइज़र के लिए अपने लेख में, रिटायर्ड नौकरशाह सीवी आनंद बोस ने सुप्रीम कोर्ट की कार्रवाई को ‘न्यायिक सक्रियता’ क़रार दिया. उन्होंने लिखा कि ऐसा लगता है कि ये टिप्पणी, कि शर्मा ने ‘पूरे देश में आग लगा दी थी’, उदयपुर में कन्हैया लाल की हत्या की पृष्ठभूमि में ‘हत्या के कृत्य’ का निहित अनुमोदन थी.

बोस ने लिखा, ‘दो जजों की सरसरी टिप्पणियों के भयावह निहितार्थ किसी भी संवेदनशील आत्मा को व्याकुल कर सकते हैं. क्या अदालत किसी व्यक्ति द्वारा दिए एक ‘ग़ैर-ज़िम्मेदार’ बयान के आधार पर, अनियंत्रित भीड़ की जवाबी हिंसा को उचित ठहरा रही है? क्या इसका मतलब ये है कि किसी बातूनी व्यक्ति के ज़रा से उकसावे पर, क़ानून व्यवस्था की मशीनरी और संविधान अपना काम करना बंद कर देंगे?

उसी पत्रिका के एक और लेख में- जिसे वकील सुरेंद्र नाथन ने लिखा है- पूछा गया है कि अपनी ‘भड़ास और अनुचित टिप्पणियों’ से, क्या जजों ने एक रेखा (लक्षमण रेखा) लांघ दी है.

संडे गार्जियन लाइव के एक ओपीनियन पीस में मेजर जन. ध्रुव कटोच (रिटा.) ने भारत में बार बार सांप्रदायिक तनाव पैदा करने के लिए ‘झूठे नैरेटिव्ज़’ को ज़िम्मेवार ठहराया.

इंडीपेंटेंट रिसर्च सेंटर इंडिया फाउण्डेशन के डायरेक्टर ने लिखा, ‘पिछले दशक, या विशेष रूप से 2014 के बाद से, जब बीजेपी की अगुवाई में एनडीए ने राष्ट्रीय चुनावों में ज़बर्दस्त जीत हासिल की, तब से कुछ निहित स्वार्थी तत्वों ने जो सत्ता खो बैठे थे, जानबूझकर ऐसी हिंसा को हवा देने के लिए समाज में तनाव पैदा करना शुरू कर दिया, जिसके लिए कई बार देश के बाहर के स्रोतों से भी पैसा हासिल किया जाता था’.

उन्होंने ये भी कहा कि सुप्रीम कोर्ट का वर्तमान परिस्थितियों के लिए शर्मा को क़सूरवार ठहराना ‘कुछ ज़्यादा ही हो गया था’.

कटोच ने लिखा, ‘अपनी टिप्पणियों की वजह से क्या नुपुर शर्मा को देश में अशांति फैलाने के लिए अकेले ज़िम्मेवार ठहराया जा सकता है? उससे कट्टरपंथी मानसिकता की नेचर ही झूठी साबित हो जाती है’. उन्होंने आगे लिखा, ‘1960 के दशक की बात है जब कश्मीर में चरमपंथ बढ़ना शुरू हुआ था, जिसके नतीजे में आगे चलकर 1990 में हिंदुओं का दुखद जनसंहार हुआ. खाड़ी देशों से मिले पैसे से परवान चढ़ा ये कट्टरपंथ केवल कश्मीर तक सीमित नहीं रहा, बल्कि इसने भारत के बहुत से दूसरे हिस्सों को भी अपनी चपेट में ले लिया, और भारत के अलावा अब ये उन्हीं देशों के लिए ख़तरा बन गया है, जिन्होंने इसे हवा दी थी. इसलिए अकेली पूर्व बीजेपी प्रवक्ता को भारत की हिंसा के लिए ज़िम्मेवार बताकर उन्हें फटकारना, शायद कुछ ज़्यादा ही हो रहा था’.


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‘ममता बनर्जी जानती हैं कि जागो राजनीति से वोट नहीं मिलते’

फर्स्टपोस्ट के एक ओपीनियन पीस में दक्षिणपंथी पत्रकार अजीत दत्ता ने कहा, कि मणिमेकलई के समर्थन में लोकसभा सांसद महुआ मोइत्रा के बयान से, ख़ुद को अलग करने के तृणमूल कांग्रेस के फैसले ने साबित कर दिया है, कि पार्टी और उसकी प्रमुख ममता बनर्जी अच्छे से समझती हैं कि ‘जागो राजनीति से वोट नहीं मिलते’.

मणिमेकलई के समर्थन में अपनी टिप्पणियों में मोइत्रा ने काली को एक ‘मांस खाने वाली’ और ‘शराब स्वीकार करने वाली’ देवी कहा था.

दत्ता ने लिखा, ‘इन टिप्पणियों के तुरंत बाद, उनकी पार्टी ने आगे बढ़कर उन टिप्पणियों से किनारा कर लिया था. फिर शशि थरूर उनके समर्थन में आए, और अजीब बात ये कि उनकी पार्टी ने भी आगे आकर थरूर से दूरी बना ली. साफ है कि विपक्ष के कुछ वर्ग भी, जिन्होंने सत्तारूढ़ पार्टी की नफरत में ख़ुद को अंधा कर लिया है, कुलीन राजनीति के इस उपनिवेश से प्रेरित या वोक से प्रेरित ब्राण्ड का समर्थन नहीं करते’.

दत्ता ने मोइत्रा और थरूर जैसे राजनेताओं को ‘फ्रिंज एलीट्स’ क़रार दिया, और कहा कि उनमें से कुछ ने अपनी ‘सेक्युलर या वोक साख की वजह से नहीं, बल्कि उसके बावजूद’ राजनीति में कामयाबी हासिल की.

दत्ता ने लिखा, ‘राहुल गांधी, जो अकसर किसी दार्शनिक की तरह बात करते हैं, कांग्रेस के वंशज बने रहते, भले ही उनकी चिंतन प्रक्रिया कितनी भी अव्यवस्थित हो, या कितनी भी ग़लत समझी गई हो. शशि थरूर तीन बार के संसद सदस्य इसलिए नहीं हैं कि उनके मतदाता उनकी किताबें पढ़ते हैं, या उनके विशाल शब्द ज्ञान को पसंद करते हैं. इसी तरह, महुआ मोइत्रा की तुलना अकसर मुखर अमेरिकी राजनेता एलेग्ज़ेंद्रिया ओकेसियो-कोरतेज़ से की जाती है, लेकिन उनका पूरा सियासी करियर और प्रासंगिकता ममता बनर्जी की स्वीकृति पर टिकी है’.

वरिष्ठ आरएसएस लीडर भागैया ने संघ के हिंदी मुखपत्र पाञ्चजन्य में एक अपीनियन पीस लिखा, जिसमें समझाया गया है कि भगवा ध्वज का क्या महत्व है, और संगठन किसी व्यक्ति विशेष को नहीं बल्कि इस ध्वज को अपना गुरू मानता है.

भागैया ने अपने पीस में लिखा, ‘संघ किसी व्यक्ति की पूजा नहीं करता. व्यक्ति शाश्वत या अनंत नहीं है, समाज अनंत है. व्यक्ति महान हो सकता है. हमारे समाज से बहुत सारे व्यक्तित्व रहे होंगे, बहुत से आज भी हैं. उन सभी महान शख़्सियतों को शत् शत् नमन, लेकिन आरएसएस अपने पूरे राष्ट्रीय समाज को, संपूर्ण समाज को राष्ट्रीयता के आधार पर, मातृ भूमि के आधार पर संगठित करने का कार्य कर रही है. इसी वजह से हमने भगवा ध्वज को अपना गुरू माना है, किसी व्यक्ति को नहीं’.

पाञ्चजन्य ने उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ सरकार के अपने दूसरे कार्यकाल के 100 दिन पूरे करने पर, उसके प्रदर्शन का भी विश्लेषण किया.

उत्तर प्रदेश मुख्यमंत्री आदित्यनाथ पर दो किताबों के लेखक शांतनु गुप्ता ने लिखा, कि उत्तर प्रदेश सरकार एक मज़बूत क़ानून व्यवस्था की अपनी ‘विरासत’ को बनाए हुए है, और साथ ही आर्थिक और सामाजिक विकास की प्रतिबद्धता को भी दर्शा रही है.

गुप्ता ने लिखा कि बतौर मुख्यमंत्री अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने के अलावा, आदित्यनाथ ने समाजवादी पार्टी के गढ़ रामपुर और आज़मगढ़ में भी जीत हासिल की, और वो ‘वोट-बैंक राजनीतिक का डटकर सामना कर रहे हैं’.

‘AAP में विज्ञापन बनाम काम’

अपने ओपीनियन पीस में आम आदमी पार्टी की विज्ञापन नीति की आलोचना करते हुए, आरएसएस पदाधिकारी राजीव तुली ने दावा किया कि पार्टी अपने काम से ज़्यादा अपने विज्ञापनों को लेकर चर्चा में है.

इंडिया टुडे में उन्होंने लिखा, ‘राजनीति का क्षेत्र बाज़ार की ताक़त से भी आज़ाद नहीं रहा है. राजनीतिक-मार्केटिंग आज राजनीतिक गतिविधियों का एक अनिवार्य हिस्सा बन गई है. विज्ञापनों पर भारी पैसा ख़र्च किया जा रहा है,जो केवल चुनाव के समय तक सीमित नहीं है. भारत के राजनीतिक परिदृश्य में, उस चीज़ पर करोड़ों रुपए ख़र्च किए जा रहे हैं, जिसे व्यापक रूप से राजनीतिक-मार्केटिंग कहा जाता है’.

तुली ने दावा किया, ‘आप सरकार सरकारी ख़ज़ाने से विज्ञापनों पर औसतन हर रोज़ 1.34 करोड़ रुपए की भारी रक़म ख़र्च कर रही है. मिसाल के तौर पर, दो वर्षों में दिल्ली की आप सरकार ने पर्यावरण के लिए ठूंठ डीकंपोज़र पर 68 लाख रुपए ख़र्च किए, लेकिन विज्ञापनों के ज़रिए उसे प्रोजेक्ट करने पर 23 करोड़ रुपए उड़ा दिए, जो वास्तविक काम का 40 गुना है. पंजाब में हाल ही में बनी आप सरकार ने भी इसी मॉड्यूल को अपनाया है’.


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श्रीलंका और भारत के लिए सीख

दक्षिणपंथी स्तंभकार और प्रोफेसर माकरंड आर परांजपे ने कहा कि श्रीलंका में चल रहे आर्थिक संकट ने भारत को सिखाया है, कि ‘दूरदर्शी नहीं तो मज़बूत नेतृत्व, सामाजिक एकता, राजकोषीय विवेक, और विश्व के अशांत पानी में राज्य के जहाज़ के होशियारी से परिचालन का क्या महत्व होता है’.

गल्फ न्यूज़ के अपने ओप-एड में उन्होंने लिखा, ‘भारत में हमारे लिए श्रीलंका से मिलने वाली सीख बिल्कुल स्पष्ट होनी चाहिए’. उन्होंने आगे लिखा,‘अत्यधिक लोकलुभावनवाद, सहायता, राहत पैकेज, वैचारिक भव्यता, और निरंतर नागरिक अशांति में नहीं फंसना चाहिए. वैचारिक भव्यता और अशांति दुनिया भर के लोकतंत्रों और मुक्त समाज के लिए सबसे बड़े ख़तरों में से हैं’.

‘इलेक्ट्रॉनिक प्रसारण पर सीमा शुल्क पर लगी रोक हानिकारक’

अपने ब्लॉग में स्वदेशी जागरण मंच के सह-संयोजक अश्वनी महाजन ने दलील दी, कि विश्व व्यापार संगठन की ओर से इलेक्ट्रॉनिक प्रसारणों पर सीमा शुल्क पर लगी रोक, आत्मनिर्भर बनने के भारत के प्रयासों को नुक़सान पहुंचा रही है. महाजन का तर्क था कि ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि विकसित देश इसे आगे बढ़ा रहे थे, और ‘रोक को आगे बढ़ाने के लिए सभी राजनयिक और ज़ोर-ज़बर्दस्ती के तरीक़े अपना रहे थे’

उन्होंने लिखा, ‘यहां पर मुद्दा राजस्व के नुक़सान का नहीं है, बल्कि भारत जैसे देश के लिए ये उससे कहीं बड़ा मुद्दा है, जहां स्टार्ट-अप्स और सॉफ्टवेयर कंपनियां बहुत सी इलेक्ट्रॉनिक वस्तुएं बनाने में सक्षम हैं, जहां हम ख़ुद अपने देश में फिल्में और मनोरंजन की दूसरी चीज़ें बना सकते हैं. लेकिन जब ये सब चीज़ें बिना किसी टैरिफ के निर्बाध रूप से आयात होती हैं, तो उन्हें देश में ही बनाने के लिए कोई प्रोत्साहन नहीं रह जाता. ई-उत्पादों के टैरिफ पर लगी रोक दरअसल आत्मनिर्भर भारत के हमारे प्रायासों को मार रही है, और अमेरिका, यूरोपीय देशों तथा चीन को फायदा पहुंचा रही है’.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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